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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 6 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 6/ मन्त्र 18
    ऋषिः - वत्सः काण्वः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः

    य इ॑न्द्र॒ यत॑यस्त्वा॒ भृग॑वो॒ ये च॑ तुष्टु॒वुः । ममेदु॑ग्र श्रुधी॒ हव॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ये । इ॒न्द्र॒ । यत॑यः । त्वा॒ । भृग॑वः । ये । च॒ । तु॒स्तु॒वुः । मम॑ । इत् । उ॒ग्र॒ । स्रु॒धि॒ । हव॑म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    य इन्द्र यतयस्त्वा भृगवो ये च तुष्टुवुः । ममेदुग्र श्रुधी हवम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ये । इन्द्र । यतयः । त्वा । भृगवः । ये । च । तुस्तुवुः । मम । इत् । उग्र । स्रुधि । हवम् ॥ ८.६.१८

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 6; मन्त्र » 18
    अष्टक » 5; अध्याय » 8; वर्ग » 12; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (2)

    विषयः

    अथ जिज्ञासुप्रार्थना कथ्यते।

    पदार्थः

    (इन्द्र) हे परमात्मन् ! (ये, यतयः) ये यतचेतसः (ये, च, भृगवः) ये च अज्ञानभर्जका विद्वांसः (त्वां, तुष्टुवुः) त्वां स्तुवन्ति (उग्र) हे ओजस्विन् ! (ममेत्) ममैव तेषां मध्ये (हवं) स्तोत्रम् (श्रुधी) शृणु ॥१८॥

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    विषयः

    पुनरिन्द्रः प्रार्थ्यते ।

    पदार्थः

    हे इन्द्र ! ये=प्रसिद्धाः । यतयः=योगिनो मनसा । त्वा=त्वाम् । तुष्टुवुः=सदा स्तुवन्ति । ये च भृगवस्तपस्विनो जनाः स्वतपसा । त्वां स्तुवन्ति=तव गुणग्रामान् स्वतपसा दर्शयन्ति । तेषामुभयेषां मध्ये । हे उग्र=दण्डधर भयङ्करदेव ! ममेद्=ममापि । अप्यर्थे इत् । हवम्=आह्वानं निमन्त्रणम् । श्रुधि=शृणु ॥१८ ॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    अब जिज्ञासु की प्रार्थना कथन करते हैं।

    पदार्थ

    (इन्द्र) हे परमात्मन् ! (ये, यतयः) जो चित्त का विरोध करनेवाले विद्वान् तथा (ये च, भृगवः) जो अज्ञान का मार्जन करनेवाले विद्वान् हैं (त्वा, तुष्टुवुः) वे आपकी स्तुति करते हैं (उग्र) हे ओजस्विन् ! (ममेत्) मेरी निश्चय (हवं) स्तुति को आप (श्रुधी) सुनें ॥१८॥

    भावार्थ

    हे सर्वरक्षक तथा सर्वपालक परमात्मन् ! चित्तवृत्तिनिरोध तथा अज्ञान के नाशक विद्वज्जन आपकी उपासना तथा स्तुति करने में सदैव तत्पर रहते हैं, जिससे आप उनको उन्नत करते हैं। हे परमेश्वर ! मुझ जिज्ञासु की प्रार्थना भी स्वीकार करें अर्थात् मुझको शक्ति दें कि मैं भी आपकी उपासना में सदैव प्रवृत्त रहकर अपना जीवन सफल करूँ ॥१८॥

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    विषय

    पुनः इन्द्र की प्रार्थना करते हैं ।

    पदार्थ

    (इन्द्र) हे इन्द्र ! परमात्मदेव (ये) जो ये प्रसिद्ध (यतयः) योगिगण ध्यानावस्थित होकर (त्वा) तेरी (तुष्टुवुः) स्तुति करते हैं । (ये+च) और जो (भृगवः) तपस्विगण (तुष्टुवुः) स्तुति करते हैं, अपनी-२ तपस्या से तेरे गुणों को दिखलाते हैं । उन दोनों के मध्य (उग्र) हे उग्र देव हे महान् देव ! (मम+इत्) मेरे भी (हवम्) आह्वान=निमन्त्रण को (श्रुधि) सुन । यद्यपि न मैं योगी, यति और न मैं तपस्वी किन्तु आपकी स्तुति किया करता हूँ । इतनी ही मेरी योग्यता है । अतः हे महादेव मुझ क्षुद्र पुरुष का भी स्तोत्र सुना कर ॥१८ ॥

