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अथर्ववेद के काण्ड - 10 के सूक्त 8 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 8/ मन्त्र 35
    ऋषिः - कुत्सः देवता - आत्मा छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - ज्येष्ठब्रह्मवर्णन सूक्त
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    येभि॒र्वात॑ इषि॒तः प्र॒वाति॒ ये दद॑न्ते॒ पञ्च॒ दिशः॑ स॒ध्रीचीः॑। य आहु॑तिम॒त्यम॑न्यन्त दे॒वा अ॒पां ने॒तारः॑ कत॒मे त आ॑सन् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    येभि॑: । वात॑: । इ॒षि॒त: । प्र॒ऽवार्ति॑ । ये । दद॑न्ते । पञ्च॑ । दिश॑: । स॒ध्रीची॑: । ये । आऽहु॑तिम् । अ॒ति॒ऽअम॑न्यन्त । दे॒वा: । अ॒पाम् । ने॒तार॑: । क॒त॒मे । ते । आ॒स॒न् ॥८.३५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    येभिर्वात इषितः प्रवाति ये ददन्ते पञ्च दिशः सध्रीचीः। य आहुतिमत्यमन्यन्त देवा अपां नेतारः कतमे त आसन् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    येभि: । वात: । इषित: । प्रऽवार्ति । ये । ददन्ते । पञ्च । दिश: । सध्रीची: । ये । आऽहुतिम् । अतिऽअमन्यन्त । देवा: । अपाम् । नेतार: । कतमे । ते । आसन् ॥८.३५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 8; मन्त्र » 35
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    परमात्मा और जीवात्मा के स्वरूप का उपदेश।

    पदार्थ

    (येभिः) जिन [संयोग-वियोग आदि दिव्य गुणों] करके (इषितः) प्रेरा गया (वातः) वायु (प्रवाति) चलता रहता है (ये) जो दिव्य गुण (सध्रीचीः) आपस में मिली हुई, (पञ्च) पाँच [पृथिवी, जल, तेज, वायु और आकाश तत्त्वों से सम्बन्धवाली] (दिशः) दिशाओं का (ददन्ते) दान करते हैं। (ये) जिन (देवाः) देवों [संयोग, वियोग आदि दिव्यगुणों] ने (आहुतिम्) आहुति [दान क्रिया, उपकार] को (अत्यमन्यन्त) अतिशय करके माना [स्वीकार किया] था, (ते) वे (अपाम्) प्रजाओं के (नेतारः) नेता [संचालक दिव्य गुण] (कतमे) कौन से (आसन्) थे ॥३५॥

    भावार्थ

    विवेकी को विचारना चाहिये कि किन गुणों से वायु ऊपर नीचे चलता है, सब दिशाओं में पृथिवी आदि तत्त्व कैसे स्थित हैं, किस गुण से क्या उपकार होता है, जिससे यह पृथिवी ठहरी है ॥३५॥

    टिप्पणी

    ३५−(येभिः) यैः संयोगवियोगादिदिव्यगुणैः (वातः) वायुः (इषितः) प्रेरितः (प्रवाति) प्रगच्छति (ये) देवाः (ददन्ते) दद दाने। ददति (पञ्च) पृथिव्यादिपञ्चभूतैः संबद्धाः (दिशः) पूर्वादयः (सध्रीचीः) अ० ६।८८।३। सह वर्तमानाः (ये) (आहुतिम्) दानक्रियाम् (अत्यमन्यन्त) अतिशयेन स्वीकृतवन्तः (देवाः) संयोगवियोगादयो दिव्यगुणाः (अपाम्) प्रजानाम्। सृष्टपदार्थानाम्। आपः=आप्ताः प्रजाः-दयानन्दभाष्ये यजु० ६।२७ (नेतारः) संचालकाः (कतमे) बहूनां मध्ये के (ते) (आसन्) ॥

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    विषय

    प्रभु की दिव्य शक्तियाँ

    पदार्थ

    १. (येभि:) = जिन देवों से [प्रभु की दिव्य शक्तियों से] (इषित:) = प्रेरित हुआ-हुआ (वात: प्रवाति) = वायु बहता है। (ये) = जो देव (सध्रीची:) = साथ मिली हुई (पञ्च) = विस्तृत [पची विस्तारे] (दिश:) = दिशाओं को (ददन्ते) = हमारे लिए प्राप्त कराते हैं, (ये देवा:) = जो देव (आहुतिम्) = यज्ञ में डाली गई आहुति को (अति अमन्यन्त) = अतिशयेन आदृत करते हैं, (ते) = वे (अपां नेतार:) = प्रजाओं का प्रणयन करने-[आगे ले-चलने]-वाले (कतमे आसन्) = कौन-से हैं?

