अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 8/ मन्त्र 41
ऋषिः - कुत्सः
देवता - आत्मा
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - ज्येष्ठब्रह्मवर्णन सूक्त
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उत्त॑रेणेव गाय॒त्रीम॒मृतेऽधि॒ वि च॑क्रमे। साम्ना॒ ये साम॑ संवि॒दुर॒जस्तद्द॑दृशे॒ क्व ॥
स्वर सहित पद पाठउत्त॑रेणऽइव । गा॒य॒त्रीम् । अ॒मृते॑ । अधि॑ । वि । च॒क्र॒मे॒ । साम्ना॑ । ये । साम॑ । स॒म्ऽवि॒दु: । अ॒ज: । तत् । द॒दृ॒शे॒ । क्व᳡ ॥८.४१॥
स्वर रहित मन्त्र
उत्तरेणेव गायत्रीममृतेऽधि वि चक्रमे। साम्ना ये साम संविदुरजस्तद्ददृशे क्व ॥
स्वर रहित पद पाठउत्तरेणऽइव । गायत्रीम् । अमृते । अधि । वि । चक्रमे । साम्ना । ये । साम । सम्ऽविदु: । अज: । तत् । ददृशे । क्व ॥८.४१॥
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
परमात्मा और जीवात्मा के स्वरूप का उपदेश।
पदार्थ
(उत्तरेण) उत्तम गुण से (इव=एव) ही (अमृते) अमृत [मोक्षसुख] में (अधि) अधिकार करके वह परमेश्वर (गायत्रीम्) गायत्री [स्तुति] की ओर (वि) विविध प्रकार (चक्रमे) आगे बढ़ा। (ये) जो [विद्वान्] (साम्ना) मोक्षज्ञान [के अभ्यास] से (साम) मोक्षज्ञान को (संविदुः) यथावत् जानते हैं [वे मानते हैं कि] (अजः) अजन्मा [परमेश्वर] (तत्) तब [मोक्षसुख पाता हुआ] (क्व) कहाँ (ददृशे) देखा गया ॥४१॥
भावार्थ
मोक्षस्वरूप परमात्मा ही अपने अनुपम श्रेष्ठ गुणों से स्तुतियोग्य है। उस मोक्ष गुण दशा का अनुभव ब्रह्मज्ञानी ही कर सकते हैं ॥४१॥
टिप्पणी
४१−(उत्तरेण) उत्कृष्टेन गुणेन (इव) एव (गायत्रीम्) अ० ९।१०।१। गै गाने-अत्रन् णित्, युक् ङीप् च। गायत्री गायतेः स्तुतिकर्मणः-निरु० ७।१२। स्तुतिम् (अमृते) मोक्षसुखे (अधि) अधिकृत्य (वि) विशेषेण (चक्रमे) प्रजगाम। प्राप (साम्ना) अ० ७।५४।१। मोक्षज्ञानाभ्यासेन (ये) विद्वांसः (साम) मोक्षज्ञानम् (संविदुः) सम्यग् जानन्ति। त एव विदुः-इति शेषः (अजः) अजन्मा (तत्) तदा (ददृशे) दृष्टः (क्व) कुत्र ॥
विषय
गायत्री-अमृत-साम
पदार्थ
१. जीवन का 'प्रात:सवन' [प्रथम चौबीस वर्ष] गायत्र कहलाता है ('गायत्र वै प्रात:सवनम्') = ऐत० ६।२। इस सवन में मुख्य कार्य यही है कि [गयाः प्राणाः तान् तत्रे] प्राणशक्ति का रक्षण किया जाए। यह रक्षण ही ब्रह्मचर्य कहलाता है। इस (गायत्री उत्तरेण इव) = प्राणशक्ति के रक्षणवाले प्रात:सवन के बाद ही (अमृते) = [अमृतम् इव हि स्वर्गों लोक: तै०१.३.७.५] स्वर्गलोक में (अधिविचक्रमे) = अधिष्ठातृरूपेण विचरणवाला होता है। ब्रह्मचर्य के बाद गृहस्थ ही स्वर्गलोक है। ब्रह्मचर्याश्रम में प्राणशक्ति के रक्षण का यह परिणाम होता है कि गृहस्थ स्वर्ग-सा बनता है। नीरोग गृहस्थ ही स्वर्ग है। २. गृहस्थ ही माध्यन्दिन सवन है। इसकी समाप्ति पर वानप्रस्थ व संन्यास ही सायन्तन सवन हैं। यहाँ (साम्ना) = उस पुरुष की उपासना के द्वारा [तमेतम्पुरुष सामेति छन्दोगा उपासते, एतस्मिन् हीदर सर्व समानम्-श०१०।५।२।२०] (ये) = जो (साम) = क्षत्र [बल] व साम्राज्य को [क्षत्रं वै साम-श०१२।८।३।२३ साम्राज्यं वै साम] (संविदुः) = सम्यक् जानते व प्राप्त करते हैं, अर्थात् जो प्रभु-उपासन के द्वारा शक्ति-सम्पन्न बनते हैं और इन्द्रियों के पूर्ण शासक [सम्राट] बनते हैं, (तत्) = तब यह (अजः) = जन्म न लेनेवाला जीव (क्व ददशे) = कहाँ दीखता है? अर्थात् यह इस देह के छूट जाने पर मुक्त हो जाता है और प्रभु के साथ विचरता है। इस शरीर में न आने से वह आँखों का विषय नहीं बनता।
भावार्थ
