अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 8/ मन्त्र 19
ऋषिः - कुत्सः
देवता - आत्मा
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - ज्येष्ठब्रह्मवर्णन सूक्त
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स॒त्येनो॒र्ध्वस्त॑पति॒ ब्रह्म॑णा॒र्वाङ्वि प॑श्यति। प्रा॒णेन॑ ति॒र्यङ्प्राण॑ति॒ यस्मि॑ञ्ज्ये॒ष्ठमधि॑ श्रि॒तम् ॥
स्वर सहित पद पाठस॒त्येन॑ । ऊ॒र्ध्व: । त॒प॒ति॒ । ब्रह्म॑णा । अ॒र्वाङ् । वि । प॒श्य॒ति॒ । प्रा॒णेन॑ । ति॒र्यङ् । प्र । अ॒न॒ति॒ । यस्मि॑न् । ज्ये॒ष्ठम् । अधि॑ । श्रि॒तम् ॥८.१९॥
स्वर रहित मन्त्र
सत्येनोर्ध्वस्तपति ब्रह्मणार्वाङ्वि पश्यति। प्राणेन तिर्यङ्प्राणति यस्मिञ्ज्येष्ठमधि श्रितम् ॥
स्वर रहित पद पाठसत्येन । ऊर्ध्व: । तपति । ब्रह्मणा । अर्वाङ् । वि । पश्यति । प्राणेन । तिर्यङ् । प्र । अनति । यस्मिन् । ज्येष्ठम् । अधि । श्रितम् ॥८.१९॥
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
परमात्मा और जीवात्मा के स्वरूप का उपदेश।
पदार्थ
वह [पुरुष] (सत्येन) सत्य [मन की सचाई] से [ऊर्ध्वः] ऊँचा होकर (तपति) प्रतापी होता है, (ब्रह्मणा) वेदज्ञान से (अर्वाङ्) अवर [इस ओर] होकर (वि) विविध प्रकार (पश्यति) देखता है। (प्राणेन) प्राण [आत्मबल] के साथ (तिर्यङ्) आड़ा-तिरछा होकर (प्र) अच्छी रीति से (अनति) जीता है, (यस्मिन्) जिस [पुरुष] के भीतर (ज्येष्ठम्) ज्येष्ठ [सब से बड़ा ब्रह्म] (अधि श्रितम्) निरन्तर ठहरा हुआ है ॥१९॥
भावार्थ
जो मनुष्य अपने में परमात्मा को देखता है, वह सत्यव्रत धारण करके ज्ञान द्वारा आत्मबल प्राप्त करके उपकारी होकर जीवन सुफल करता है ॥१९॥
टिप्पणी
१९−(सत्येन) सद्भ्यो हितम् सत्-यत्। यथार्थकथनं यच्च सर्वलोकसुखप्रदम्। तत् सत्यमिति विज्ञेयमसत्यं तद्विपर्ययम् १। यथार्थकर्मणां (ऊर्ध्वः) उपरिस्थः (तपति) ईष्टे। प्रतापी भवति (ब्रह्मणा) वेदज्ञानेन (अर्वाङ्) अवरदेशे भवन् (वि) विविधम् (पश्यति) (प्राणेन) आत्मबलेन (तिर्यङ्) इतस्ततो देशे भवन् (प्र) प्रकर्षेण (अनति) अनिति। जीवति (यस्मिन्) पुरुषे (ज्येष्ठम्) महत्तमम् ब्रह्म (अधि श्रितम्) प्रतिष्ठितम् ॥
विषय
यस्मिन् ज्येष्ठम् अधिश्रितम्
पदार्थ
१. (यस्मिन् ज्येष्ठम् अधिश्रितम्) = जिस उपासक के हृदय में वह सर्वश्रेष्ठ प्रभु अधिश्रित हुए हैं-निरन्तर ठहरे हैं, वह पुरुष (सत्येन ऊर्ध्वः तपति) = सत्य से ऊँचा उठकर-सत्य के द्वारा उन्नत होकर दीप्त होता है-चमकता है, अर्थात् यह ब्रह्मनिष्ठ पुरुष कभी असत्य नहीं बोलता। यह (ब्रह्मणा) = ज्ञान के द्वारा (अर्वाङ् विपश्यति) = नीचे [Downword] देखता है-नम्न होता है तथा (प्राणेन) = प्राणशक्ति के द्वारा (तिर्यड्) = एक छोर से दूसरे छोर तक [Transverse]-सब अङ्ग प्रत्यङ्गों में (प्राणति) = प्रकर्षण जीवन-शक्तिवाला होता है।
भावार्थ
ब्रह्मनिष्ठ व्यक्ति 'शरीर में प्राणशक्ति-सम्पन्न, मन में सत्यपूतात्मा तथा मस्तिष्क में ज्ञानविनीत' होता है।