    भावार्थ

    प्रभु की दिव्य शक्तियाँ ही जीवनभूत वायु को बहाती हैं, वे ही हमारे लिए इन विस्तृत दिशाओं को प्राप्त कराती हैं तथा हमसे यज्ञों में प्रेरित आहुति को आदत करती हैं।

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    भाषार्थ

    (येभिः) जिन द्वारा (इषितः) प्रेरित हुई (वातः) वायु (प्रवाति) बहती है, (ये) जो (सध्रीचीः) साथ-साथ मिली हुई (पञ्च) विस्तृत (दिशः) दिशाएं (ददन्ते) प्रदान करते हैं। (ये देवाः) जो देव (आहुतिम्) आहुति को (अति अमन्यन्त) अत्युपयोगी मानते हैं (अपां नेतारः ते) जलों के नेता वे देव (कतमे) कौन से (आसन्) हैं।

    टिप्पणी

    [पञ्च= पचि विस्तारवचने (चुरादिः), यथा “पञ्चास्यः", अर्थात् विस्तृत मुख वाला शेर तथा पचि व्यक्तीकरणे (भ्वादिः)। अथवा पञ्च = पांच। ददन्ते= जो देव दिशाओं का निर्माण करते, या इन का ज्ञान देते हैं। देवों द्वारा दिशाओं का ज्ञान होता है। जहां से सूर्योदय होता है वह पूर्व दिशा है, जहां वह अस्त होता है वह पश्चिम दिशा है। जिधर सप्तर्षि मण्डल है वह उत्तर दिशा है, उसके सामने की दिशा दक्षिण दिशा है। इसी प्रकार चन्द्र आदि द्वारा भी दिशाओं का परिज्ञान होता है। आहुतिम् = पार्थिव-यज्ञाग्नि, वायु तथा सूर्य- ये तीन देव यज्ञिय-आहुतियों को फलदायी करते हैं, वायु को शुद्ध करते, रोगनाश करते, वर्षा करते, तथा स्वास्थ्य प्रदान करते हैं। मानो ये ३ देव यज्ञियाहूतियों को अतिमान प्रदान करते हैं]।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Jyeshtha Brahma

    Meaning

    How many and which ones are those divinities, pioneers and conductors of the dynamics of existence, by which, inspired and energised, the wind blows, which produce the five integrated directions of natural evolution, and which cherish and honour the oblations offered into the natural yajna and the creative endeavour of humanity?

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    Translation

    Inspired by whom the wind blows who hold the five quarters in unison; the bounties of Nature that consider themselves above the sacrificial offerings - which of them are the conductors of waters (apām netāh).

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    Translation

    Who are those atom-bearing mighty forces, commanded by whom this wind blows who range five united regions and who do not care for our call.

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    Translation

    What are the divine forces of Nature, which give command unto the wind that blowest, which control the five united heavenly regions, which care not for the entreaty of the populace, which are the guides of the subtle atoms of Matter?

    Footnote

    Care not—populace: Being devoid of life and consciousness they know not the requirements and requests of the people.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ३५−(येभिः) यैः संयोगवियोगादिदिव्यगुणैः (वातः) वायुः (इषितः) प्रेरितः (प्रवाति) प्रगच्छति (ये) देवाः (ददन्ते) दद दाने। ददति (पञ्च) पृथिव्यादिपञ्चभूतैः संबद्धाः (दिशः) पूर्वादयः (सध्रीचीः) अ० ६।८८।३। सह वर्तमानाः (ये) (आहुतिम्) दानक्रियाम् (अत्यमन्यन्त) अतिशयेन स्वीकृतवन्तः (देवाः) संयोगवियोगादयो दिव्यगुणाः (अपाम्) प्रजानाम्। सृष्टपदार्थानाम्। आपः=आप्ताः प्रजाः-दयानन्दभाष्ये यजु० ६।२७ (नेतारः) संचालकाः (कतमे) बहूनां मध्ये के (ते) (आसन्) ॥

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