हम जीवन के प्रात:सवन में प्राणशक्ति का [वीर्य का] पूर्ण रक्षण करते हुए 'गायत्री' के उपासक बनें तभी गृहस्थ में नीरोग रहते हुए हम इसे 'अमृत' बना पाएँगे और अन्ततः प्रभु के साथ मेल से हम शक्ति व इन्द्रियों के साम्राज्य [शासकत्व] को प्राप्त करके प्रभु के साथ विचरनेवाले बनेंगे-मुक्त हो जाएंगे। उस समय शरीर में न आने से हम दीखेंगे नहीं।
भाषार्थ
(गायत्रीम्) गायत्री से (इव) मानो (उत्तरेण) उत्कृष्ट [परमेश्वर] (अमृते अधि) निज अमृत स्वरूप में (विचक्रमे१) विशेष रूप में पादविक्षेप किये हुए था। (साम्ना) गायत्रसामगान द्वारा (ये) जो उपासक (साम) शान्तिसम्पन्न परमेश्वर को (संविदुः) सम्यक् जानते हैं [उन द्वारा] (अजः) जन्मरहित (तत्) वह ब्रह्म (क्व) कहां (ददृशे) देखा गया या प्रत्यक्ष किया गया था ?]।
टिप्पणी
[परमेश्वर गायत्री का अधिपति है। यथा "यो गायत्र्या अधिपति र्बभूव" (अथर्व० ४।३५।६)। परमेश्वर गायत्री का अधिपति है अतः गायत्री से श्रेष्ठ है। परमेश्वर प्रलयकाल में तो निज अमृतस्वरूप में स्थित रहता ही है, सर्जनकाल में भी त्रिपाद् रूप से वह अमृत स्वरूप में ही स्थित रहता है। "त्रिपादस्यामृतं दिवि" (यजु० ३१।३)। सामगानों द्वारा, विशेषतया गायत्र सामगान द्वारा, शान्ति सम्पन्न परमेश्वर को सम्यक् रूप में जान लिया जाता है, परन्तु वह अजन्मा केवल सामगानों द्वारा प्रत्यक्षदृष्ट नहीं होता। अतः कहा है "तत् ददृशे क्व"। इस का उत्तर मन्त्र ४३ में है; अर्थात् हृदयपुण्डरीक में ध्यान द्वारा वह प्रत्यक्षदृष्ट होता है।] [१. वि + क्रमु पादविक्षेपे (भ्वादिः)।]
इंग्लिश (4)
Subject
Jyeshtha Brahma
Meaning
Corresponding to the higher and higher form and vision of the evolution of existence, Brhad-Brahma created Gayatri, saving light and Word of the Veda for human attainment of the bliss of immortality. Those who know Sama, peace and divine bliss, by the samans know that unborn eternal Brahma by direct experience in meditative communion. What doubt, and where, can it be? (By Gayatri man rises higher to the bliss of immortality.)
Translation
As if with something nobler than the Gayatri, He strode forth into the immortality. They, who harmonize Saman with Sāman - where was that unborn seen ?
Translation
The man of intuitive geneus strides over the state of immortality and blessedness by crossing over the state of self which is above the vital energy. Those who by saman, the communion of God know Saman, the state of the supreme unity, understand as where this Unbegotten Soul is seen.
Translation
A yogi goes beyond his mental faculty that preserves the vital breaths, and realizes the immortal soul. The yogis, who through soul visualize God, know, what the true nature of the unborn soul is.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
४१−(उत्तरेण) उत्कृष्टेन गुणेन (इव) एव (गायत्रीम्) अ० ९।१०।१। गै गाने-अत्रन् णित्, युक् ङीप् च। गायत्री गायतेः स्तुतिकर्मणः-निरु० ७।१२। स्तुतिम् (अमृते) मोक्षसुखे (अधि) अधिकृत्य (वि) विशेषेण (चक्रमे) प्रजगाम। प्राप (साम्ना) अ० ७।५४।१। मोक्षज्ञानाभ्यासेन (ये) विद्वांसः (साम) मोक्षज्ञानम् (संविदुः) सम्यग् जानन्ति। त एव विदुः-इति शेषः (अजः) अजन्मा (तत्) तदा (ददृशे) दृष्टः (क्व) कुत्र ॥
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