ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 6/ मन्त्र 33
उ॒त ब्र॑ह्म॒ण्या व॒यं तुभ्यं॑ प्रवृद्ध वज्रिवः । विप्रा॑ अतक्ष्म जी॒वसे॑ ॥
स्वर सहित पद पाठउ॒त । ब्र॒ह्म॒ण्या । व॒यम् । तुभ्य॑म् । प्र॒ऽवृ॒द्ध॒ । व॒ज्रि॒ऽवः॒ । विप्राः॑ । अ॒त॒क्ष्म॒ । जी॒वसे॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
उत ब्रह्मण्या वयं तुभ्यं प्रवृद्ध वज्रिवः । विप्रा अतक्ष्म जीवसे ॥
स्वर रहित पद पाठउत । ब्रह्मण्या । वयम् । तुभ्यम् । प्रऽवृद्ध । वज्रिऽवः । विप्राः । अतक्ष्म । जीवसे ॥ ८.६.३३
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 6; मन्त्र » 33
अष्टक » 5; अध्याय » 8; वर्ग » 15; मन्त्र » 3
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अष्टक » 5; अध्याय » 8; वर्ग » 15; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (2)
पदार्थः
(उत) अथ (वज्रिवः) हे वज्रशक्तिमन् (प्रवृद्ध) सर्वेभ्योऽधिक ! (वयम्, विप्राः) वयं विद्वांसः (जीवसे) जीवनाय (तुभ्यम्) त्वदर्थम् (ब्रह्मण्या) ब्रह्मसम्बन्धीनि कर्माणि (अतक्ष्म) अकार्ष्म ॥३३॥
विषयः
इन्द्रस्य स्तुतिः कथ्यते ।
पदार्थः
हे प्रवृद्ध ! =सर्वापेक्षया अतिशयवृद्धिंगत ! सर्वेभ्य उच्चतम । हे वज्रिवः=हे दण्डधारिन् महाराज ! एको मत्वर्थीयोऽनुवादः । उत=अपि च । वचं विप्रास्तव भक्ता मेधाविनो जनाः । तुभ्यम्=त्वदर्थम् । ब्रह्मण्या=ब्रह्माणि सर्वोत्तमानि स्तोत्राणि । सुपां सुलुगिति सुपो याजादेशः । जीवसे=जीवनाय । अतक्ष्म=आकार्ष्म=कुर्मः ॥३३ ॥
हिन्दी (4)
पदार्थ
(उत) और (वज्रिवः) हे वज्रशक्तिवाले (प्रवृद्ध) सबसे वृद्ध ! (वयम्, विप्राः) विद्वान् हम लोग (जीवसे) जीवन के लिये (तुभ्यम्) आपके निमित्त (ब्रह्मण्या) ब्रह्मसम्बन्धी कर्मों को (अतक्ष्म) संकुचितरूप से कर रहे हैं ॥३३॥
भावार्थ
हे वज्रशक्तिसम्पन्न परमात्मन् ! आप सबसे प्राचीन और सबको यथायोग्य कर्मों में प्रवृत्त करानेवाले हैं। हे प्रभो ! विद्वान् लोग अपने जीवन को उच्च बनाने के लिये वैदिक कर्मों में निरन्तर रत रहते हैं, जिससे लोक में चहुँ दिक् आपका विस्तार हो ॥३३॥
विषय
इन्द्र की स्तुति कहते हैं ।
पदार्थ
(प्रवृद्ध) हे सबमें उच्चतम परमश्रेष्ठ परमात्मन् ! (वज्रिवः) हे दण्डधारिन् महाराज ! (उत) और (वयम्) हम (विप्राः) तेरे मेधावी सेवकगण (तुभ्यम्) तेरे लिये (ब्रह्मण्या) उत्तम-२ स्तोत्रों को (जीवसे) जीवनार्थ=स्वजीवनधारणार्थ (अतक्ष्म) बनाते हैं । भगवान् की स्तुति विना मनुष्य का जीवन वृथा है । विद्वान् जन उसकी स्तुति विना रह नहीं सकते । उनका जीवन ही स्तोत्र है ॥३३ ॥
भावार्थ
जो मेधाविगण ईश्वर की विभूतियों के तत्त्व को जानते हैं, वे उसकी महिमा के गाने के विना कैसे जी सकते हैं, हे मनुष्यों ! तुम सब भी उसकी महिमा को जानकर सदा गाओ ॥३३ ॥
विषय
पिता प्रभु । प्रभु और राजा से अनेक स्तुति-प्रार्थनाएं ।
भावार्थ
( उत ) और हे ( प्रवृद्ध ) सब से महान् ! हे ( वज्रिवः ) सर्व शक्तिमन् ! वा समस्त शक्तिमानों के भी स्वामिन् ! ( वयं विप्राः ) हम सब विद्वान् लोग मिलकर ( तुभ्यं ब्रह्मण्या ) तेरे दिये, तेरे उपदेश किये ब्रह्म, वेदोपदिष्ट ज्ञानों और कर्मों को (जीवसे) अपने सुखमय जीवन की वृद्धि के लिये ( अतक्ष्म ) करें और ( वयं ब्रह्मण्या जीवसे अतक्ष्म ) हम जीवन रक्षा के लिये तेरे दिये धनों और अन्नों को उत्पन्न करें ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वत्सः काण्व ऋषिः ॥ १—४५ इन्द्रः। ४६—४८ तिरिन्दिरस्य पारशव्यस्य दानस्तुतिर्देवताः॥ छन्दः—१—१३, १५—१७, १९, २५—२७, २९, ३०, ३२, ३५, ३८, ४२ गायत्री। १४, १८, २३, ३३, ३४, ३६, ३७, ३९—४१, ४३, ४५, ४८ निचृद् गायत्री। २० आर्ची स्वराड् गायत्री। २४, ४७ पादनिचृद् गायत्री। २१, २२, २८, ३१, ४४, ४६ आर्षी विराड् गायत्री ॥
विषय
तुभ्यं उत जीवसे
पदार्थ
[१] हे (प्रवृद्ध) = सब गुणों के दृष्टिकोण से बढ़े हुए, (वज्रिव:) = वज्रहस्त प्रभो ! (विप्राः) = अपना पूरण करनेवाले (वयम्) = हम (तुभ्यम्) = आप की प्राप्ति के लिये (उत) = तथा जीवसे दीर्घ जीवन के लिये (ब्रह्मण्या) = ज्ञान में उत्तम वाणियों को (अतक्ष्म) = करते हैं। [२] ये उत्तम वाणियाँ हमारे ज्ञान को बढ़ाती हुई हमारे जीवन को उत्तम बनाती हैं तथा हमें आपकी प्राप्ति का पान बनाती हैं।
भावार्थ
भावार्थ- ज्ञान की वाणियों का सम्पादन ही वह मार्ग है जिससे कि हम अपने जीवन को उत्कृष्ट बनाते हैं और प्रभु को प्राप्त करते हैं।
इंग्लिश (1)
Meaning
Indra, highest and eternal lord of thunder and justice, we, enlightened sages dedicated to divinity with piety, offer these hymns of prayer and adoration for the sake of our life and advancement.
मराठी (1)
भावार्थ
हे वज्रशक्तिसंपन्न परमेश्वरा, तू सर्वांहून प्राचीन व सर्वांना यथायोग्य कर्मात प्रवृत्त करविणारा आहेस. हे प्रभो! विद्वान लोक आपले जीवन उच्च बनविण्यासाठी वैदिक कर्मात निरंतर रत असतात, ज्यामुळे जगात सर्वत्र तुझा विस्तार व्हावा. ॥३३॥
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