ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 6/ मन्त्र 19
इ॒मास्त॑ इन्द्र॒ पृश्न॑यो घृ॒तं दु॑हत आ॒शिर॑म् । ए॒नामृ॒तस्य॑ पि॒प्युषी॑: ॥
स्वर सहित पद पाठइ॒माः । ते॒ । इ॒न्द्र॒ । पृश्न॑यः । घृ॒तम् । दु॒ह॒ते॒ । आ॒ऽशिर॑म् । ए॒नाम् । ऋ॒तस्य॑ । पि॒प्युषीः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
इमास्त इन्द्र पृश्नयो घृतं दुहत आशिरम् । एनामृतस्य पिप्युषी: ॥
स्वर रहित पद पाठइमाः । ते । इन्द्र । पृश्नयः । घृतम् । दुहते । आऽशिरम् । एनाम् । ऋतस्य । पिप्युषीः ॥ ८.६.१९
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 6; मन्त्र » 19
अष्टक » 5; अध्याय » 8; वर्ग » 12; मन्त्र » 4
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अष्टक » 5; अध्याय » 8; वर्ग » 12; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (2)
विषयः
अथ परमात्मनियमेनैव वर्षणमित्युच्यते।
पदार्थः
(इन्द्र) हे परमात्मन् ! (ते) त्वयोत्पादिताः (इमाः, पृश्नयः) सूर्यरश्मयः (एनाम्, आशिरम्, घृतम्) इदमाश्रितं जलम् (दुहते) कर्षन्ति याः (ऋतस्य) यज्ञस्य (पिप्युषीः) वर्द्धयित्र्यः ॥१९॥
विषयः
समस्ता सृष्टिः सुखयित्री वर्तत इत्यनया शिक्षते ।
पदार्थः
हे इन्द्र ! इमाः=परितो दृश्यमानाः । पृश्नयः=नानावर्णाः पदार्था गाव इव । ते=तव कृपया । घृतम्=क्षरणशीलं वस्तु । अपि च । एनाम्=इमम् । आशिरम्=विविधद्रव्यमिश्रितं वस्तु दुग्धमिव । दुहते=दुहन्ति=ददतीत्यर्थः । कीदृश्यः पृश्नयः− ऋतस्य=प्राकृतनियमस्य । पिप्युषीः=पोषयित्र्यः ॥१९ ॥
हिन्दी (4)
विषय
अब परमात्मा के नियम से वर्षा का होना कथन करते हैं।
पदार्थ
(इन्द्र) हे परमात्मन् ! (ते) आपसे उत्पादित (इमाः, पृश्नयः) ये सूर्य की रश्मि (एनाम्, आशिरम्, घृतम्) इस पृथिव्यादिलोकाश्रित जल को (दुहते) कर्षण करती हैं, जो रश्मि (ऋतस्य) यज्ञ को (पिप्युषीः) बढ़ानेवाली हैं ॥१९॥
भावार्थ
हे सर्वरक्षक प्रभो ! आपसे उत्पादित सूर्य्यरश्मि इस पृथिवी में स्थित जल को अपनी आकर्षणशक्ति से ऊपर ले जाती, पुनः मेघमण्डल बनकर वर्षा होती और वर्षा से अन्न तथा अन्न से प्राणियों की रक्षा होती है ॥१९॥
विषय
समस्त जगत् सुखकारी है, यह इससे शिक्षा देते हैं ।
पदार्थ
(इन्द्र) हे इन्द्र ! (इमाः) परितः दृश्यमान के (पृश्नयः) नाना वर्णों के पदार्थरूप गाएँ (ते) तेरी कृपा से (घृतम्) क्षरणशील=बहनेवाली वस्तु और (एनाम्) इन (आशिरम्) नाना द्रव्यमिश्रित वस्तुओं को दुग्धवत् (दुहते) देते हैं । वे पदार्थ कैसे हैं−(ऋतस्य) प्राकृतनियम के (पिप्युषीः) पोषण करनेवाले हैं ॥१९ ॥
भावार्थ
