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अथर्ववेद के काण्ड - 10 के सूक्त 8 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 8/ मन्त्र 14
    ऋषिः - कुत्सः देवता - आत्मा छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - ज्येष्ठब्रह्मवर्णन सूक्त
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    ऊ॒र्ध्वं भर॑न्तमुद॒कं कु॒म्भेने॑वोदहा॒र्यम्। पश्य॑न्ति॒ सर्वे॒ चक्षु॑षा॒ न सर्वे॒ मन॑सा विदुः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ऊ॒र्ध्वम् । भर॑न्तम् । उ॒द॒कम् । कु॒म्भेन॑ऽइव । उ॒द॒ऽहा॒र्य᳡म् । पश्य॑न्ति । सर्वे॑ । चक्षु॑षा । न । सर्वे॑ । मन॑सा । वि॒दु॒: ॥८.१४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ऊर्ध्वं भरन्तमुदकं कुम्भेनेवोदहार्यम्। पश्यन्ति सर्वे चक्षुषा न सर्वे मनसा विदुः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ऊर्ध्वम् । भरन्तम् । उदकम् । कुम्भेनऽइव । उदऽहार्यम् । पश्यन्ति । सर्वे । चक्षुषा । न । सर्वे । मनसा । विदु: ॥८.१४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 8; मन्त्र » 14
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    परमात्मा और जीवात्मा के स्वरूप का उपदेश।

    पदार्थ

    (कुम्भेन) घड़े से (उदकम्) जल को (ऊर्ध्वम्) ऊपर (भरन्तम्) भरते हुए (उदहार्यम्) जल लानेवाले को (इव) जैसे, [उस परमेश्वर को] (सर्वे) सब लोग (चक्षुषा) आँख से (पश्यन्ति) देखते हैं, (सर्वे) (मनसा) मन से (न) नहीं (विदुः) जानते हैं ॥१४॥

    भावार्थ

    प्रायः मनुष्य परमेश्वर को उसकी स्थूल रचनाओं से देखते हैं, जैसे कूप में से घड़े द्वारा जल खींचनेवाले को। परन्तु विवेकी पुरुष उस उन्नतिकर्ता ईश्वर को उसकी सूक्ष्म रचनाओं से अनुभव करते हैं ॥१४॥

    टिप्पणी

    १४−(ऊर्ध्वम्) (भरन्तम्) हरन्तम्। प्रापयन्तम् (उदकम्) जलम् (कुम्भेन) घटेन (इव) यथा (उदहार्यम्) हृञ् प्रापणे-ण्यत्। कृत्यल्युटो बहुलम्। पा० ३।३।११३। इति कर्तरि प्रत्ययः। जलहारम्। कहारम् (पश्यन्ति) सर्वे (चक्षुषा) नेत्रेण (न) निषेधे (सर्वे) (मनसा) मननेन (विदुः) जानन्ति ॥

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    विषय

    दृश्य होते हुए भी अदृश्य

    पदार्थ

    १. (इव) = जैसे (कुम्भेन) = घड़े के द्वारा (उदकं ऊर्ध्व भरन्तम्) = पानी को ऊपर भरते [खेंचते] हुए (उदहार्यम्) = कहार को (सर्वे) = सब चक्षुषा (पश्यन्ति) = आँख से देखते हैं, इसी प्रकार समुद्ररूप कुएँ से, मेघरूप घड़ों के द्वारा, जल को ऊपर अन्तरिक्ष में पहुँचाते हुए प्रभु को सब आँख से देखते हैं। २. प्रभु अन्तरिक्ष में पानी को ऊपर ले जा रहे हैं-कितनी अद्धत उस उदहार्य की महिमा है? परन्तु सर्वे-सब मनसा न विदु:-मन से उस प्रभु को पूरा जान नहीं पाते। वे प्रभु 'अचिन्त्य' हैं 'अव्यक्तोऽयमचिन्त्योयमविकार्योऽयमुच्यते । सर्वत्र प्रभु की कृति दृष्टिगोचर होती है, परन्तु वे प्रभु हमारे ज्ञान का विषय नहीं बनते। .