भाषार्थ
(यस्मिन्) जिस व्यक्ति में (ज्येष्ठम्) ज्येष्ठ ब्रह्म (अधिश्रितम्) अधिष्ठित हो जाता है, या जिसे वह अपना आश्रय कर लेता है, वह (ब्रह्मणा) ब्रह्म की प्रेरणा द्वारा (सत्येन) सत्य से (ऊर्ध्वः) ऊंचा हुआ (तपति) चमकता है और (अर्वाङ) नीचे के भूमिष्ठ लोगों का (वि पश्यति) विशेष ध्यान करता है। और वह (प्राणेन) प्राण द्वारा (तिर्यङ) टेढ़ी गति वाले मनुष्यों को (प्राणति) सजीव करता रहता है।
टिप्पणी
[तिर्यङ् = तिरः + अञ्च् (गतौ)। अभिप्राय यह कि जो मनुष्य टेढ़ी चाल चलते हैं उन्हें भी वह सदुपदेशों द्वारा प्राणशक्ति देकर सजीव करता रहता है। मन्त्र में सूर्य का वर्णन भी प्रतीत होता है जो कि अधिष्ठित ब्रह्म द्वारा ऊर्ध्वदिशा में तप रहा है और निज रश्मियों द्वारा मानो नीचे भूमि को देखता है और प्राणशक्ति प्रदान द्वारा सभी दिशाओं को अनुप्राणित करता है। इस वर्णन द्वारा यह भी द्योतित किया है की सूर्य में ब्रह्म अधिष्ठित है। इस प्रकार मन्त्र १८,१९ में आर्थिक समन्वय हो जाता है]।
इंग्लिश (4)
Subject
Jyeshtha Brahma
Meaning
The man in whom the presence of Supreme Brahma is steadily realised in awareness in the heart and soul rises high and shines with truth. He watches every thing all round objectively in the light of divine Vedic knowledge and boldly lives his life to the full across all ways of the world by the force and power of his pranic energy.
Translation
By truth he blazes above; by knowledge he looks down correctly, by vital breath he breaths sideways, within whom fests the chiefest (Lord supreme).
Translation
The man in whom the eternal Supreme Being is Established through high spiritual attainments blazes up aloft by truth, beholds down all through Brahma, the Knowledge and breaths in al! spheres through vitality,
Translation
The man, who realizes the Highest God residing in him, blazes up aloft through truth, looks at the created world in different ways through Vedic knowledge, and lives happily through soul-force, moving hither and thither.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१९−(सत्येन) सद्भ्यो हितम् सत्-यत्। यथार्थकथनं यच्च सर्वलोकसुखप्रदम्। तत् सत्यमिति विज्ञेयमसत्यं तद्विपर्ययम् १। यथार्थकर्मणां (ऊर्ध्वः) उपरिस्थः (तपति) ईष्टे। प्रतापी भवति (ब्रह्मणा) वेदज्ञानेन (अर्वाङ्) अवरदेशे भवन् (वि) विविधम् (पश्यति) (प्राणेन) आत्मबलेन (तिर्यङ्) इतस्ततो देशे भवन् (प्र) प्रकर्षेण (अनति) अनिति। जीवति (यस्मिन्) पुरुषे (ज्येष्ठम्) महत्तमम् ब्रह्म (अधि श्रितम्) प्रतिष्ठितम् ॥
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