Loading...
अथर्ववेद के काण्ड - 10 के सूक्त 8 के मन्त्र
मन्त्र चुनें
  • अथर्ववेद का मुख्य पृष्ठ
  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 8/ मन्त्र 39
    ऋषिः - कुत्सः देवता - आत्मा छन्दः - बृहतीगर्भा त्रिष्टुप् सूक्तम् - ज्येष्ठब्रह्मवर्णन सूक्त
    0

    यद॑न्त॒रा द्यावा॑पृथि॒वी अ॒ग्निरैत्प्र॒दह॑न्विश्वदा॒व्यः। यत्राति॑ष्ठ॒न्नेक॑पत्नीः प॒रस्ता॒त्क्वेवासीन्मात॒रिश्वा॑ त॒दानी॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत् । अ॒न्त॒रा । द्या॑वाथि॒वी इति॑ । अ॒ग्नि: । ऐत् । प्र॒ऽदह॑न् । वि॒श्व॒ऽदा॒व्य᳡:। यत्र॑ । अति॑ष्ठन् । एक॑ऽपत्नी: । प॒रस्ता॑त् । क्व᳡ऽइव । आ॒सी॒त् । मा॒त॒रिश्वा॑ । त॒दानी॑म् ॥८.३९॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यदन्तरा द्यावापृथिवी अग्निरैत्प्रदहन्विश्वदाव्यः। यत्रातिष्ठन्नेकपत्नीः परस्तात्क्वेवासीन्मातरिश्वा तदानीम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत् । अन्तरा । द्यावाथिवी इति । अग्नि: । ऐत् । प्रऽदहन् । विश्वऽदाव्य:। यत्र । अतिष्ठन् । एकऽपत्नी: । परस्तात् । क्वऽइव । आसीत् । मातरिश्वा । तदानीम् ॥८.३९॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 8; मन्त्र » 39
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    परमात्मा और जीवात्मा के स्वरूप का उपदेश।

    पदार्थ

    (यत्) जब (द्यावापृथिवी अन्तरा) सूर्य और पृथिवी के बीच (प्रदहन्) दहकता हुआ (विश्वदाव्यः) सबका जलानेवाला (अग्निः) अग्नि (ऐत्) प्राप्त हुआ। (यत्र) जहाँ [सूर्य और पृथिवी के बीच] (एकपत्नीः) एक [सूर्य] को पति [रक्षक वा स्वामी] रखनेवाली [दिशाएँ] (परस्तात्) दूर तक (अतिष्ठन्) ठहरी थीं, (तदानीम्) तब (मातरिश्वा) आकाश में चलनेवाला [वायु वा सूत्रात्मा] (क्व) कहाँ (इव) निश्चय कर के (आसीत्) था ॥३९॥

    भावार्थ

    विद्वान् विचार करे कि संसार के बीच प्रलयसमय में अग्नितत्त्व के साथ वायुतत्त्व वा सूत्रात्मा कहाँ था ॥३९॥

    टिप्पणी

    ३९−(यत्) यदा (अन्तरा) मध्ये (द्यावापृथिवी) सूर्यभूलोकौ (अग्निः) अग्नितत्त्वम् (ऐत्) अगच्छत् (प्रदहन्) दहनं कुर्वन् (विश्वदाव्यः) विश्व+टुदु उपतापे-ण्यत् कर्तरि। सर्वदाहकः (यत्र) द्यावापृथिव्योर्मध्ये (अतिष्ठन्) (एकपक्षी) नित्यं सपत्न्यादिषु। पा० ४।१।३५। एकपति ङीप् नुक् च। एकः सूर्यः पतिः पालकः स्वामी वा यासां ताः पूर्वादिदिशाः (परस्तात्) दूरदेशे (क्व) कुत्र (इव) एव (आसीत्) (मातरिश्वा) अ० ५।१०।८। मातरि मानकर्तरि आकाशे गमनशीलो वायुः सूत्रात्मा वा (तदानीम्) ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    प्रदहन् विश्वदाव्यः' अग्निः

    पदार्थ

    १. (यत्) = जब (द्यावापृथिवी अन्तरा) = धुलोक व पृथिवीलोक के बीच में (प्रदहन) = प्रकर्षण सबको भस्म करता हुआ (विश्वदाव्यः) = [दु उपतापे] सम्पूर्ण संसार को उपतप्त करनेवाला (अग्नि: ऐत) = अग्नि गतिवाला होता है। (यत्र) = जहाँ (परस्तात्) = दूर तक ये दिशाएँ (एकपत्नी: अतिष्ठन्) = एक अग्निरूप पतिवाली होकर ही स्थित थीं, अर्थात् जब चारों और अग्नि-ही-अग्नि का राज्य था, (तदानीम्) = उस समय (मातरिश्वा) = वायु व सूत्रात्मा (क्व इव आसीत्) = कहाँ ही था? निश्चय से इसकी स्थिति कहाँ थी? चारों ओर अग्नि-ही-अग्नि थी, क्या उस समय इस अग्नि में ही इस मातरिश्वा की स्थिति थी? २. वस्तुत: अग्नि का भी अधिष्ठाता वह सूत्रात्मा हो तो है। अग्नि में हमारे पार्थिव शरीर न रह पाएँगे, परन्तु आत्मतत्त्व उसमें थोड़े ही जल जाता है?