    भावार्थ

    सर्वत्र प्रभु की महिमा दृष्टिगोचर होती है, परन्तु वे प्रभु दीखते नहीं।

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    भाषार्थ

    (इव) जैसे (कुम्भेन) घट द्वारा (उदकम्) जल को (ऊर्ध्वम्) सिर पर (भरन्तम्) ले जाते हुए को, (सर्वे) सब (चक्षुषा) आंख द्वारा (उदहार्यम्) जल भरने वाले रूप में (पश्यन्ति) देखते हैं, परन्तु (सर्वे) सब [उस के यथार्थ स्वरूप को] (मनसा) मनन पूर्वक (न विदुः) नहीं जानते, "वैसे दृश्य-जगत् को आंख से देख कर, स्कम्भ-परमेश्वर के जगत्कर्तृत्व आदि रूप को तो सब जानते हैं, परन्तु सब (मनसा) मनन-पूर्वक उस के यथार्थ स्वरूप को (न विदुः) नहीं जानते।

    टिप्पणी

    [अध्यात्म प्रकरण में उदहार्य का वर्णन दृष्टान्तरूप में है। इस द्वारा दाष्टन्ति रूप में स्कम्भ का वर्णन अभिप्रेत है। जैसे सिर पर कुम्भ द्वारा जल ले जाते हुए को आंख द्वारा उस के तात्कालिक उदहार्यरूप को लोग जानते हैं, और मनन या विचार पूर्वक उस के यथार्थ स्वरूप को नहीं देखते, उस के यथार्थ रूप को केवल उस के सम्बन्धी ही जानते हैं, वैसे जगत् की स्थिति को आंख से देख कर लोग स्कम्भ के उसी रूप को तो जानते हैं जिस का कि जगत् के साथ सम्बन्ध है, परन्तु जगत् से उठे१ हुए यथार्थ स्वरूप को वे नहीं जानते, केवल (मनसा) मनन-निदिध्यासन वाले कतिपय ध्यानी ही उस स्वरूप को जानते हैं । मन्त्र में “भरन्तम्” पद पुंलिङ्ग है, अतः "उदहार्यम्" पद भी पुलिङ्ग ही होना चाहिये। व्याख्याकारों ने "उदहार्यम्" को "उदहारी२" स्त्रीलिङ्ग जानकर द्वितीया विभक्ति रूप में व्याख्यात किया है। वस्तुतः "उदहार्यम्" = उद (उदक) + हृ (हरणे) + ण्यत् (कर्तरि) "ऋहलोर्ण्यत्" (अष्टा० ३।१।१२४)]। [१. यथा "त्रिपादूर्ध्व उदैत्पुरुषः पादोऽस्येहाभवत्पुनः" (यजु० ३१।४)। २. उदहारी + अम् (द्वितीया विभक्ति, "इकोयणचि") = उदहार्यम्। यथा "कुमारी + अम्=कुमार्यम्" (अथर्व० १४।१।६३)। वास्तविक रूप चाहिये उदहारीम्, कुमारीम्।]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Jyeshtha Brahma

    Meaning

    People, with their eye, see a water man carrying a pitcher of water on his head (but they do not see the water), so people see the universal pitcher of existence with their physical eye but they fail to see the burden bearer within, Skambha, the pervasive Brahma, with their inner eye of the mind.

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    Translation

    Him, carrying water upwards, just like a water-bearer with her vessel, all people see with their eyes, but not all realize him with their mind.

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    Translation

    Like the bearer of water who fills and draws the water with jar all the men perceive the glory of God with the eye but they do not know Him.

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    Translation

    Just as all men behold with eye, the water-bearer who holds aloft the water in the jar, but know him not with the mind, so men observe the material visible strength of God, but not His subtle power.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १४−(ऊर्ध्वम्) (भरन्तम्) हरन्तम्। प्रापयन्तम् (उदकम्) जलम् (कुम्भेन) घटेन (इव) यथा (उदहार्यम्) हृञ् प्रापणे-ण्यत्। कृत्यल्युटो बहुलम्। पा० ३।३।११३। इति कर्तरि प्रत्ययः। जलहारम्। कहारम् (पश्यन्ति) सर्वे (चक्षुषा) नेत्रेण (न) निषेधे (सर्वे) (मनसा) मननेन (विदुः) जानन्ति ॥

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