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अथर्ववेद के काण्ड - 10 के सूक्त 8 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 8/ मन्त्र 12
    ऋषिः - कुत्सः देवता - आत्मा छन्दः - पुरोबृहती त्रिष्टुब्गर्भार्षी पङ्क्तिः सूक्तम् - ज्येष्ठब्रह्मवर्णन सूक्त
    5

    अ॑न॒न्तं वित॑तं पुरु॒त्रान॒न्तमन्त॑वच्चा॒ सम॑न्ते। ते ना॑कपा॒लश्च॑रति विचि॒न्वन्वि॒द्वान्भू॒तमु॒त भव्य॑मस्य ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒न॒न्तम् । विऽत॑तम् । पु॒रु॒ऽत्रा । अ॒न॒न्तम् । अन्त॑ऽवत् । च॒ । सम॑न्ते॒ इति॑ सम्ऽअ॑न्ते । ते इति॑ । ना॒क॒ऽपा॒ल: । च॒र॒ति॒ । वि॒ऽचि॒न्वन् । वि॒द्वान् । भू॒तम् । उ॒त । भव्य॑म् । अ॒स्य॒ ॥८.१२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अनन्तं विततं पुरुत्रानन्तमन्तवच्चा समन्ते। ते नाकपालश्चरति विचिन्वन्विद्वान्भूतमुत भव्यमस्य ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अनन्तम् । विऽततम् । पुरुऽत्रा । अनन्तम् । अन्तऽवत् । च । समन्ते इति सम्ऽअन्ते । ते इति । नाकऽपाल: । चरति । विऽचिन्वन् । विद्वान् । भूतम् । उत । भव्यम् । अस्य ॥८.१२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 8; मन्त्र » 12
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    हिन्दी (4)

    विषय

    परमात्मा और जीवात्मा के स्वरूप का उपदेश।

    पदार्थ

    (अनन्तम्) अन्तरहित (पुरुत्रा) बहुत प्रकार (विततम्) फैला हुआ [ब्रह्म अर्थात्] (नाकपालः) मोक्षसुख का स्वामी [परमात्मा] (समन्ते) परस्पर सीमायुक्त (ते) उन [दोनों अर्थात्] (अनन्तम्) अन्तरहित [कारण] (च) और (अन्तवत्) अन्तवाले [कार्य जगत्] को (विचिन्वन्) अलग-अलग करता हुआ और (अस्य) इस [ब्रह्माण्ड] का (भूतम्) भूतकाल (उत) और (भव्यम्) भविष्यत् काल को (विद्वान्) जानता हुआ (चरति) विचरता है ॥१२॥

    भावार्थ

    अनन्त मोक्षस्वरूप परमात्मा कारण कार्यरूप जगत् तथा भूत भविष्यत् और वर्तमान काल को जानता हुआ सदा वर्तमान है ॥१२॥

    टिप्पणी

    १२−(अनन्तम्) अन्तरहितम् (विततम्) विस्तृतं ब्रह्म (पुरुत्रा) बहुविधम् (अनन्तम्) अन्तरहितं कारणम् (अन्तवत्) सान्तं कार्यम् (च) (समन्ते) परस्परसीमायुक्ते (ते) द्वे (नाकपालः) मोक्षसुखस्य स्वामी (चरति) गच्छति (विचिन्वन्) पृथक् पृथक् कुर्वन् (विद्वान्) जानन् (भूतम्) गतकालम् (उत) अपि (भव्यम्) अनागतकालम् (अस्य) जगतः ॥

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    विषय

    परमात्मा अनन्त है।

    व्याख्याः शृङ्गी ऋषि कृष्ण दत्त जी महाराज

    आत्माओं की संसार में कोई गणना नहीं कर सकता। जैसे परमात्मा की सृष्टि अनंत हैप्रकृति अनंत हैपूर्ण है , ऐसे ही परमात्मा भी पूर्ण है।  परमात्मा और प्रकृति के मध्य रहने वाली आत्माओं की गणना अनंत है।

