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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 6 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 6/ मन्त्र 12
    ऋषिः - वत्सः काण्वः देवता - इन्द्र: छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    ये त्वामि॑न्द्र॒ न तु॑ष्टु॒वुॠष॑यो॒ ये च॑ तुष्टु॒वुः । ममेद्व॑र्धस्व॒ सुष्टु॑तः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ये । त्वाम् । इ॒न्द्र॒ । न । तु॒स्तु॒वुः । ऋष॑यः । ये । च॒ । तु॒स्तु॒वुः । मम॑ । इत् । व॒र्ध॒स्व॒ । सुऽस्तु॑तः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ये त्वामिन्द्र न तुष्टुवुॠषयो ये च तुष्टुवुः । ममेद्वर्धस्व सुष्टुतः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ये । त्वाम् । इन्द्र । न । तुस्तुवुः । ऋषयः । ये । च । तुस्तुवुः । मम । इत् । वर्धस्व । सुऽस्तुतः ॥ ८.६.१२

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 6; मन्त्र » 12
    अष्टक » 5; अध्याय » 8; वर्ग » 11; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (2)

    पदार्थः

    (इन्द्र) हे परमात्मन् ! (ये, ऋषयः) ये सूक्ष्मदर्शिनः (त्वां) भवन्तं (न, तुष्टुवुः) न स्तुवन्ति ये च ऋषयः (तुष्टुवुः) स्तुवन्ति (सुष्टुतः) सम्यक्स्तुतः सन् (मम, इत्, वर्धस्व) मदीय एव वृद्धो भव ॥१२॥

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    विषयः

    पुनरिन्द्रः प्रार्थ्यते ।

    पदार्थः

    हे इन्द्र ! ये=नास्तिकाः । त्वाम् । न तुष्टुवुः=स्तोत्रैर्न प्रसादयामासुः । ये च । ऋषयस्तत्त्वदर्शिनो जनाः । त्वाम् । तुष्टुवुः=स्तोत्रमकुर्वन् । तेषां सर्वेषां मध्ये । ममेत्=ममैव स्तोत्रेण । सुष्टुतः=शोभनं स्तुतः सन् । वर्धस्व=वर्धय सर्वानिति शेषः ॥१२ ॥

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    हिन्दी (4)

    पदार्थ

    (इन्द्रः) हे परमात्मन् ! (ये, ऋषयः) जो हममें से सूक्ष्मदर्शी महर्षि (त्वां, न तुष्टुवुः) आपकी स्तुति नहीं करते (च) और (ये, तुष्टुवुः) जो करते हैं, दोनों प्रकार से (सुष्टुतः) सम्यक् स्तुति किये गये आप (मम, इत्, वर्धस्व) हममें वृद्धि को प्राप्त हों ॥१२॥

    भावार्थ

    हे परमात्मदेव ! हममें से जो महर्षि आपकी उपासना में सदैव तत्पर रहते और जो नहीं करते हैं, उन दोनों को समान फल प्राप्त कराएँ, क्योंकि वे दोनों ही तप, अनुष्ठान और सम्यक् स्तुतियों से अधिकार प्राप्त कर चुके हैं ॥१२॥

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    विषय

    फिर इन्द्र की प्रार्थना की जाती है ।

    पदार्थ

    (इन्द्र) हे इन्द्र ! (ये) जिन नास्तिक आदि जनों ने (त्वाम्) तुझको (न+तुष्टुवुः) स्तोत्रों से प्रसन्न न किया (ये+च) और जिन (ऋषयः) तत्त्वदर्शीगण ने तेरी (तुष्टुवुः) स्तुति की है, उन दोनों प्रकार के मनुष्यों के मध्य (मम+इत्) मेरे ही स्तोत्रों से (सुष्टुतः) अच्छे प्रकार स्तुति पाकर (वर्धस्व) सबको बढ़ाओ । हे भगवन् ! अज्ञानी जन आपकी स्तुति नहीं करते, ज्ञानी पुरुष आपके गुणों का गान सदा करते ही रहते हैं । हे भगवन् ! मैं भी आपकी स्तुति करता हूँ । सबका अपराध क्षमा करके सबके कल्याण की वृद्धि कीजिये ॥१२ ॥

