ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 6/ मन्त्र 6
वि चि॑द्वृ॒त्रस्य॒ दोध॑तो॒ वज्रे॑ण श॒तप॑र्वणा । शिरो॑ बिभेद वृ॒ष्णिना॑ ॥
स्वर सहित पद पाठवि । चि॒त् । वृ॒त्रस्य॑ । दोध॑तः । वज्रे॑ण । श॒तऽप॑र्वणा । शिरः॑ । बि॒भे॒द॒ । वृ॒ष्णिना॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
वि चिद्वृत्रस्य दोधतो वज्रेण शतपर्वणा । शिरो बिभेद वृष्णिना ॥
स्वर रहित पद पाठवि । चित् । वृत्रस्य । दोधतः । वज्रेण । शतऽपर्वणा । शिरः । बिभेद । वृष्णिना ॥ ८.६.६
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 6; मन्त्र » 6
अष्टक » 5; अध्याय » 8; वर्ग » 10; मन्त्र » 1
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अष्टक » 5; अध्याय » 8; वर्ग » 10; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (2)
विषयः
अथ परमात्मनोऽज्ञाननिवारकत्वं कथ्यते।
पदार्थः
य इन्द्रः परमात्मा (दोधतः, वृत्रस्य, चित्) जगत्कम्पयतः अज्ञानस्यापि (शतपर्वणा) अनेककोटिमता (वृष्णिना) बलिना (वज्रेण) स्वशक्त्या (शिरः, बिभेद) मूर्धानं चिच्छेद ॥६॥
विषयः
पुनः स एव स्तूयते ।
पदार्थः
प्रकारान्तरेणास्य महिमा प्रस्तूयते । ईश्वरः सर्वान् विघ्नान् विनाशयतीति शिक्षते । चिच्छब्दोऽप्यर्थे । वृत्रस्य चित्=वृत्रस्यापि अवरोधकस्यापि । दोधतः=स्वकृत्या स्वव्यापारैश्चात्यन्तं कम्पयतो दुष्टस्य विघ्नस्य । शिरो मूर्धानम् । शतपर्वणा=शतं शतसंख्याकानि अनेकानि पर्वाणि धारा यस्य तादृशेन । वृष्णिना=वीर्य्यवता । वज्रेण=ज्ञानात्मना । वि । बिभेद=विभिन्नवान् ॥६ ॥
हिन्दी (4)
विषय
अब परमात्मा को अज्ञान का निवारक कथन करते हैं।
पदार्थ
परमात्मा (दोधतः, वृत्रस्य, चित्) संसार को कँपाते हुए आवरक अज्ञान के (शिरः) शिर को (शतपर्वणा) सैकड़ों कोटिवाली (वृष्णिना) बलवान् (वज्रेण) अपनी शक्ति से (बिभेद) छिन्न-भिन्न करता है ॥६॥
भावार्थ
वह परमपिता परमात्मा अज्ञान का नाशक और ज्ञान का प्रसारक है अर्थात् वह सर्वरक्षक परमात्मा विद्यारूप शक्ति से अविद्यारूप अज्ञान का नाश करके पुरुषों को सुखप्रद होता है, इसलिये उचित है कि सुख की कामनावाला पुरुष निरन्तर विद्या में रत रहे, ताकि विद्यावृद्धि द्वारा ज्ञान का प्रकाश होकर अज्ञान का नाश हो ॥६॥
विषय
पुनः वही स्तुत होता है ।
पदार्थ
अन्य प्रकार से इसकी महिमा प्रस्तुत होती है । ईश्वर सर्वविघ्नों का विनाश करता है, यह शिक्षा इससे देते हैं, यथा−(वृत्रस्य१+चित्) अवरोधक उपद्रवकारी (दोधतः) स्व आकृति से और स्वव्यापारों से कँपानेवाले भयङ्कर चौरादि दुष्टों का भी (शिरः) शिर को वह (शतपर्वणा) अनेक धारायुक्त (वृष्णिना) बलवान् (वज्रेण२) ज्ञानरूप वज्र से (वि+बिभेद) काट देता है ॥६ ॥
