ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 6/ मन्त्र 17
य इ॒मे रोद॑सी म॒ही स॑मी॒ची स॒मज॑ग्रभीत् । तमो॑भिरिन्द्र॒ तं गु॑हः ॥
स्वर सहित पद पाठयः । इ॒मे इति॑ । रोद॑सी॒ इति॑ । म॒ही इति॑ । स॒मी॒ची इति॑ स॒म्ऽई॒ची । स॒म्ऽअज॑ग्रभीत् । तमः॑ऽभिः । इ॒न्द्र॒ । तम् । गु॒हः॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
य इमे रोदसी मही समीची समजग्रभीत् । तमोभिरिन्द्र तं गुहः ॥
स्वर रहित पद पाठयः । इमे इति । रोदसी इति । मही इति । समीची इति सम्ऽईची । सम्ऽअजग्रभीत् । तमःऽभिः । इन्द्र । तम् । गुहः ॥ ८.६.१७
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 6; मन्त्र » 17
अष्टक » 5; अध्याय » 8; वर्ग » 12; मन्त्र » 2
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अष्टक » 5; अध्याय » 8; वर्ग » 12; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (2)
विषयः
अथ लोकलोकान्तरविषयकं परमात्ममहत्त्वं कथ्यते।
पदार्थः
(इन्द्र) हे परमात्मन् ! (यः) यः सत्वरजस्तमसां समवायः (समीची) संगतौ (इमे, मही, रोदसी) इमौ महान्तौ द्युलोकपृथिवीलोकौ (समजग्रभीत्) अवस्तम्भितवान् (तम्) तं समवायम् (तमोभिः) तमःप्रधानेन (गुहः) गूढं करोषि ॥१७॥
विषयः
विघ्नविशाय पुनरपि परमात्मा प्रार्थ्यते ।
पदार्थः
हे इन्द्र ! यः=खलु वृत्रादिर्विघ्नः । इमे=प्रत्यक्षतो दृश्यमाने । मही=मह्यौ=महत्यौ=अतिविस्तीर्णे । समीची=समीच्यौ=परस्परं संगते । रोदसी=द्यावापृथिव्यौ । समजग्रभीत्=समीचीनतया गृहीतवानस्ति । तं विघ्नम् । तमोभिः=अन्धकारैः । गुहः=संवृतं निबद्धं कुरु=विनाशयेत्यर्थः ॥१७ ॥
हिन्दी (4)
विषय
अब लोकलोकान्तरविषयक परमात्मा का महत्त्व वर्णन करते हैं।
पदार्थ
(इन्द्र) हे परमात्मन् ! (यः) जो सत्व-रज-तम का समूह (समीची) परस्पर संबद्ध (इमे, मही, रोदसी) इस महान् पृथिवी और द्युलोक को (समजग्रभीत्) रोके हुए है, उसको (तम्) आप प्रलयावस्था में (तमोभिः) तमःप्रधान प्रकृति से (गुहः) गूढ रखते हैं ॥१७॥
भावार्थ
इस मन्त्र में परमात्मा का महत्त्व वर्णन किया गया है कि हे परमात्मन् ! सत्त्व, रज तथा तम का समूह जो प्रकृति, उसका कार्य्य जो यह पृथिवी और द्युलोक तथा अन्य लोक-लोकान्तरों को आप अपनी बन्धनरूप शक्ति से परस्पर एक दूसरे को थामे हुए हैं, जिससे आपकी अचिन्त्यशक्ति का बोध होता है। फिर इन सबको प्रलयकाल में सूक्ष्मांशों से गूढ़ रखते हैं अर्थात् ये सब ब्रह्माण्डादि कार्य्यजात सूक्ष्मावस्था में आप ही के आश्रित रहते हैं, यह आपकी महान् महिमा है ॥१७॥
विषय
विघ्नविनाशार्थ पुनः परमात्मा की प्रार्थना करते हैं ।
पदार्थ
