ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 6/ मन्त्र 5
ओज॒स्तद॑स्य तित्विष उ॒भे यत्स॒मव॑र्तयत् । इन्द्र॒श्चर्मे॑व॒ रोद॑सी ॥
स्वर सहित पद पाठओजः॒ । तत् । अ॒स्य॒ । ति॒त्वि॒षे॒ । उ॒भे इति॑ । यत् । स॒म्ऽअव॑र्तयत् । इन्द्रः॑ । चर्म॑ऽइव । रोद॑सी॒ इति॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
ओजस्तदस्य तित्विष उभे यत्समवर्तयत् । इन्द्रश्चर्मेव रोदसी ॥
स्वर रहित पद पाठओजः । तत् । अस्य । तित्विषे । उभे इति । यत् । सम्ऽअवर्तयत् । इन्द्रः । चर्मऽइव । रोदसी इति ॥ ८.६.५
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 6; मन्त्र » 5
अष्टक » 5; अध्याय » 8; वर्ग » 9; मन्त्र » 5
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अष्टक » 5; अध्याय » 8; वर्ग » 9; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (2)
विषयः
अथ परमात्मनः स्वप्रकाशत्वं कथ्यते।
पदार्थः
(अस्य) अस्य परमात्मनः (तत्, ओजः, तित्विषे) तादृशं तेजः दीप्यते (यत्) येन (इन्द्रः) परमात्मा (उभे, रोदसी) द्वे अपि द्यावापृथिव्यौ (चर्मेव) चर्मवत् (समवर्तयत्) विस्तारयितुं संकोचयितुं च शक्नोति ॥५॥
विषयः
तस्योजः प्रदर्श्यते ।
पदार्थः
अस्य=सर्वत्र विद्यमानस्येन्द्रस्य । तत्=तदा । ओजो बलम् । तित्विषे=दिदीपे=प्रत्यक्षतया चकाशे । त्विष दीप्तौ । यद्=यदा । इन्द्रः । उभे=द्वे अपि । रोदसी=परस्पररोधयित्र्यौ द्यावापृथिव्यौ । चर्मेव । समवर्त्तयत्=कार्ये यथारुचि न्ययोजयत् । अयमाशयः । यथा−कश्चित् पुरुषः स्वेच्छया कदाचित् चर्म वेष्टयित्वा कुत्रापि स्थापयति कदाचिद् विस्तारयति, कदाचित् तेन किमपि मानं करोति । एवं विधानि कार्य्याणि यथेच्छं करोति । तद्वत् परमात्मापि यथेच्छं जगदिदं कार्य्ये परिणमयति यदा च सर्वं कार्य्यजातं सम्पादितं तदा तस्य शक्तिर्दिदीप इत्यर्थः ॥५ ॥
हिन्दी (4)
विषय
अब परमात्मा को तेजस्वी कथन करते हैं।
पदार्थ
(अस्य) इस परमात्मा का (तत्, ओजः, तित्विषे) वह तेज दीप्त हो रहा है (यत्) जिस तेज से (इन्द्रः) परमात्मा (उभे, रोदसी) पृथिवी और अन्तरिक्ष इन दोनों को (चर्मेव) चर्म के समान (समवर्तयत्) विस्तीर्ण और संकुचित कर सकता है ॥५॥
भावार्थ
इस मन्त्र में परमात्मा को तेजस्वी कथन किया है कि वह अपने तेज प्रभाव से सम्पूर्ण ब्रह्माण्डों में दीप्तिमान् हो रहा है, इसलिये सब प्रजाओं को उचित है कि उसके तेजस्वी भाव को धारण कर ब्रह्मचर्यादि व्रतों से अपने आपको तेजस्वी तथा बलवान् बनावें, क्योंकि बलसम्पन्न पुरुष ही मनुष्यजन्म के फलचतुष्टय को प्राप्त होते हैं ॥५॥
विषय
उसका महाबल दिखलाया जाता है ।
पदार्थ
(अस्य) सर्वत्र विद्यमान इस इन्द्रवाच्य परमात्मा का (तद्+ओजः१) वह महाबल (तित्विषे) देदीप्यमान होने लगा (यत्) जब (इन्द्रः) परमात्मा ने (उभे) दोनों (रोदसी) परस्पर रोकनेवाले द्युलोक और पृथिवीलोक को (चर्म+इ२व) चर्म के समान (समवर्त्तयत्) अच्छे प्रकार कार्य्य में लगाया अर्थात् जब सर्वकार्य सम्पादित हुआ, तब उसकी शक्ति प्रत्यक्षतया चमकने लगी ॥५ ॥
भावार्थ
कार्य से कर्त्ता का ज्ञान होता है, यह सबको प्रत्यक्ष है । जब परमात्मा ने इस सृष्टि का विकाश किया, तब विद्वानों के समीप इसकी महती शक्ति विदित होने लगी । सृष्टि का अद्भुत कौशल देखकर सब ही मोहित हो जाते हैं, ऐसा भगवान् भूतभावन है ॥५ ॥
टिप्पणी