यह ईश्वरीय सृष्टि बहुत ही सुखमयी है । कैसे-२ पदार्थ यहाँ सुख प्रकट कर रहे हैं । गौ का दूध कैसा एक उत्तम पदार्थ है । वह अपने बच्चे को पिलाकर पुनः मनुष्य को दूध देती है, परन्तु दुग्धवत् इस पृथिवी पर सहस्रशः पदार्थ हैं । आम्र कैसा स्वादु, नारिकेल कैसा पोषक वस्तु, इक्षु एक अद्भुत पदार्थ है । गोधूम और धान्य आदि सब ही ईश्वर की परम महिमा दिखलाते हैं ॥१९ ॥
विषय
गौओं के तुल्य ऋषियों का प्रभु के प्रति भाव ।
भावार्थ
हे ( इन्द्र) ऐश्वर्यवन् ! सूर्यवत् तेजस्विन् ! ( इमाः पृश्नयः) ये सूर्य, अन्तरिक्ष और भूमि आदि समस्त पदार्थ गौओं के समान हैं। (ते) तेरे अधीन होकर ( एनम् ) उस ( आशिरम् ) भोगने योग्य ( घृतं ) क्षरणशील दुग्धवत् जल अन्नादि को ( दुहते ) प्रदान करते हैं । ये सब ( ऋतस्य ) तेज, जल, अन्न, धन और ज्ञान की ( पिप्युषीः ) वृद्धि भी करते हैं । ज्ञान की वृद्धि करने से ऋषि लोग भी ‘पृश्नि’ कहते हैं ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वत्सः काण्व ऋषिः ॥ १—४५ इन्द्रः। ४६—४८ तिरिन्दिरस्य पारशव्यस्य दानस्तुतिर्देवताः॥ छन्दः—१—१३, १५—१७, १९, २५—२७, २९, ३०, ३२, ३५, ३८, ४२ गायत्री। १४, १८, २३, ३३, ३४, ३६, ३७, ३९—४१, ४३, ४५, ४८ निचृद् गायत्री। २० आर्ची स्वराड् गायत्री। २४, ४७ पादनिचृद् गायत्री। २१, २२, २८, ३१, ४४, ४६ आर्षी विराड् गायत्री ॥
विषय
पृश्नि-घृत-अमृतत्व
पदार्थ
[१] हे (इन्द्र) = ज्ञानरूप परमैश्वर्यवाले प्रभो ! (इमाः) = ये (ते) = आपकी (पृश्नयः) = प्रकाश की किरणें हैं। (आशिरम्) = [आशृणाति] ये अन्धकार को समन्तात् शीर्ण करनेवाली (घृतम्) = ज्ञानदीप्ति को (दुहते) = हमारे में पूरित करती हैं। [२] ये प्रकाश की किरणें (एना) = इस ज्ञान दीप्ति के द्वारा (अमृतस्य) = अमृतत्व का (पिप्युषी:) = आप्यायन करती हैं। ज्ञानाग्नि में सब वासनायें भस्म हो जाती हैं और इस प्रकार हमारा जीवन नीरोग व निर्मल बन जाता है।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु की प्रकाश की किरणें हमारे आदर ज्ञान दीप्ति का पूरण करके वासना विदाह के द्वारा अमृतत्व को देनेवाली होती हैं।
इंग्लिश (1)
Meaning
Indra, these spotted cows of yours, various earths, starry skies which yield and shower honey sweets of milk and life giving soma are augmenters of the divine yajna of universal evolution.
मराठी (1)
भावार्थ
हे सर्वरक्षक प्रभो, तुझ्यापासून उत्पन्न झालेल्या सूर्यरश्मी या पृथ्वीवरील जलाला आपल्या आकर्षणशक्तीने वर घेऊन जातात. नंतर मेघमंडल बनून वृष्टी होते व वृष्टीने अन्न व अन्नाने प्राण्यांचे रक्षण होते. ॥१९॥
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