(यः) जो अवर्षण, अतिवर्षण, दुर्भिक्ष आदि नाना विघ्न (इमे) इन (मही) महान् विस्तीर्ण और (समीची) परस्पर संमिलित (रोदसी) द्यावापृथिवी को अर्थात् सम्पूर्ण भुवन को (समजग्रभीत्) दृढ़ता से पकड़े हुए विद्यमान है (तम्) उस नाना विघ्न को (इन्द्र) हे परमदेव ! (तमोभिः) अन्धकारों से (गुहः) छिपा दो अर्थात् सदा के लिये उन विघ्नों को अन्धकार में छिपा दो ॥१७ ॥
भावार्थ
हे मनुष्यों ! संसार में नाना विघ्नों और विविध दुःखों को देखकर भी उनके निवारण के लिये सर्व क्लेशहर ईश्वर का आश्रय क्यों न लेते ॥१७ ॥
विषय
तम दूर करने की सूर्यवत् प्रभु से प्रार्थना ।
भावार्थ
( यः ) जो ( इमे ) इन ( मही ) बड़ी ( रोदसी ) आकाश भूमि (समीची) परस्पर अच्छी प्रकार मिली, दोनों स्त्री पुरुषों की श्रेणियों को भी मेघ वा रात्रि कालवत् ( तमोभिः ) अज्ञान-अन्धकारों से ( सम् अजग्रभीत् ) अच्छी प्रकार ग्रस लेता है, हे ( इन्द्र ) सूर्यवत् प्रकाशस्वरूप प्रभो ! तू ( तं गुहः ) उस अज्ञान, अविद्यामय दुखान्धकार को लुप्त कर, ज्ञान प्रकाश देकर सुखी कर ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वत्सः काण्व ऋषिः ॥ १—४५ इन्द्रः। ४६—४८ तिरिन्दिरस्य पारशव्यस्य दानस्तुतिर्देवताः॥ छन्दः—१—१३, १५—१७, १९, २५—२७, २९, ३०, ३२, ३५, ३८, ४२ गायत्री। १४, १८, २३, ३३, ३४, ३६, ३७, ३९—४१, ४३, ४५, ४८ निचृद् गायत्री। २० आर्ची स्वराड् गायत्री। २४, ४७ पादनिचृद् गायत्री। २१, २२, २८, ३१, ४४, ४६ आर्षी विराड् गायत्री ॥
विषय
मही समीची रोदसी
पदार्थ
[१] (यः) = जो (इमे) = इन मही महत्त्वपूर्ण (समीची) = सम्यक् व सम्मिलित गतिवाले (रोदसी) = (द्यावा) = पृथिवी को, मस्तिष्क व शरीर को (समजग्रभीत्) = ग्रहण करता है। हे (इन्द्र) = शत्रुओं को विनष्ट करनेवाले प्रभो ! (तम्) = उस पालक को आप (तमोभिः) = [तमोभ्यः] अन्धकारों से (गुहः) = बचाते हैं, छिपाकर रखते हैं। अन्धकार उसपर आक्रमण नहीं कर पाते।
भावार्थ
भावार्थ- हम मस्तिष्क व शरीर दोनों को मिलाकर चलें। प्रभु हमें अन्धकारों से बचायेंगे ।
इंग्लिश (1)
Meaning
That nature, Prakrti, which comprehends these great heavens and earths together, that same you cover and hide in deep darkness when this universe is withdrawn into zero during Pralaya, annihilation.
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात परमेश्वराचे महत्त्व सांगितलेले आहे. हे परमेश्वरा, सत्त्व, रज, तमाचा समूह जी प्रकृती आहे त्याचे कार्य पृथ्वी व द्युलोक तसेच इतर लोकलोकान्तरांना तू आपल्या बंधनरूपी शक्तीने परस्पर एक दुसऱ्यांना आकर्षित केलेले आहेस. ज्याद्वारे तुझ्या अचिन्त्यशक्तीचा बोध होतो. पुन्हा या सर्वांना प्रलयकाळी सूक्ष्मांशाने गूढ ठेवतोस अर्थात हे सर्व ब्रह्मांड इत्यादी कार्यजगत सूक्ष्मावस्थेत तुझ्याच आश्रित असतात हा तुझा महान महिमा आहे. ॥१७॥
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