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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 6 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 6/ मन्त्र 45
    ऋषिः - वत्सः काण्वः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः

    अ॒र्वाञ्चं॑ त्वा पुरुष्टुत प्रि॒यमे॑धस्तुता॒ हरी॑ । सो॒म॒पेया॑य वक्षतः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒र्वाञ्च॑म् । त्वा॒ । पु॒रु॒ऽस्तु॒त॒ । प्रि॒यमे॑धऽस्तुता । हरी॑ । सो॒म॒ऽपेया॑य । वक्षतः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अर्वाञ्चं त्वा पुरुष्टुत प्रियमेधस्तुता हरी । सोमपेयाय वक्षतः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अर्वाञ्चम् । त्वा । पुरुऽस्तुत । प्रियमेधऽस्तुता । हरी । सोमऽपेयाय । वक्षतः ॥ ८.६.४५

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 6; मन्त्र » 45
    अष्टक » 5; अध्याय » 8; वर्ग » 17; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (2)

    पदार्थः

    (पुरुष्टुत) हे बहुस्तुत ! (प्रियमेधस्तुता, हरी) विद्वद्भिः प्रशंसनीये हरणशीलशक्ती (सोमपेयाय) सौम्यस्वभावानुभवाय (त्वा) त्वाम् (अर्वाञ्चम्) ममाभिमुखम् (वक्षतः) वहताम् ॥४५॥

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    विषयः

    इन्द्रः स्तूयते ।

    पदार्थः

    हे पुरुष्टुत=पुरुभिर्बहुभिः सर्वैर्विद्वद्भिः स्तुत ! त्वा=त्वाम् । प्रियमेधस्तुता=प्रियमेधस्तुतौ=प्रिया रुचिकराः, मेधा यज्ञाः शुभकर्माणि येषां ते प्रियमेधा=यज्ञकर्मनिरताः । तैः । स्तुतौ=गीतगुणौ । हरी=स्थावरजङ्गमात्मरूपौ संसारौ । सोमपेयाय=सोमानां पदार्थानामनुग्रहाय । अर्वाञ्चमस्मदभिमुखम् । वक्षतः=वहतामानयताम् ॥४५ ॥

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    हिन्दी (4)

    पदार्थ

    (पुरुष्टुत) हे बहुस्तुत परमात्मन् ! (प्रियमेधस्तुता, हरी) विद्वानों की प्रशंसनीय हरणशील शक्तियें (सोमपेयाय) सौम्यस्वभाव का पान करने के लिये (त्वा) आपको (अर्वाञ्चम्) हमारे अभिमुख (वक्षतः) वहन करें ॥४५॥

    भावार्थ

    हे अनेकानेक विद्वानों द्वारा स्तुत प्रभो ! आप ऐसी कृपा करें कि हम विद्वानों की प्रशंसनीय शक्तियें आपको प्राप्त करानेवाली हों अर्थात् हमारा वेदाभ्यास तथा वैदिक कर्मों का अनुष्ठान हमारे लिये सुखप्रद हो, यह प्रार्थना है ॥४५॥

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    विषय

    इससे इन्द्र की स्तुति की जाती है ।

    पदार्थ

    (पुरुष्टुत) हे बहुगीतगुण परमात्मन् ! (त्वा) तुझको (प्रियमेधस्तुता) शुभकर्मों में निरत ऋष्यादिजनों से सदा प्रशंसित (हरी) स्थावर जङ्गम संसार (सोमपेयाय) पदार्थों के ऊपर कृपादृष्टि करने के लिये (अर्वाञ्चम्) हम लोगों की ओर (वक्षतः) ले आवें ॥४५ ॥

    भावार्थ

    ईशरचित जो स्थावर जङ्गम द्विविध पदार्थ दीखते हैं, वे ही इन्द्र को प्रकाशित कर सकते हैं, वे विद्वान् ईश्वर के महत्त्व को जान शान्ति पाते हैं ॥४५ ॥

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    विषय

    पिता प्रभु । प्रभु और राजा से अनेक स्तुति-प्रार्थनाएं ।

    भावार्थ

    हे ( पुरु-स्तुत ) बहुतों द्वारा स्तुति करने योग्य, बहुतों से प्रार्थित, उपासित ( प्रियमेधस्तुता ) यज्ञ, उपासनादि के प्रेमी पुरुषों द्वारा स्तुत या उपदिष्ट (हरी) ज्ञाननिष्ठ और कर्मनिष्ठ दोनों (सोमपेयाय) ओषधि रसवत् तेरे ऐश्वर्यमय परमानन्द रस का पान करने के लिये (अर्वाञ्चं) अति समीप प्राप्त, साक्षात् ( त्वा वक्षतः ) तुझे ही अपने हृदय में धारण करते हैं । ( २ ) युद्ध-प्रियों से प्रशंसित 'अश्व' अर्थात् राष्ट्र की रक्षार्थ हे राजन् ! ( अर्वाञ्चं त्वा वक्षतः ) घोड़ों से जाने वाले तुझ को रथ में वहन करते हैं ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वत्सः काण्व ऋषिः ॥ १—४५ इन्द्रः। ४६—४८ तिरिन्दिरस्य पारशव्यस्य दानस्तुतिर्देवताः॥ छन्दः—१—१३, १५—१७, १९, २५—२७, २९, ३०, ३२, ३५, ३८, ४२ गायत्री। १४, १८, २३, ३३, ३४, ३६, ३७, ३९—४१, ४३, ४५, ४८ निचृद् गायत्री। २० आर्ची स्वराड् गायत्री। २४, ४७ पादनिचृद् गायत्री। २१, २२, २८, ३१, ४४, ४६ आर्षी विराड् गायत्री ॥

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    विषय

    प्रियमेधस्तुता हरी

    पदार्थ

    [१] हे (पुरुष्टुत) = बहुतों से स्तुत प्रभो ! (हरी) = ये इन्द्रियाश्व (त्वा) = आपको (अर्वाञ्चम्) = अन्दर हृदयदेश में (वक्षतः) = धारण करते हैं। वे इन्द्रियाश्व आपका धारण करते हैं जो (प्रियमेधस्तुता) = यज्ञ व स्तुति के साथ प्रेमवाले हैं। [२] ये इन्द्रियाश्व यज्ञों व स्तवन में प्रवृत्त हुए हुए वासनाओं से बचे रहते हैं। वासनाओं का शिकार न होने से ही ये (सोमपेयाय) = सोम के पान के लिये होते हैं। सोमरक्षण ही जीवन में सब उन्नतियों का मूल बनता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- जब इन्द्रियाँ यज्ञों व स्तवन में प्रवृत्त होती हैं, तो हृदय में प्रभु को धारण करने के कारण वासनाओं के आक्रमण से बची रहती हैं और सोम का पान करनेवाली होती हैं।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    O lord of universal adoration and worship, natural vibrations of divine energy loved and honoured by the devotees of social yajna transport you hither to the heart to accept the sweets of our love and homage.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे अनेकानेक विद्वानांनी स्तुती केलेल्या प्रभो, तू अशी कृपा कर की, आम्हा विद्वानांच्या प्रशंसनीय शक्ती तुला प्राप्त करविणाऱ्या असाव्यात. अर्थात् आमचा वेदाभ्यास व वैदिक कर्मांचे अनुष्ठान आमच्यासाठी सुखप्रद असावे, ही प्रार्थना आहे. ॥४५॥

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