    भावार्थ

    स्व-स्व भाषा द्वारा सब कोई परमदेवता की प्रार्थना करें । यतिगण मन को रोककर स्तुति करते हैं । तपस्वी स्वतप से उसकी विभूति को प्रकाशित करते हैं । विद्वान् उसकी कीर्ति गाते हैं । इसी प्रकार इतरजन भी स्व-स्व भाषा से उसको गावें ॥१८ ॥

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    विषय

    तम दूर करने की सूर्यवत् प्रभु से प्रार्थना ।

    भावार्थ

    हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ( ये यतयः ) जो इन्द्रियों और मन का संयम करने वाले और ( ये च भृगवः ) जो पापों को ज्ञानाग्नि से दग्ध करने वाले या वेद वाणियों को धारण करने वाले तपस्वी और विद्वान् पुरुष हैं वे सभी ( त्वा ) तेरी ( तुष्टुवुः ) सदा स्तुति करते हैं । तू उन सब की सुनता है । हे ( उग्र ) दुष्टों के प्रति भयंकर ! दण्डधर प्रभो ! ( मम इत् हवम् ) मेरी पुकार भी तु ( श्रुधि ) श्रवण कर ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वत्सः काण्व ऋषिः ॥ १—४५ इन्द्रः। ४६—४८ तिरिन्दिरस्य पारशव्यस्य दानस्तुतिर्देवताः॥ छन्दः—१—१३, १५—१७, १९, २५—२७, २९, ३०, ३२, ३५, ३८, ४२ गायत्री। १४, १८, २३, ३३, ३४, ३६, ३७, ३९—४१, ४३, ४५, ४८ निचृद् गायत्री। २० आर्ची स्वराड् गायत्री। २४, ४७ पादनिचृद् गायत्री। २१, २२, २८, ३१, ४४, ४६ आर्षी विराड् गायत्री ॥

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    विषय

    यतयः-मृगवः

    पदार्थ

    [१] हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालन् िप्रभो ! (ये यतयः) = जो यति हैं, संयमी पुरुष हैं, (ये च) = और जो (भृगवः) = ज्ञान से अपना परिपाक करनेवाले हैं, वे (त्वा तुष्टुवुः) = आपका स्तवन करते हैं । [२] हे (उग्र) = तेजश्विन् प्रभो ! (मम इत्) = मेरे भी (हवम्) = पुकार को, प्रार्थना को (श्रुधि) = आप सुनिये। मैं भी आपका आराधक बनूँ । यति व भृगु बनकर आपकी उपासना करनेवाला बनूँ ।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम संयमी व ज्ञानी बनकर प्रभु का स्तवन करें। यह स्तवन ही वस्तुतः हमें संयम व ज्ञान - परिपक्वता में सहायक होगा।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Indra, those self-controlled sages, those veteran scholars of disseminative knowledge who cleanse themselves of negativities, all who adore and celebrate you, while you listen to all, among them, O lord of blazing resplendence, listen to my invocation, adoration and prayer.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे सर्वरक्षक व सर्वपालक परमेश्वरा! चित्तवृत्तीचा निरोध करणारे व अज्ञानाचे नाशक विद्वान लोक तुझी उपासना व स्तुती करण्यात सदैव तत्पर असतात. ज्यामुळे तू त्यांना उन्नत करतोस. हे परमेश्वरा, माझी जिज्ञासूची प्रार्थना स्वीकार कर. अर्थात् मला शक्ती दे की मीही तुझ्या उपासनेत सदैव प्रवृत्त राहून आपले जीवन सफल बनवावे ॥१८॥

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