ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 6/ मन्त्र 15
न द्याव॒ इन्द्र॒मोज॑सा॒ नान्तरि॑क्षाणि व॒ज्रिण॑म् । न वि॑व्यचन्त॒ भूम॑यः ॥
स्वर सहित पद पाठन । द्यावः॑ । इन्द्र॑म् । ओज॑सा । न । अ॒न्तरि॑क्षाणि । व॒ज्रिण॑म् । न । वि॒व्य॒च॒न्त॒ । भूम॑यः ॥
स्वर रहित मन्त्र
न द्याव इन्द्रमोजसा नान्तरिक्षाणि वज्रिणम् । न विव्यचन्त भूमयः ॥
स्वर रहित पद पाठन । द्यावः । इन्द्रम् । ओजसा । न । अन्तरिक्षाणि । वज्रिणम् । न । विव्यचन्त । भूमयः ॥ ८.६.१५
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 6; मन्त्र » 15
अष्टक » 5; अध्याय » 8; वर्ग » 11; मन्त्र » 5
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अष्टक » 5; अध्याय » 8; वर्ग » 11; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (2)
पदार्थः
(वज्रिणम्, इन्द्रम्) वज्रशक्तिमन्तं परमात्मानम् (ओजसा) पराक्रमेण (न, द्यावः) द्युलोकाः न (अन्तरिक्षाणि, न) अन्तरिक्षलोकान् (न, भूमयः) भूलोका न (विव्यचन्त) व्याप्नुवन्ति ॥१५॥
विषयः
ईशस्य महान् महिमा प्रदर्श्यते ।
पदार्थः
यथा । द्यावः=द्युलोकाः सूर्य्यचन्द्रग्रहादिस्थानानि । यद्वा । अस्मात्सूर्य्यादपि उपरितनलोका द्यौशब्देन व्यवह्रियन्ते । ता द्यावः । वज्रिणम्=महादण्डधारिणम् । इन्द्रम्=परमदेवम् । न=कदापि । ओजसा=बलेन । विव्यचन्त=वशीकर्तुं शक्नुवन्ति । तथा । अन्तरिक्षाणि=अन्तर्मध्ये द्यावापृथिव्योर्मध्ये यानि स्थानानि ईक्ष्यन्ते अवलोक्यन्ते तानि अन्तरिक्षाणि । तं वशीकर्त्तुं न शक्नुवन्ति । तथा । भूमयः=एतद् भूमिसमाना अनन्ता अपि भूमयः । न तं विव्यचन्त=व्याप्नुवन्ति ॥१५ ॥
हिन्दी (4)
पदार्थ
(वज्रिणम्, इन्द्रम्) उस वज्रशक्तिवाले परमात्मा को (ओजसा) पराक्रम से (न, द्यावः) न द्युलोक (न, अन्तरिक्षाणि) न अन्तरिक्षलोक (न, भूमयः) न भूलोक (विव्यचन्त) अतिक्रमण कर सकते हैं ॥१५॥
भावार्थ
उस वज्रशक्तिसम्पन्न परमात्मा को कोई भी अतिक्रमण नहीं कर सकता और न उसको कोई विचलित कर सकता है। वह सब राजाओं का महाराजा, सब दिव्यशक्तियों का चालक, सब लोक-लोकान्तरों का ईशिता, सबको प्राणनशक्ति देनेवाला और सम्पूर्ण धन-धान्य तथा ऐश्वर्य्यों का स्वामी है, उसकी आज्ञा का पालन करना ही जीवन और उससे विमुख होना मृत्यु है ॥१५॥
विषय
ईश्वर की महान् महिमा दिखलाई जाती है ।
पदार्थ
(द्यावः) द्युलोक अर्थात् जिस स्थान में सूर्य्य, ग्रह आदि रहते हैं, वे लोक (ओजसा) अपने बल से (इन्द्रम्) परमदेवता को (न+विव्यचन्त) वश में नहीं कर सकते अर्थात् इन्द्र द्युलोक से भी अधिक ओजस्वी है । इसी प्रकार (अन्तरिक्षाणि) अन्तरिक्ष=आकाश लोक भी (वज्रिणम्) उस दण्डधर परमात्मा को (न) अपने वश में नहीं कर सकते तथा (भूमयः+न) एतद् भूमि सदृश अनन्त भूमियाँ भी इसको बल से व्याप्त नहीं कर सकती हैं ॥१५ ॥
