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अथर्ववेद के काण्ड - 10 के सूक्त 8 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 8/ मन्त्र 7
    ऋषिः - कुत्सः देवता - आत्मा छन्दः - पराबृहती त्रिष्टुप् सूक्तम् - ज्येष्ठब्रह्मवर्णन सूक्त
    1

    एक॑चक्रं वर्तत॒ एक॑नेमि स॒हस्रा॑क्षरं॒ प्र पु॒रो नि प॑श्चा। अ॒र्धेन॒ विश्वं॒ भुव॑नं ज॒जान॒ यद॑स्या॒र्धं क्व तद्ब॑भूव ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    एक॑ऽचक्रम् । व॒र्त॒ते॒ । एक॑ऽनेमि । स॒हस्र॑ऽअक्षरम् । प्र । पु॒र: । नि । प॒श्चा । अ॒र्धेन॑ । विश्व॑म् । भुव॑नम् । ज॒जान॑ । यत् । अ॒स्य॒ । अ॒र्धम् । क्व᳡ । तत् । ब॒भू॒व॒ ॥८.७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    एकचक्रं वर्तत एकनेमि सहस्राक्षरं प्र पुरो नि पश्चा। अर्धेन विश्वं भुवनं जजान यदस्यार्धं क्व तद्बभूव ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    एकऽचक्रम् । वर्तते । एकऽनेमि । सहस्रऽअक्षरम् । प्र । पुर: । नि । पश्चा । अर्धेन । विश्वम् । भुवनम् । जजान । यत् । अस्य । अर्धम् । क्व । तत् । बभूव ॥८.७॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 8; मन्त्र » 7
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    परमात्मा और जीवात्मा के स्वरूप का उपदेश।

    पदार्थ

    (एकचक्रम्) एक चक्रवाला और (एकनेमि) एक नेमी [नियम] वाला (सहस्राक्षम्) सहस्रों प्रकार से व्याप्तिवाला [ब्रह्म] (प्र) भली-भाँति (पुरः) आगे और (नि) निश्चय करके (पश्चा) पीछे (वर्तते) वर्तमान है। उसने (अर्धेन) आधे [खण्ड] से (विश्वम्) सब (भुवनम्) अस्तित्व [जगत्] को (जजान) उत्पन्न किया और (यत्) जो (अस्य) इस [ब्रह्म] का (अर्धम्) [दूसरा कारणरूप] आधा है, (तत्) वह (क्व) कहाँ (बभूव) रहा ॥७॥

    भावार्थ

    वह परब्रह्म अपने अटूट नियम से सब जगत् में व्यापकर सब से पहिले और पीछे निरन्तर वर्तमान है। उसने अपने थोड़े से सामर्थ्य से वह बहुत बड़ा ब्रह्माण्ड रचा है और जिस कारण से वह रचता चला जाता है, उसका परिमाण मनुष्य नहीं कर सकता ॥७॥ यह मन्त्र कुछ भेद से आगे है-अ० ११।४।२२ ॥

    टिप्पणी

    ७−(एकचक्रम्) एकं चक्रं यस्य तत् (वर्तते) (एकनेमि) नियो मिः। उ० ४।४३। णीञ् प्रापणे−मि। एको नेमिर्नयनं चालनं यस्य तत् (सहस्राक्षरम्) अशेः सरः। उ० ३।७०। अशू व्याप्तौ-सर प्रत्ययः। बहुविधव्यापकम् (प्र) प्रकर्षेण (पुरः) पुरस्तात्। अग्रे (नि) (निश्चयेन) (पश्चा) पश्चात् (अर्धेन) अल्पखण्डेन (विश्वम्) सर्वम् (भुवनम्) अस्तित्वम् (जजान) उत्पादयामास (यत्) (अस्य) ब्रह्मणः (अर्धम्) (क्व) कुत्र (तत्) (बभूव) ववृते ॥

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    विषय

    एकचक्रं-एकनेमि

    पदार्थ

    १. वे प्रभु (एकचक्रम्) = अद्वितीय कर्ता (वर्तते) = हैं। (एकनेमि) = [नेमिः नयनं चालनम्] अद्वितीय संचालनवाले हैं। (सहस्त्राक्षरम्) = हज़ारों [अक्षर-अक्षय] अविनाशी शक्तियोंवाले हैं। (पुरः) = आगे व (पश्चा) = पीछे (प्र) = प्रकर्षण (नि) = निश्चयपूर्वक वर्तमान है-सर्वत्र व्याप्त है। ये प्रभु (अर्धेन) = एक अंश से (विश्वम्) = सम्पूर्ण (भुवनम्) = भुवन को (जजान) = प्रादुर्भूत कर रहे हैं [पादोऽस्य विश्वा भूतानि] (यत्) = जो (अस्य) = इस अविनाशी प्रभु का अर्धम् समृद्ध [ऋधु वृद्धौ] स्वरूप है (तत् क्व बभूव) = वह कहाँ है? [त्रिपादस्यामृतं दिवि] 'प्रभु का वह समृद्ध स्वरूप किसी अन्य आधार में स्थित हो ऐसी बात नहीं है।'

