ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 6/ मन्त्र 25
अ॒भि व्र॒जं न त॑त्निषे॒ सूर॑ उपा॒कच॑क्षसम् । यदि॑न्द्र मृ॒ळया॑सि नः ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒भि । व्र॒जम् । न । त॒त्नि॒षे॒ । सूरः॑ । उ॒पा॒कऽच॑क्षसम् । यत् । इ॒न्द्र॒ । मृ॒ळया॑सि । नः॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अभि व्रजं न तत्निषे सूर उपाकचक्षसम् । यदिन्द्र मृळयासि नः ॥
स्वर रहित पद पाठअभि । व्रजम् । न । तत्निषे । सूरः । उपाकऽचक्षसम् । यत् । इन्द्र । मृळयासि । नः ॥ ८.६.२५
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 6; मन्त्र » 25
अष्टक » 5; अध्याय » 8; वर्ग » 13; मन्त्र » 5
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अष्टक » 5; अध्याय » 8; वर्ग » 13; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (2)
पदार्थः
(इन्द्र) हे परमात्मन् ! (यत्) यदा (नः) अस्मान् (मृळयासि) सुखयसि तदा (सूरः) प्राज्ञस्त्वम् (न) सम्प्रत्येव (उपाकचक्षसम्) समीपवर्तिनम् (व्रजम्) देशम् (अभि) सम्यक् (तत्निषे) वर्धयसि ॥२५॥
विषयः
तस्य परमदेवस्यानुग्रहं दर्शयति ।
पदार्थः
हे इन्द्र ! यद्=यदा त्वम् । नोऽस्मान् । मृलयासि=मृडयसि=सुखयसि । अस्मासु प्रसीदसि । न=तदा । सूरः=सर्वधनप्रेरकस्त्वम् । अस्माकं व्रजम् । गोष्ठम्=गवां स्थानम् । उपाकचक्षसम्=परमदर्शनीयं कृत्वा । अभि=अभितः परितः । तत्निषे=विस्तारयसि । बहुभिर्गोभिः पूर्णं करोषीत्यर्थः ॥२५ ॥
हिन्दी (4)
पदार्थ
(इन्द्र) हे परमात्मन् ! (यत्) जब (नः) हमको आप (मृळयासि) सुखी करते हैं, तब (सूरः) प्राज्ञ आप (न) उसी समय (उपाकचक्षसम्) समीपवर्ती (व्रजम्) देश को (अभि) भले प्रकार (तत्निषे) समृद्ध बना देते हैं ॥२५॥
भावार्थ
हे सबके पालक परमेश्वर ! आप हमारे समीपस्थ प्रदेशों को समृद्धशाली तथा उन्नत करें, जिससे हम लोग सुख-सम्पन्न होकर सदा वैदिक कर्मानुष्ठान में प्रवृत्त रहें ॥२५॥
विषय
उस परमदेव का अनुग्रह दिखलाते हैं ।
पदार्थ
(इन्द्र) हे इन्द्र (यद्) जब तू (न+मृलयासि) हम आश्रितजनों के ऊपर प्रसन्न होता है । (न) तब (सूरः) सर्वधनप्रेरक तू (व्रजम्) हमारे गोस्थान को (उपाकचक्षसम्) परम दर्शनीय बनाकर (अभि) सब तरह से (तत्निषे) विस्तार करता है । हे भगवन् ! यह तेरी महती कृपा है ॥२५ ॥
भावार्थ
परमात्मा हमारा पिता है, हमारे सुचरित को देखकर प्रसन्न होता, अभीष्ट फल देता, लोक में यशस्वी बनाता है । अतः हे मनुष्यों ! उसी को प्रसन्न करने के लिये यत्न करो ॥२५ ॥
विषय
पिता प्रभु । प्रभु और राजा से अनेक स्तुति -प्रार्थनाएं ।
भावार्थ
हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवान् प्रभो ! राजन् ! ( यत् ) जो तू ( नः ) हमें ( मृडयासि ) सुखी करता है वह तू ( सूरः ) सूर्य के समान तेजस्वी और प्रकाशस्वरूप होकर ( उपाक-चक्षसम् ) अति समीप अन्तःकरण के भीतर दर्शनीय वा गुरु द्वारा समीप रहकर उपदेश करने योग्य ( व्रजं न ) शरण योग्य वा गमनयोग्य मार्ग के समान ज्ञान मार्ग को ( अभि तत्निषे ), विस्तार करता है। इति त्रयोदशो वर्गः॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वत्सः काण्व ऋषिः ॥ १—४५ इन्द्रः। ४६—४८ तिरिन्दिरस्य पारशव्यस्य दानस्तुतिर्देवताः॥ छन्दः—१—१३, १५—१७, १९, २५—२७, २९, ३०, ३२, ३५, ३८, ४२ गायत्री। १४, १८, २३, ३३, ३४, ३६, ३७, ३९—४१, ४३, ४५, ४८ निचृद् गायत्री। २० आर्ची स्वराड् गायत्री। २४, ४७ पादनिचृद् गायत्री। २१, २२, २८, ३१, ४४, ४६ आर्षी विराड् गायत्री ॥
विषय
ज्ञानदीप्त हृदय
पदार्थ
[१] हे (इन्द्र) = सब शत्रुओं का विद्रावण करनेवाले प्रभो ! (यत्) = जब आप (नः मृडयासि) = हमें सुखी करते हैं, तो (सूर:) = सूर्य के समान देदीप्यमान आप (उपाकचक्षसम्) = अति समीप हृदयदेश में दर्शनीय ज्ञान को (व्रजं न) = एक गृह के समान विश्राम स्थान के समान (अभितत्निषे) = चारों ओर विस्तृत करते हैं । [२] ज्ञान को देकर ही प्रभु हमारा कल्याण करते हैं। ज्ञान सब दोषों को दग्ध करके हमें पवित्र बनाता है और इस प्रकार सब अशुभों के आक्रमण से बचाता है।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु हमारे हृदयों को ज्ञान से दीप्त करके हमें वासनाओं के आक्रमण से बचाते हैं। इस प्रकार प्रभु हमें सुखी करते हैं।
इंग्लिश (1)
Meaning
For when you are kind, O lord of light and power, you switch on the light for us and reveal the target close at hand in sight and you mark the way too by which we must reach our aim and object of love.
मराठी (1)
भावार्थ
हे सर्वांच्या पालक असलेल्या परमेश्वरा, तू आमच्या जवळ असलेल्या प्रदेशांना समृद्ध व उन्नत कर. ज्यामुळे आम्ही सुखसंपन्न बनून सदैव वैदिक कर्मानुष्ठानात प्रवृत्त राहावे. ॥२५॥
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