अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 8/ मन्त्र 42
ऋषिः - कुत्सः
देवता - आत्मा
छन्दः - विराड्जगती
सूक्तम् - ज्येष्ठब्रह्मवर्णन सूक्त
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नि॒वेश॑नः सं॒गम॑नो॒ वसू॑नां दे॒व इ॑व सवि॒ता स॒त्यध॑र्मा। इन्द्रो॒ न त॑स्थौ सम॒रे धना॑नाम् ॥
स्वर सहित पद पाठनि॒ऽवेश॑न: । स॒म्ऽगम॑न: । वसू॑नाम् । दे॒व:ऽइ॑व । स॒वि॒ता । स॒त्यऽध॑र्मा । इन्द्र॑: । न । त॒स्थौ॒ । स॒म्ऽअ॒रे । धना॑नाम् ॥८.४२॥
स्वर रहित मन्त्र
निवेशनः संगमनो वसूनां देव इव सविता सत्यधर्मा। इन्द्रो न तस्थौ समरे धनानाम् ॥
स्वर रहित पद पाठनिऽवेशन: । सम्ऽगमन: । वसूनाम् । देव:ऽइव । सविता । सत्यऽधर्मा । इन्द्र: । न । तस्थौ । सम्ऽअरे । धनानाम् ॥८.४२॥
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
परमात्मा और जीवात्मा के स्वरूप का उपदेश।
पदार्थ
(वसूनाम्) निवासों [पृथिवी आदि लोकों] का (निवेशनः) ठहरानेवाला और (संगमनः) चलानेवाला, (सत्यधर्मा) सत्य धर्मवाला [परमेश्वर] (धनानाम्) धनों के लिये [हमारे] (समरे) संग्राम में (देवः) प्रकाशमान (सविता इव) चलानेवाले सूर्य के समान और (इन्द्रः न) वायु के समान (तस्थौ) स्थित हुआ ॥४२॥
भावार्थ
हम लोग सङ्ग्राम अर्थात् कठिनाई के समय सत्यस्वभाव, सर्वशक्तिमान् जगदीश्वर का ध्यान करते हुए सूर्यसमान प्रतापी और वायुसमान शीघ्रगामी होकर यथावत् प्रयत्न करें ॥४२॥ यह मन्त्र भेद से ऋग्वेद १०।१३९।३ और यजु० १२।६६। में है ॥
टिप्पणी
४२−(निवेशनः) निवेशयिता स्थापयिता (संगमनः) संगमयिता। संचालकः (वसूनाम्) निवासानां पृथिव्यादिलोकानाम् (देवः) देदीप्यमानः (इव) यथा (सविता) लोकप्रेरकः सूर्यः (सत्यधर्मा) यथार्थन्यायः। अवितथाचारः। अविकृतस्वभावः (इन्द्रः) वायुः (न) इव (तस्थौ) स्थितवान् (समरे) सङ्ग्रामे (धनानाम्) चतुर्थ्यर्थे बहुलं छन्दसि। पा० ३।२।६२। इति षष्ठी। धनानां प्राप्तये ॥
विषय
निवेशन:-सत्यधर्मा
पदार्थ
१. गत मन्त्र में वर्णित साधक (निवेशनः) = सबको उत्तम निवेश प्राप्त करानेवाला-सबका आश्रय बनता है। (वसनां संगमन:) = निवास के लिए आवश्यक धनों का अपने में मेल करनेवाला होता है। यह (सविता देवः इव) = उस प्रेरक प्रकाशमय प्रभु की भाँति होता है-सदा सबको उत्तम प्रेरणा देनेवाला होता है, (सत्यधर्मा) = सत्य को धारण करता है। २. (धनानाम्) = सब धनों का (समरे) = [सम्+अर-ऋगतौ] संगमन होने पर (इन्द्रः न) = परमैश्वर्यशाली प्रभु की भाँति तस्थौ-स्थित होता है।
भावार्थ
प्रभु का उपासक सबका आश्रय, धनों का आधार, उत्तम प्रेरणा देनेवाला, सत्य का धारण करनेवाला बनता है। ऐश्वर्यों का संगमन होने पर यह परमैश्वर्यशाली प्रभु का ही छोटा रूप प्रतीत होने लगता है।
भाषार्थ
परमेश्वर (निवेशनः) प्रत्येक वसु को अपने-अपने स्थान में निविष्ट करता है, (वसूनाम्) आठ वसुओं में (संगमनः) परस्पर संगति या समन्वय करता है (देवः) वह देव (सविता इव) सूर्य की तरह (सत्यधर्मा) सत्य नियमों का धारण करता है। तथा (धनानाम्) धन-सम्बन्धी (समरे) युद्ध मे (इन्द्रः न) सेनापति के सदृश (तस्थौ) जगत् में दृढ़ स्थित है।
टिप्पणी
[वसूनाम् = वसु आठ हैं। अग्नि और पृथिवी, वायु और अन्तरिक्ष, चन्द्रमा और नक्षत्र, सूर्य और द्युलोक। सविता अर्थात् सूर्य के नियम सत्य हैं। वह समय पर उदयास्त होता, यथासमय ऋतुओं का निर्माण करता, नियमानुसार उत्तरायण तथा दक्षिणायन स्थितियां करता है। परमेश्वर के नियम भी सत्य हैं, सुदृढ़ हैं। तथा वह, युद्ध में सेनापति के सदृश जगत् में दृढ़ स्थित है]।
इंग्लिश (4)
Subject
Jyeshtha Brahma
Meaning
Gateway to the concentred peace and wealth of the world, Brhad-Brahma is ever true to his ordinances of Dharma as the refulgent Sun, and he stands by us as omnipotent Indra in our struggle for wealth, honour and excellence of life.
Translation
He the root of riches, the acquirer of treasure, illumines by his functions all forms and figures; the divine impeller, like the bounties : whosė law is truth, stands like the Supreme Lord, the Lord of resplendence is the battle for wealth and prosperity. (Also Rg X. 139.3)
Translation
The All-beatitude Divinity whose laws are true and constant like the Sun is the refuge of whole world and is the uniform base of them. He is firm in the strife of His operations and results like Indra, the soul.
Translation
God, the Seer, Whose laws are constant like the all-illuminating Sun is the supporter and Motivator of planets like the Earth. He stands firm like a king in the war for riches.
Footnote
Men seek the support of God in their attempt to amass wealth, just as subjects pray to the king for their livelihood.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
४२−(निवेशनः) निवेशयिता स्थापयिता (संगमनः) संगमयिता। संचालकः (वसूनाम्) निवासानां पृथिव्यादिलोकानाम् (देवः) देदीप्यमानः (इव) यथा (सविता) लोकप्रेरकः सूर्यः (सत्यधर्मा) यथार्थन्यायः। अवितथाचारः। अविकृतस्वभावः (इन्द्रः) वायुः (न) इव (तस्थौ) स्थितवान् (समरे) सङ्ग्रामे (धनानाम्) चतुर्थ्यर्थे बहुलं छन्दसि। पा० ३।२।६२। इति षष्ठी। धनानां प्राप्तये ॥
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