    भावार्थ

    वे प्रभु अद्वितीय कर्ता, अद्वितीय संचालक, अनन्तशक्तियोंवाले, आगे-पीछे सर्वत्र हैं। प्रभु के एकदेश में यह सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड प्रकट हो रहा है। प्रभु का अपना समृद्धस्वरूप, अन्य आधारवाला न होता हुआ प्रकाशमय है।

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    भाषार्थ

    ब्रह्माण्ड (एकचक्रम्) एक चक्राकार (वर्तते) है (एकनेमि) इस चक्र पर एक नेमि है, (सहस्राक्षरम्) हजारों अक्षों वाला है (प्र पुरः) सामने की ओर असीम व्याप्त है (नि पश्चा) पीछे की ओर नितरां व्याप्त है। (अर्धेन) परमेश्वर ने अर्ध शक्ति द्वारा (विश्वम् भूवनम्) सब जगत् को (जजान) पैदा किया है (अस्य) इस परमेश्वर का (यत्) जो (अर्धम्) शेष आधा भाग है (तद्) वह (क्व) कहाँ (बभूव) है।

    टिप्पणी

    [यह समग्र जगत् चक्राकार है, गोल है। जगत् को ब्रह्माण्ड कहते हैं। यह एक बृहत् अण्डे के आकार का है, अण्डे के सदृश आकृति वाला है। इस चक्र पर एक नेमि है जो कि चक्र की रक्षा करती है, वह नेमि है स्वयम् परमेश्वर। इस चक्र में हजारों अक्ष हैं, धुराएं हैं, जिन पर कि सूर्यादि घूम रहे हैं। सहस्राक्षरम् =सहस्र + अक्ष + रम् (वाला)। यह ब्रह्माण्ड सामने और पीछे की ओर असीम मात्रा में फैला हुआ है। जिधर भी मुख करें उस मुख के सामने और पीछे की ओर निःसीम मात्रा में ब्रह्माण्ड फैला हुआ है। परमेश्वर निज अर्ध अर्थात् एकऋद्धांश से ब्रह्माण्ड रचा है, शेष ऋद्धांश इसके निज प्रकाशस्वरूप में स्थित है, जगत् के निर्माण आदि के साथ सम्बन्ध से रहित हैं (देखो यजुर्वेद पुरुषसूक्त अध्याय ३१। मन्त्र ३, ४)। मन्त्र में "अर्ध" शब्द आधे अर्थ का वाचक नहीं, अपितु ऋद्ध-अंश का वाचक है। अर्ध शब्द "ऋधु" धातु से निष्पन्न है जिसका अर्थ है "वृद्धिः"। अतः मन्त्र में अर्ध का अर्थ है एक "ऋद्ध१-अंश" तथा "शेष ऋद्ध१ अंश"। अथवा मन्त्र में "अस्य" द्वारा स्वामित्व का भी बोध होता है, परमेश्वर प्रकृति का स्वामी है। इस की स्वभूत प्रकृति के कितने अंश से ब्रह्माण्ड पैदा हुआ है, और प्रकृति का कितना अंश अवशिष्ट है जो कि उत्पादन से रहित है, यह प्रश्न भी मन्त्र में अभिप्रेत हो सकता है]। [१. यदि "अर्ध" का अर्थ ऋद्धांश न किया जाय तो अथर्ववेद और यजुर्वेद के वर्णन परस्पर विरुद्ध हो जायेंगे। अथर्व० में "अर्ध" का अर्थ हो "आधा", और यजुर्वेद के अनुसार जगत् हो "एकपाद्" अर्थात् 1/4 और शेष हो "त्रिपाद्" 3/4, तो परस्पर विरोध होना निश्चित ही है।]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Jyeshtha Brahma

    Meaning

    One is the wheel of the universe, one is the felly, the transcendent Brahma, (so one is the central axis, the same one immanent Brahma), yet thousands are the spokes and axes, wheels within wheels, moving up and down, forward and backward, east and west. With one part of his Shakti, Prakrti, Brahma has formed the entire universe, where is the rest of it? What happened?

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    Translation

    One-wheeled, one-fellied, and thousand-spoked it moves forward and retums backwards as well. With its half it has created all the beings; where is that which is its other half ?

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    Translation

    One-whealed, single-fellied and thousand-spoked Sun rolls from east to westward. With the one half of it makes the all worlds of the one part of the globe enlightened and where is the other half of it un-noticed.

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    Translation

    With unchanging refulgence, with unalterable Law, with thousand powers, God exists before the creation and after the dissolution of the universe. With a part of His strength. He has begotten all creation. Where hath the other half become unnoticed?

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ७−(एकचक्रम्) एकं चक्रं यस्य तत् (वर्तते) (एकनेमि) नियो मिः। उ० ४।४३। णीञ् प्रापणे−मि। एको नेमिर्नयनं चालनं यस्य तत् (सहस्राक्षरम्) अशेः सरः। उ० ३।७०। अशू व्याप्तौ-सर प्रत्ययः। बहुविधव्यापकम् (प्र) प्रकर्षेण (पुरः) पुरस्तात्। अग्रे (नि) (निश्चयेन) (पश्चा) पश्चात् (अर्धेन) अल्पखण्डेन (विश्वम्) सर्वम् (भुवनम्) अस्तित्वम् (जजान) उत्पादयामास (यत्) (अस्य) ब्रह्मणः (अर्धम्) (क्व) कुत्र (तत्) (बभूव) ववृते ॥

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