    परमात्मा इस संसार में ओत प्रोत है, लोक लोकान्तरों को उत्पन्न कर रहा है, जिसकी सृष्टि का कोई अन्त नहीं पाता, इस पर यदि यह आत्मा परमात्मा का अंश है, तो परमात्मा के बनाए अनुकूल संसार को, अनन्त ब्रह्मांड को क्यों नहीं जान पाता? मुनिवरों! देखो, यह पृथ्वी मण्डल हैं, पृथ्वी मण्डल के ऊपर बुध मण्डल है, बुध मण्डल के ऊपर मङ्गल है, मङ्गल से ऊपर अनेक चक्षणि आदि लोक है। इस विशाल विश्व में नाना सूर्य मण्डल हैं, नाना चन्द्र है, अगस्त मुनि मण्डल, वशिष्ठ मुनि मण्डल, आरुणि मण्डल और नाना मण्डल ध्रुव लोक, बृहस्पति लोक, अचंग लोक, मचंग लोक, भू: भुवः और स्वः आदि लोक लोकान्तर परमात्मा के बनाए हुए है।

    मुनिवरों! आदि आचार्यों ऋषियों ने इसमें एक विशेषता बताई है। परमात्मा में अनन्त गुणों में से चार गुण विशेष रुप से हैं। सृष्टि को उत्पन्न करता है, सृष्टि की प्रलय करता है, हमारे पाप पुण्यों के कर्मों का फल देता है, संसार का पालन करता है। ऊपर कहे गुणों वाला परमात्मा होता है। उसी को परमात्मा कहते हैं।

    परन्तु परमात्मा की सृष्टि तो अनन्त के सदृश है, वेदों में ऐसा ही कहा है कि उस अनन्त परमात्मा की सृष्टि में तो अनेक सूर्य हैं। वह सूर्य कहाँ कहाँ प्रकाश कर रहे है, यह तो एक दार्शनिक विषय है हम जितना भी आगे बढ़ जाए, परन्तु हमारी बुद्धि विचलित हो जाती है की कैसे महान परमात्मा ने सबकी सब विद्याएं, कैसे वेदों में प्रविष्ट कर दी हैं। यह भी तो साथ साथ परमात्मा ने एक आत्मा के लिए कितनी सुविधाएं दे दी है।

    मुनिवरों! आज महानन्द जी प्रश्न कर रहे थे, कि हमने जो असंख्य सूर्य होने को कहा है, यह कौन से वेद का प्रमाण है? कौन ऋषि का इसमें प्रमाण है? इसका उत्तर यह है कि वेदों का स्वाध्याय करो और अपने ज्ञान को बढ़ाकर अपने को श्रेष्ठ मानव बनाओ। तो महानन्द जी कहेंगे कि आपने कौन से वेदों का स्वाध्याय किया है, जो आप उच्चारण कर रहे है? इसका उत्तर यह है कि वेदों में अनेक मन्त्रों में आया है, कौन कौन से मन्त्रों की सूची निर्देश की जाए, अन्य मन्त्रों में भी आया है। यदि आगे फिर कभी समय मिला, तो उनकी पूर्णतया व्याख्या कर देंगे।

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    विषय

    नाक-पाल:

    पदार्थ

    १. (अनन्तम्) = अनन्त-सीमारहित-सा-परम कारण 'प्रकृति' नामक पदार्थ ही (पुरुत्रा विततम्) = नाना रूपों में कार्यपदार्थों में फैला हुआ है। (अनन्तम्) = वह अन्तरहित-सा कारणपदार्थ, (च अन्तवत्) = और अन्तवाला सीमायुक्त कार्यपदार्थ-ये दोनों (सम् अन्ते) = एक-दूसरे की सीमा हैं-कार्यकारणभाव के रूप से एक-दूसरे से मिले हुए हैं। २. (अस्य) = इस विश्व के (भूतम्) = अतीत में उत्पन्न हुए-हुए (उत) = और (भव्यम्) = भविष्य में उत्पन्न होनेवाले को (विद्वान्) = जाननेवाला वह (नाकपाल:) = मोक्षधाम का भी पालक प्रभु (ते विचिन्वन्) = उन अनन्त और अन्तवाले कारणात्मक व कार्यात्मक जगत् को विविक्तरूप से जानता हुआ (चरति) = सर्वत्र गतिवाला है-और प्रलय के समय इस सबको अपने अन्दर ले-लेनेवाला [खा जानेवाला] है।

