ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 6/ मन्त्र 22
ऋषिः - वत्सः काण्वः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - विराडार्षीगायत्री
स्वरः - षड्जः
तवेदि॑न्द्र॒ प्रणी॑तिषू॒त प्रश॑स्तिरद्रिवः । य॒ज्ञो वि॑तन्त॒साय्य॑: ॥
स्वर सहित पद पाठतव॑ । इत् । इ॒न्द्र॒ । प्रऽनी॑तिषु । उ॒त । प्रऽश॑स्तिः । अ॒द्रि॒ऽवः॒ । य॒ज्ञः । वि॒त॒न्त॒साय्यः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
तवेदिन्द्र प्रणीतिषूत प्रशस्तिरद्रिवः । यज्ञो वितन्तसाय्य: ॥
स्वर रहित पद पाठतव । इत् । इन्द्र । प्रऽनीतिषु । उत । प्रऽशस्तिः । अद्रिऽवः । यज्ञः । वितन्तसाय्यः ॥ ८.६.२२
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 6; मन्त्र » 22
अष्टक » 5; अध्याय » 8; वर्ग » 13; मन्त्र » 2
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अष्टक » 5; अध्याय » 8; वर्ग » 13; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (2)
पदार्थः
(इन्द्र) हे परमात्मन् ! (उत्) अथ च (प्रणीतिषु) प्रकृष्टनीतिषु (तव, इत्, प्रशस्तिः) तवैव प्रशंसाऽस्ति (अद्रिवः) हे वज्रशक्तिक ! (वितन्तसाय्यः) प्रवृद्धः (यज्ञः) यज्ञस्तवैव भवति ॥२२॥
विषयः
अनयेन्द्रः स्तूयते ।
पदार्थः
उत=अपि च । हे अद्रिवः=दण्डधारिन् उग्रदेव । इन्द्र । तवेत्=तवैव । प्रणीतिषु=प्रणयनेषु नियमेषु तवैव नियमानामित्यर्थः । प्रशस्तिः=प्रशंसा । क्रियते । तथा । तदर्थमेव । यज्ञोऽपि । वितन्तसाय्यः=विस्तीर्णो भवति ॥२२ ॥
हिन्दी (4)
पदार्थ
(उत्) और (इन्द्र) हे परमात्मन् ! (प्रणीतिषु) प्रकृष्ट नीतिशास्त्र के विषय में (तव, इत्, प्रशस्तिः) आप ही की प्रशंसा है (अद्रिवः) हे वज्रशक्तिवाले ! (वितन्तसाय्यः) बड़े से बड़ा (यज्ञः) यज्ञ आप ही के लिये किया जाता है ॥२२॥
भावार्थ
हे परमेश्वर ! नीतिज्ञों में आप प्रशंसित नीतिमान् हैं, आपकी प्रसन्नतार्थ ही बड़े-बड़े यज्ञ किये जाते हैं। सो हे प्रभु ! आप हमें सम्पन्न करें, ताकि हम यज्ञों द्वारा आपकी उपासना करें, क्योंकि एकमात्र आप ही हमारे स्वामी और पूज्य हैं ॥२२॥
विषय
इससे इन्द्र की स्तुति करते हैं ।
पदार्थ
(उत) और भी (अद्रिवः) हे दण्डधारिन् (इन्द्र) इन्द्र ! परमदेव ! (तव+इत्) तेरी ही (प्रणीतिषु) उत्तम नियमों की (प्रशस्तिः) प्रशंसा की जाती है और उन ही नियमों को दिखलाने के लिये (यज्ञः) यज्ञ भी (वितन्तसाय्यः) विस्तीर्ण होते हैं ॥२२ ॥
भावार्थ
इन्द्र की उत्तम नीति को देख उससे मोहित हो मेधाविगण उसकी प्रशंसा करते और उसको दिखलाने के लिये विविध याग करते हैं ॥२२ ॥
विषय
पिता प्रभु । प्रभु और राजा से अनेक स्तुति -प्रार्थनाएं ।
भावार्थ
हे ( अद्रिवः ) मेघों के स्वामी सूर्यवत् ! अनेक शक्तियों के स्वामिन् ! ( उत ) और ( तव इत् ) तेरी ( प्रणीतिषु ) उत्तम उत्कृष्ट नीतियों और रचनाओं में भी तेरी ही ( प्रशस्तिः ) उत्तम कीर्ति और शासन व्यवस्था विद्यमान है। तू ही ( यज्ञः ) सर्वोपास्य, सर्वदाता ( वितन्तसाय्यः ) अति विस्तृत महान्, सब से बड़ा ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वत्सः काण्व ऋषिः ॥ १—४५ इन्द्रः। ४६—४८ तिरिन्दिरस्य पारशव्यस्य दानस्तुतिर्देवताः॥ छन्दः—१—१३, १५—१७, १९, २५—२७, २९, ३०, ३२, ३५, ३८, ४२ गायत्री। १४, १८, २३, ३३, ३४, ३६, ३७, ३९—४१, ४३, ४५, ४८ निचृद् गायत्री। २० आर्ची स्वराड् गायत्री। २४, ४७ पादनिचृद् गायत्री। २१, २२, २८, ३१, ४४, ४६ आर्षी विराड् गायत्री ॥
विषय
प्रशस्तिः- यज्ञः
पदार्थ
[१] हे (अद्रिवः) = वज्रवत् अथवा आदरणीय प्रभो ! (तव प्रणीतिषु) = आपके प्रणयनों में ही (प्रशस्तिः) = जीवन का प्रशस्त्य निहित है। आपकी प्रेरणा के अनुसार चलने पर ही जीवन प्रशस्त बनता है। [२] (उत) = और आपके प्रणयनों में ही (यज्ञः) = यज्ञ (वितन्तसाय्यः) = अति-विस्तारवाला होता है। जब हम प्रभु की उपासना करते हैं तो हमारे जीवन में सब प्रशस्त बातों का प्रवेश होता है, अप्रशस्त बातें हमारे जीवन से दूर होती हैं। और हमारा जीवन अधिकाधिक यज्ञमय बनता जाता
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु की उपासना से जीवन प्रशस्त व यज्ञमय बनता है।
इंग्लिश (1)
Meaning
Indra, in all matters of right ethics, morals, policy and social conduct in the world, it is your glory only that inspires, it is all a version of your universal yajna, lord mover and ruler of the world.
मराठी (1)
भावार्थ
हे परमेश्वरा, नीतिज्ञामध्ये तू प्रशंसित नीतिमान आहेस. तुझ्या प्रसन्नतेसाठी मोठमोठे यज्ञ केले जातात. त्यासाठी हे प्रभो, तू आम्हाला संपन्न कर. आम्ही यज्ञाद्वारे तुझी उपासना करावी, कारण एक तूच आमचा स्वामी व पूज्य आहेस.॥२२॥
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