भावार्थ
जो इन्द्र जिस द्युलोक, अन्तरिक्ष और भूमि को उत्पन्न करता और पालता है, वे उसको अपने वश में कैसे कर सकते हैं । वह सबसे अधिक बलिष्ठ और ओजस्वितम है ॥१५ ॥
विषय
अपरिमेय सब से बड़ा प्रभु ।
भावार्थ
( इन्द्रम् ) ऐश्वर्यवान् ( वज्रिणम् ) सर्व शक्तिमान् प्रभु से ( न द्यावः ) न प्रकाशमान् सूर्य तारे, ( न अन्तरिक्षाणि ) न अन्तरिक्षगत वायु आदि और ( न भूमयः ) न भूमिस्थ जल, जन्तु आदि ही ( ओजसा ) बल पराक्रम से (वि व्यचन्त) अधिक हैं । अथवा (न द्यावः न अन्तरिक्षाणि न भूमयः इन्द्रं विव्यचन्त) न सब सूर्य, न सब आकाश, न सब अन्तरिक्ष और न सब भूमियां ही उस महान् अनन्त परमेश्वर को व्याप सकते हैं । इत्येकादशो वर्गः ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वत्सः काण्व ऋषिः ॥ १—४५ इन्द्रः। ४६—४८ तिरिन्दिरस्य पारशव्यस्य दानस्तुतिर्देवताः॥ छन्दः—१—१३, १५—१७, १९, २५—२७, २९, ३०, ३२, ३५, ३८, ४२ गायत्री। १४, १८, २३, ३३, ३४, ३६, ३७, ३९—४१, ४३, ४५, ४८ निचृद् गायत्री। २० आर्ची स्वराड् गायत्री। २४, ४७ पादनिचृद् गायत्री। २१, २२, २८, ३१, ४४, ४६ आर्षी विराड् गायत्री ॥
विषय
पादोऽस्य विश्वा भूतानि
पदार्थ
[१] (इन्द्रम्) = उस परमैश्वर्यशाली प्रभु को (द्यावः) = ये द्युलोक (ओजसा) = अपनी ओजस्विता से (न विव्यचन्त) = [व्यच समवाये] घेर नहीं पाते। (वज्रिणम्) = उस वज्रहस्त प्रभु को (न अन्तरिक्षाणि) = ना ही अन्तरिक्षलोक [विव्यचन्त = ] घेर पाते हैं। प्रभु इन द्युलोक व अन्तरिक्ष लोकों से बहुत बड़े हैं, ये तो प्रभु के एक देश में स्थित हैं । [२] (भूमयः) = ये पृथिवीलोक भी (न विव्यचन्त) = उस प्रभु को नहीं घेर सकते।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु त्रिलोकी से बहुत विशाल हैं ये तीनों लोक प्रभु के एकदेश में स्थित हैं।
इंग्लिश (1)
Meaning
Neither heavens nor the middle regions nor earths with all their lustre and power can violate, comprehend or even contain Indra, lord of the thunderbolt of omnipotence, justice and punishment.
मराठी (1)
भावार्थ
त्या वज्रशक्तिसंपन्न परमेश्वरावर कोणीही अतिक्रमण करू शकत नाही किंवा त्याला कोणी विचलित करू शकत नाही. तो सर्व राजांचा महाराजा, सर्व दिव्य शक्तींचा चालक, सर्व लोकलोकान्तराचा ईशिता, सर्वांना प्राणशक्ती देणारा व संपूर्ण धनधान्य व ऐश्वर्यांचा स्वामी आहे. त्याच्या आज्ञेचे पालन करणेच जीवन व त्याच्यापासून विमुख होणे मृत्यू होय. ॥१५॥
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