१−ओज=बल । परमात्मा का बल साक्षात् हम मनुष्यों को विदित नहीं होता, क्योंकि प्रकाशरूप से घटपटादिवत् उसका दर्शन नहीं होता । वह कितना लम्बा, ऊँचा, मोटा है, हम नहीं जानते । जब वेद स्वयं कहते हैं कि यह सम्पूर्ण जगत् उसके एक पैर बराबर भी नहीं, तब उसकी आकृति का बोध हम जीवों को कैसे हो सकता । तथापि उसकी कृति सृष्टि से उसकी शक्ति का पता लगता है, जिसने यह अनन्त सृष्टि रची है, वह कितना बलधारी होगा, यद्यपि इसका भी अनुमान हम मनुष्यों की बुद्धि में नहीं आ सकता है, तथापि बल के किञ्चित् अंश का ज्ञान हो सकता है । अतः रोदसी का वर्णन आया है । २−चर्म+इव । जैसे कोई पुरुष स्वेच्छया कदाचित् चर्म को विस्तीर्ण, कदाचित् सकुंचित, कदाचित् वेष्टित करके कहीं रख देता है, स्वेच्छया जैसा चाहता है, वैसा उस चर्म से अनायास कार्य लिया करता है, तद्वत् परमात्मा भी इस जगत् को यथेच्छ कार्य में लगाता है, यह दृष्टान्त का आशय है ॥५ ॥
विषय
वीर पुरुषवत् ईश्वर का अद्भुत कर्म ।
भावार्थ
( इन्द्रः चर्म इव ) जिस प्रकार शत्रुहन्ता वीर पुरुष रक्षा साधन ढाल और शत्रुच्छेदन के साधन खड्ग को ( सम अवर्त्तयत् ) अच्छी प्रकार चलाता है तब ( अस्य ओजः तित्विषे ) उसका पराक्रम खूब चमकता है, उसी प्रकार ( यत् ) जब ( इन्द्रः ) परमेश्वर्यवान् प्रभु ( चर्म इव ) खड्ग ढाल के समान ही ( रोदसी उभे सम् अवर्त्तयत् ) प्रजा और शासक वर्ग दोनों को एक साथ संचालित करता है ( तत् ) तभी ( अस्य ) उस प्रभु का ( ओजः तित्विषे ) पराक्रम, बल, तेज अधिक चमकता, प्रत्यक्ष सूर्य के प्रकाशवत् दृष्टिगोचर होता है । इति नवमो वर्गः ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वत्सः काण्व ऋषिः ॥ १—४५ इन्द्रः। ४६—४८ तिरिन्दिरस्य पारशव्यस्य दानस्तुतिर्देवताः॥ छन्दः—१—१३, १५—१७, १९, २५—२७, २९, ३०, ३२, ३५, ३८, ४२ गायत्री। १४, १८, २३, ३३, ३४, ३६, ३७, ३९—४१, ४३, ४५, ४८ निचृद् गायत्री। २० आर्ची स्वराड् गायत्री। २४, ४७ पादनिचृद् गायत्री। २१, २२, २८, ३१, ४४, ४६ आर्षी विराड् गायत्री ॥
विषय
ज्ञान+शक्ति=ओजस्विता
पदार्थ
[१] (इन्द्रः) = एक जितेन्द्रिय पुरुष (चर्म इव) = चर्म की तरह (यत्) = जब (उभे रोदसी) = दोनों द्यावापृथिवी को (समवर्तयत्) = ओढ़ लेता है, मस्तिष्क रूप द्युलोक तथा शरीर रूप पृथिवीलोक दोनों का धारण करता है, (तत्) = तो (अस्य ओजः) = इस जितेन्द्रिय पुरुष का ओज [शक्ति] (तित्विष) = चमक उठती है। [२] ओजस्विता केवल शरीर की शक्ति से नहीं, अपितु मस्तिष्क के ज्ञान के भी होने पर चमकती है। 'शरीर की शक्ति व मस्तिष्क के ज्ञान' दोनों के ही धारण की आवश्यकता है। ये दोनों सम्मिलित रूप से धारण किये जाने पर इस रूप में हमारे रक्षक होते हैं, जैसे एक ढाल । ढाल के द्वारा योद्धा अपना रक्षण करता है। ये शक्ति व ज्ञान इस उपासक के लिये ढाल का काम देते हैं।
भावार्थ
भावार्थ- शरीर की शक्ति व मस्तिष्क के ज्ञान दोनों को सम्मिलित रूप से धारण करने पर हम ओजस्वी बनते हैं। यह ओजस्विता ही हमारा रक्षण करनेवाली ढाल होती है।
इंग्लिश (1)
Meaning
When Indra, lord almighty, pervades and envelops both heaven and earth in the cover of light, the light that shines is only the lord’s divine splendour that blazes with glory.
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात परमेश्वराला तेजस्वी म्हटलेले आहे. तो आपल्या तेजाने संपूर्ण ब्रह्मांडात दीप्तिमान होत आहे. त्यासाठी सर्व प्रजेने त्याचा तेजस्वीभाव धारण करून ब्रह्मचर्य इत्यादी व्रतांनी आपल्या स्वत:ला तेजस्वी व बलवान बनवावा कारण बलसंपन्न पुरुषच मनुष्य जन्माचे फलचतुष्ट्य प्राप्त करू शकतो. ॥५॥
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