भावार्थ
हे मनुष्यों ! यदि आप इन्द्र की सुमति आज्ञा में रहेंगे, तब आपके सर्व विघ्नों का वह विनाश कर देगा, अतः उसकी आज्ञा का पालन करते हुए उसकी सेवा करो ॥६ ॥
टिप्पणी
१−वृत्र=अवरोधक, अन्धकार, अज्ञान, पर्वत मेघ और समुद्र आदिकों का नाम वृत्र है । यहाँ इस ऋचा से परमात्मा की महती शक्ति दिखलाई जाती है । हम मनुष्यों के अनेक अवरोधक हैं । हिमालय लाँघकर पार होना कठिन है, क्योंकि हिम के शैत्य को मनुष्य नहीं सह सकता, समुद्र पार करना दुष्कर है । यद्यपि नाना साधन द्वारा इन हिमालय आदिकों को पार कर भी सकते हैं, तथापि पृथिवी पर से अन्यान्य नक्षत्रादिलोक अथवा चन्द्रलोक गमन करना अतिशय कठिन है । अभी तक कोई साधन इसके लिये नहीं आविष्कृत हुए हैं । यह जगत् कहाँ तक विस्तीर्ण है, इसका पता जीव नहीं लगा सकते । हम यहाँ से दरभंगा के प्राणियों को नहीं देख सकते । विविध सूर्य्यों की दशाओं का पता नहीं लगा सकते । अन्य पुरुष का अन्तःकरण कैसा है, नहीं जान सकते । कल क्या होगा, यह हम मनुष्यों से गुप्त है । इत्यादि शतशः बाधाएँ हम प्राणियों के मध्य विद्यमान हैं, किन्तु ईश्वर के निकट कोई बाधा नहीं । एकान्त में हम दो मनुष्य जो बातें करेंगे, परमात्मा उसे जान लेगा । यदि हम किसी को मारने के लिये मन में ही विचार करते हैं, तो वह भी उससे गुप्त न होगा । अनन्त जीवों के कर्त्तव्य सदा उसे विदित होते रहते हैं । यदि कोई बुद्धिमान् इस सृष्टि की रचना पर ही ध्यान देवे, तो महामहाऽऽश्चर्य प्रतीत होगा और अन्त न मिलेगा, इस कारण कहा गया है कि उसके निकट वृत्र कुछ नहीं कर सकता । वृत्रासुर और इन्द्र के सम्बन्ध में जो नाना उपाख्यान संस्कृत साहित्य में दृष्टिगोचर होते हैं, उसका कारण वेद के अर्थ का सत्यरूप से भान न होना है । इसी प्रकार नमुचि, शम्बर, धुनि, चुमुरि, बल आदि की आख्यायिका का विचार है ॥ २−वज्र−इन्द्र के साथ सदा वज्र का निरूपण आता है । यहाँ इतना जानना चाहिये कि जो शासक होता है, वह अवश्य दण्डविधायक होगा । विना दण्ड से शासन का कार्य सिद्ध नहीं होता । इसमें सन्देह नहीं कि परमात्मा महान् शासक है, उसके लिये भी कोई दण्ड होना चाहिये । मानो, मेघ से जो वज्र पतित होता है, वही उसका दण्ड है, किन्तु परमात्मा का कोई अन्य दण्ड नहीं । उसका न्याय, जो सर्वत्र सब जीवों पर प्रकटित है, वही मानो उसका दण्ड है । इति संक्षेपतः ॥६ ॥
विषय
सूर्य, वायु, विद्युत्वत् राजा के कर्त्तव्य
भावार्थ