    भावार्थ

    आस्तिक और नास्तिक दोनों प्रकार के लोग सदा से चले आते हैं । जो जन श्रद्धालु और विश्वासी हैं, वे अन्तःकरण को ईश्वर में लगाकर शान्तचित्त से ऐसी प्रार्थना करें कि उससे परमात्मा प्रसन्न होकर जगत् का अभ्युदय करे ॥१२ ॥

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    विषय

    गुरुवत् प्रभु ।

    भावार्थ

    हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन्, अज्ञान नाशक प्रभो ! विद्वान् आचार्य (ये) जो यथार्थ ज्ञान के द्रष्टा न होकर ( त्वाम् न तुष्टुवुः ) तेरी स्तुति नहीं कर सकते हैं ( च ) और ( ये च ऋषयः तुष्टुवुः ) जो ज्ञानदृष्टा होकर स्तुति करते हैं उनसे तू ( सु-स्तुतः ) उत्तम रीति से वर्णित और स्तुतियुक्त होकर ( मम इत् ) मुझे अवश्य ( वर्धस्व ) बढ़ा, ज्ञान से पूर्ण कर। ज्ञानदाता गुरुजन और ग्रहीता शिष्य जन दोनों ज्ञानदर्शी होने से ऋषि हैं। उनमें एक उपदेश करते हैं दूसरे श्रवण करते हैं। उनमें मैं चाहे शिष्यों में होऊं वा गुरुजनों में तू उत्तम रीति से स्तुतिपात्र होकर मेरे ज्ञान की सदा वृद्धि कर ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वत्सः काण्व ऋषिः ॥ १—४५ इन्द्रः। ४६—४८ तिरिन्दिरस्य पारशव्यस्य दानस्तुतिर्देवताः॥ छन्दः—१—१३, १५—१७, १९, २५—२७, २९, ३०, ३२, ३५, ३८, ४२ गायत्री। १४, १८, २३, ३३, ३४, ३६, ३७, ३९—४१, ४३, ४५, ४८ निचृद् गायत्री। २० आर्ची स्वराड् गायत्री। २४, ४७ पादनिचृद् गायत्री। २१, २२, २८, ३१, ४४, ४६ आर्षी विराड् गायत्री ॥

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    विषय

    वर्धस्व सुष्टुतः

    पदार्थ

    [१] हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो ! ऐसे भी लोग हैं (ये) = जो (त्वाम्) = आपको (न तुष्टुवु) = स्तुत नहीं करते। प्रकृति के भोगों में फँसे हुए, उन्हीं के जुटाने में यत्नशील वे संसार को ईश्वररहित नहीं कहते हैं। आपकी सत्ता से ही इनकार करते हैं। (च) = और इनके विपरीत वे (ऋषयः) = तत्त्वद्रष्टा पुरुष भी हैं (ये) = जो आपका (तुष्टुवुः) = स्तवन करते हैं, सब कार्यों को आपसे ही होता हुआ जानते हैं। [२] इस प्रकार द्विविध लोगों को देखता हुआ मैं तो आपका स्तवन करनेवाला ही बनूँ। (मम) = मेरे तो (इत्) = निश्चय से (सुष्टुतः) = उत्तमता से स्तुत हुए हुए आप (वर्धस्व)=- [वर्धयस्व] वृद्धि का कारण बनें। मैं आपका स्तवन करता हुआ आप जैसा बनने का यत्न करूँ और इस प्रकार वृद्धि को प्राप्त होऊँ।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्राकृतिक भोगों में फँसे हुए लोग ईश्वर का स्मरण नहीं करते। तत्त्वद्रष्टा ऋषि प्रभु की स्तुति करते हैं। मैं प्रभु स्तवन करता हुआ वृद्धि को प्राप्त करूँ।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    There are men who do not adore you, and there are sages who adore you, (both ways you are acknowledged and adored by praise or protest). O lord thus adored by me and pleased, pray accept my adoration and let us rise.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे परमात्मदेव आमच्यापैकी जे महर्षी तुझ्या उपासनेत तत्पर असतात व सूक्ष्मदर्शी उपासना करत नाहीत त्या दोघांना समान फल दे. कारण त्या दोघांनी तप, अनुष्ठान व सम्यक स्तुतीने अधिकार प्राप्त केलेले आहेत. ॥१२॥

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