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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 6 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 6/ मन्त्र 29
    ऋषिः - वत्सः काण्वः देवता - इन्द्र: छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    अत॑: समु॒द्रमु॒द्वत॑श्चिकि॒त्वाँ अव॑ पश्यति । यतो॑ विपा॒न एज॑ति ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अतः॑ । स॒मु॒द्रम् । उ॒त्ऽवतः॑ । चि॒कि॒त्वान् । अव॑ । प॒श्य॒ति॒ । यतः॑ । वि॒पा॒नः । एज॑ति ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अत: समुद्रमुद्वतश्चिकित्वाँ अव पश्यति । यतो विपान एजति ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अतः । समुद्रम् । उत्ऽवतः । चिकित्वान् । अव । पश्यति । यतः । विपानः । एजति ॥ ८.६.२९

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 6; मन्त्र » 29
    अष्टक » 5; अध्याय » 8; वर्ग » 14; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (2)

    पदार्थः

    (यतः, विपानः, एजति) यस्मात् स परमात्मा व्याप्नुवन् चेष्टते (अतः) अस्मात् (चिकित्वान्) सर्वज्ञः सः (उद्वतः) ऊर्ध्वदेशात् (समुद्रम्) अन्तरिक्षम् (अवपश्यति) अधः कृत्वा पश्यति ॥२९॥

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    विषयः

    पुनस्तस्य महिमा प्रदर्श्यते ।

    पदार्थः

    विपानः=विशेषेण पाति रक्षतीति विपानः सर्वपालकः परमात्मा । यतो यस्माद्धेतोः । एजति=सर्वत्रैव तिष्ठति । अतोऽस्मात् । स चिकित्वान्=सर्वं चेतति जानातीति चिकित्वान् सर्वज्ञोऽस्ति । अतएव । सः । सर्वमेव पश्यति=अध ऊर्ध्वं सर्वं पश्यतीति । समुद्रम्=अधःस्थानं वस्तु । यद्वा । समभिद्रवद् अतिसूक्ष्मं परमाण्वादिकम् । उद्वतः=ऊर्ध्वस्थितान् सूर्य्यादींश्च पश्यति । नहि तस्मात् किमपि गुप्तमस्तीत्यर्थः ॥२९ ॥

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    हिन्दी (4)

    पदार्थ

    (यतः, विपानः, एजति) जो कि व्याप्त होता हुआ वह परमात्मा चेष्टा करता है (अतः) अतः वह (चिकित्वान्) सर्वज्ञ परमात्मा (उद्वतः) ऊर्ध्वदेश से (समुद्रम्) अन्तरिक्ष को (अवपश्यति) नीचा करके देखता है ॥२९॥

    भावार्थ

    वह चेतनस्वरूप परमात्मा अपनी व्यापकता से ऊर्ध्व, अन्तरिक्ष तथा अधोभाग में स्थित सबको अपनी चेष्टारूप शक्ति से देखता, सब लोक-लोकान्तरों को नियम में रखता और सबको यथाभाग सब पदार्थों का विभाग करता है ॥२९॥

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    विषय

    पुनः उसकी महिमा दिखलाई जाती है ।

    पदार्थ

    (विपानः) सर्वपालक वह परमात्मा (यतः) जिस कारण (एजति) सर्वत्र विद्यमान है और सर्व में स्थित होकर सबको चला रहा है । (अतः) इस कारण वह (चिकित्वान्) सर्वज्ञ है और (समुद्रम्) आकाश आदि सब सूक्ष्म वस्तुओं को और (उद्वतः) ऊर्ध्वस्थित सूर्य्यादि पदार्थों को (अव+पश्यति) देखता है अर्थात् संभाले हुए स्थित है ॥२९ ॥

    भावार्थ

    हे मनुष्यों ! जो सर्वज्ञ और सर्वप्रेरक है, उसी को गाओ ॥२९ ॥

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    विषय

    पिता प्रभु । प्रभु और राजा से अनेक स्तुति -प्रार्थनाएं ।

    भावार्थ

    ( यतः ) जिस कारण से ( विपानः ) विशेष रूप से पालक वा व्यापक प्रभु ( एजति ) सब को चला रहा है, ( अतः ) इस कारण ही वह प्रभु ( चिकित्वान् ) सर्वज्ञ है और वह सूर्य के समान ( उद्वतः ) ऊपर के लोकों को और ( समुद्रम् ) महा सागरवत् प्रवाह से अनादि अनन्त जगत् सर्ग को भी ( अव पश्यति ) अपने अधीन देखता है ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वत्सः काण्व ऋषिः ॥ १—४५ इन्द्रः। ४६—४८ तिरिन्दिरस्य पारशव्यस्य दानस्तुतिर्देवताः॥ छन्दः—१—१३, १५—१७, १९, २५—२७, २९, ३०, ३२, ३५, ३८, ४२ गायत्री। १४, १८, २३, ३३, ३४, ३६, ३७, ३९—४१, ४३, ४५, ४८ निचृद् गायत्री। २० आर्ची स्वराड् गायत्री। २४, ४७ पादनिचृद् गायत्री। २१, २२, २८, ३१, ४४, ४६ आर्षी विराड् गायत्री ॥

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    विषय

    समुद्रम्-उद्वतः

    पदार्थ

    [१] गत मन्त्र के अनुसार (यतः) = क्योंकि एक युवक ज्ञानी गुरुओं व प्रभु स्तोताओं के सम्पर्क में (विपान:) = विशेषरूप से अपना रक्षण करता हुआ (रजति) = गति करता है अतः इसीलिए (चिकित्वान्) = ज्ञानी बनता है। यह उत्तम संग उसे विषय वासनाओं में फँसने से बचाता है तथा उसकी ज्ञान वृद्धि का कारण बनता है। [२] यह ज्ञान को प्राप्त करता हुआ (समुद्रम्) = [स+मुद्] उस आनन्दमय प्रभु को (अवपश्यति) = अन्दर हृदयदेश में देखता है और (उद्वतः) = इन उत्तम लोकों को देखता है। एक-एक लोक में उसे उस प्रभु की महिमा दिखती है। प्रत्येक लोक का रचना सौन्दर्य उसके हृदय में प्रभु की महिमा को अंकित करनेवाला होता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- ज्ञानियों के सम्पर्क में विषयों से अपने को बचाते हुए चलेंगे तो हम भी ज्ञानी बनेंगे। प्रभु का ज्ञान प्राप्त करेंगे, प्रभु से रचित इन उत्कृष्ट लोकों का ज्ञान प्राप्त करेंगे।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Thence the enlightened devotee rising over the ocean of existence watches how and from where the vibrant omnipresence descends into inner consciousness.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    तो चेतनस्वरूप परमेश्वर आपल्या व्यापकतेने ऊर्ध्व, अंतरिक्ष व अधोभागात स्थित असलेल्या सर्वांना आपल्या शक्तीने पाहतो. सर्व लोकलोकान्तरांना नियमात ठेवतो व सर्व पदार्थांचे यथायोग्य विभाग करतो ॥२९॥

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