जिस प्रकार सूर्य, विद्युत् वा वायु ( वृत्रस्य शिरः ) मेघ के ऊपर के भाग को ( वृष्णिना वज्रेण ) वृष्टिकारी विद्युत् प्रहार से ( वि बिभेद ) छिन्न भिन्न करता है उसी प्रकार वह ऐश्वर्यवान् राजा ( वृत्रस्य ) बढ़ते शत्रु के ( शिरः ) प्रमुख सैन्य को ( वृष्णिना ) बलवान्, शस्त्रादि वर्षक ( वज्रेण ) शत्रुनिवारक ( शतपर्वणा ) सैकड़ों खंड वाले वा अनेक पालन साधनों से युक्त ( वज्रेण ) सैन्य बल से ( दोधतः वृत्रस्य ) हृदय में भय, कंपकंपी पैदा करने वाले त्रासकारी शत्रुगण के ( शिरः वि बिभेद ) शिर या प्रमुख अंग को छिन्न भिन्न करे । ( २ ) उसी प्रकार गुरु, प्रभु शान्ति वर्षक (शतपर्वणा) सौ पर्व, अध्याय अनुवाकादि विच्छेदों से युक्त ज्ञानमय वेद से अज्ञानकारी वृत्र का नाश करता है ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वत्सः काण्व ऋषिः ॥ १—४५ इन्द्रः। ४६—४८ तिरिन्दिरस्य पारशव्यस्य दानस्तुतिर्देवताः॥ छन्दः—१—१३, १५—१७, १९, २५—२७, २९, ३०, ३२, ३५, ३८, ४२ गायत्री। १४, १८, २३, ३३, ३४, ३६, ३७, ३९—४१, ४३, ४५, ४८ निचृद् गायत्री। २० आर्ची स्वराड् गायत्री। २४, ४७ पादनिचृद् गायत्री। २१, २२, २८, ३१, ४४, ४६ आर्षी विराड् गायत्री ॥
विषय
'शतपर्व - वृष्णी' वज्र
पदार्थ
[१] गत मन्त्र में वर्णित इन्द्रजितेन्द्रिय पुरुष (दोधत:) = [दुध] हमारा विनाश करनेवाली (वृत्रस्य) = ज्ञान की आवरणभूत वासना के (शिरः) = सिर का (चित्) = निश्चय से (वज्रेण) = क्रियाशीलतारूप वज्र के द्वारा (विबिभेद) = विदारण कर देता है। क्रियाशीलता हमारे पर वासना के आक्रमण को नहीं होने देती। [२] यह क्रियाशीलतारूप वज्र (वृष्णिना) = बड़ा प्रबल है, हमारे में शक्ति का सेचन करनेवाला है। तथा (शतपर्वणाः) = शतवर्षपर्यन्त हमारा पूरण करनेवाला है। क्रियाशीलता से शक्ति बनी रहती है और सौ वर्ष का पूर्ण जीवन प्राप्त होता है।
भावार्थ
भावार्थ - एक जितेन्द्रिय पुरुष क्रियाशील बना रहकर वासना का विनाश करनेवाला बनता है। इससे वह शक्ति सम्पन्न व शतवर्षपर्यन्त जीनेवाला होता है।
इंग्लिश (1)
Meaning
And when the lord of might and munificence with his thunderbolt of a hundred potentials shatters the head of Vrtra, terror striking demon of darkness, drought and despair, the bolt is nothing but the blazing omnipotence of the lord.
मराठी (1)
भावार्थ
परमात्मा अज्ञानाचा नाशक व ज्ञानाचा प्रसारक आहे. अर्थात् तो सर्वरक्षक परमात्मा विद्यारूपी शक्तीने अविद्यारूपी अज्ञानाचा नाश करून माणसांना सुख देणारा असतो. त्यासाठी सुखाची कामना करणाऱ्या माणसाने निरंतर विद्येत रत असावे. त्यामुळे विद्यावृद्धीद्वारे ज्ञानाचा प्रकाश होऊन अज्ञानाचा नाश व्हावा. ॥६॥
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