    भावार्थ

    प्रलयकाल में चारों ओर अग्नि-ही-अग्नि होकर सब भस्म हो जाता है। उस समय इसका अधिष्ठाता वह सूत्रात्मा ही है, जोकि अवशिष्ट रहता है।

    इस भाष्य को एडिट करें

    भाषार्थ

    (विश्वदाव्यः) सब का दहन करने वाली, (प्रदहन्) प्रकर्षरूप में दग्ध करती हुई (अग्निः) अग्नि (यद्) जब (द्यावापृथिवी, अन्तरा) द्युलोक और पृथिवी लोक के भीतर (ऐत्) आई, प्रकट हुई, तब (यत्र) जिस में (परस्तात्) पुराकाल में (एकपत्नीः) एक [ब्रह्म] पति वाली [आपः] (अतिष्ठन्) स्थित थी, (तदानीम्) तब (मातरिश्वा) वायु (क्व इव) कहां सम्भवतः (आसीत) थी।

    टिप्पणी

    [विश्वदाव्यः = विश्व + दु उपतापे (भ्वादिः + ण्यत् ?); यह प्रलयाग्नि प्रतीत होती है, जो कि विश्व को भस्मसात् कर देती है। एकपत्नी द्वारा "आपः" प्रतीत होते हैं। परन्तु यह आपः स्थूल जल नहीं। आपः का अर्थ अन्तरिक्ष अर्थात प्रकाश प्रतीत होता है। यथा "आपः अन्तरिक्षनाम" (निघं० १।३), तथा "आकाशम् अन्तरिक्षनाम" (निघं० १।३)। "आपः” का अर्थ जल मानने पर, प्रलय का वर्णन मन्त्र में अनुपपन्न हो जायेगा। आपः कार्य है, प्रलय में कार्य की स्थिति असम्भव है। अतः निघण्टु के अनुसार अर्थ ठीक प्रतीत होता है। आकाश को नैयायिक नित्य मानते हैं, अतः इसकी स्थिति प्रलयकाल में सम्भव है। इस समय मातरिश्वा अर्थात् "अन्तरिक्ष में फैली हुई" वायु कहां थीं, यह प्रश्न मन्त्र में किया है। इस का उत्तर मन्त्र ४० में दिया है।]

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (4)

    Subject

    Jyeshtha Brahma

    Meaning

    When the universal fire in flames arose, heating and burning in and between heaven and earth, where were the pre-existing spaces which serve but only one master? Where was Matarishva, wind and energy of the universe?

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    When between the sky and the earth, the all-consuming fire moved forth burning up there, where those having one wife only stood far away, where then was the atmospheric wind?

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    When (in the period of dissolution) the all-consuming fire passes between heaven and the earth devouring everything with flame, when all the directions remain as far as having their one lord, the fire only, where does live this wind or the soul then ?

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    When the blazing, all-consuming fire pervades between the earth and heaven when dwelt afar the spouses of one husband, where at that moment was Air?

    Footnote

    Spouses: All the four directions, North, East, South, West. One husband: The Sun. At that moment: At the time of dissolution.

    इस भाष्य को एडिट करें

    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ३९−(यत्) यदा (अन्तरा) मध्ये (द्यावापृथिवी) सूर्यभूलोकौ (अग्निः) अग्नितत्त्वम् (ऐत्) अगच्छत् (प्रदहन्) दहनं कुर्वन् (विश्वदाव्यः) विश्व+टुदु उपतापे-ण्यत् कर्तरि। सर्वदाहकः (यत्र) द्यावापृथिव्योर्मध्ये (अतिष्ठन्) (एकपक्षी) नित्यं सपत्न्यादिषु। पा० ४।१।३५। एकपति ङीप् नुक् च। एकः सूर्यः पतिः पालकः स्वामी वा यासां ताः पूर्वादिदिशाः (परस्तात्) दूरदेशे (क्व) कुत्र (इव) एव (आसीत्) (मातरिश्वा) अ० ५।१०।८। मातरि मानकर्तरि आकाशे गमनशीलो वायुः सूत्रात्मा वा (तदानीम्) ॥

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top