    भावार्थ

    अनन्त-सी प्रकृति इन अन्तवाले कार्य-पदार्थों को जन्म देती है। ये दोनों कारण कार्य परस्पर सम्बद्ध सीमावाले हैं-जुड़े हुए हैं। वे भूत-भव्य के ज्ञाता प्रभु इनका विवेक करते हुए सर्वत्र गतिवाले हो रहे हैं।

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    भाषार्थ

    (अनन्तम्) [तारा संख्या द्वारा] अनन्त द्युलोक, और (पुरुत्रा) बहुत प्रदेशों में (विततम्) फैला हुआ पृथिवी लोक, [ये दोनों] अर्थात्: (अनन्तम्) अनन्त द्युलोक (अन्तवत् च) और परिमित पृथिवीलोक (समन्ते) अन्त के साथ संगत है। (ते) उन दोनों का (नाकपालः) नाक-पालक स्कम्भ परमेश्वर, (विचिन्वन्) अलग-अलग चयन करता हुआ (चरति) उन में विचरता है। वह (अस्य) इस ब्रह्माण्ड के (भूतम्) भूत को (उत) और (भव्यम्) भविष्यत् को (विद्वान्) जानता है।

    टिप्पणी

    [तारा-संख्या की दृष्टि से अनन्त द्युलोक, और पर्वत, समतल तथा सामुद्रिक भिन्न-भिन्न प्रदेशों में फैला हुआ परिमित पृथिवी लोक, ये दोनों जो कि अनन्त और अन्तवाले हैं, अन्त के साथ संगत हैं। द्युलोक तथा पृथिवीलोक परिमाण की दृष्टि से सीमित हैं, और काल की दृष्टि से विनाशी हैं, अन्त वाले हैं। नाकपाल अर्थात् मोक्ष का रक्षक स्कम्भ-परमेश्वर परिमाण तथा काल की दृष्टि से अनन्त है। इस ने द्युलोक और पृथिवीलोक को अलग-अलग समय में चिना है, रचा है। वह ही इस समग्र ब्रह्माण्ड के भूत और भविष्यत् को जानता है, और कोई नहीं जानता]।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Jyeshtha Brahma

    Meaning

    The infinite is expanded and expansive manifold, many ways. The infinite and the finite, ultimately, are one, together and the same. The Omniscient Brahma, lord protector of eternal bliss, integrating, disintegrating, re-integrating, gathering and watching the past, present and future of this all, pervades and vitalises the finite and the infinite.

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    Translation

    The endless stretches out in many directions; the endless, and that, which has its ends, meet together. The Lord of the sorrowless world goes discerning both of them, knowing the past as well as the future of it.

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    Translation

    The infinite material cause with the all-pervading presence of God therein is extended every side, the finite world and finite eternal causes are in their mutual jurisdiction. The Guardian of the space and the extending world and its cause knowing these two and distinguishing between two exerts His energy in past and future of this world.

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    Translation

    The Endless God is extended in every direction. God, the Lord of the joy of salvation, distinguishing the Infinite Cause from the finite effect, the world, which both are interrelated, and knowing the Past, Present and Future of the universe, controls both the Cause and the Effect.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १२−(अनन्तम्) अन्तरहितम् (विततम्) विस्तृतं ब्रह्म (पुरुत्रा) बहुविधम् (अनन्तम्) अन्तरहितं कारणम् (अन्तवत्) सान्तं कार्यम् (च) (समन्ते) परस्परसीमायुक्ते (ते) द्वे (नाकपालः) मोक्षसुखस्य स्वामी (चरति) गच्छति (विचिन्वन्) पृथक् पृथक् कुर्वन् (विद्वान्) जानन् (भूतम्) गतकालम् (उत) अपि (भव्यम्) अनागतकालम् (अस्य) जगतः ॥

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