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अथर्ववेद के काण्ड - 10 के सूक्त 8 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 8/ मन्त्र 6
    ऋषिः - कुत्सः देवता - आत्मा छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - ज्येष्ठब्रह्मवर्णन सूक्त
    2

    आ॒विः सन्निहि॑तं॒ गुहा॒ जर॒न्नाम॑ म॒हत्प॒दम्। तत्रे॒दं सर्व॒मार्पि॑त॒मेज॑त्प्रा॒णत्प्रति॑ष्ठितम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ॒वि: । सत् । निऽहि॑तम् । गुहा॑ । जर॑त् । नाम॑ । म॒हत् । प॒दम् । तत्र॑ । इ॒दम् । सर्व॑म्‌ । आर्पि॑तम् । एज॑त् । प्रा॒णत् । प्रति॑ऽस्थितम् ॥८.६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आविः सन्निहितं गुहा जरन्नाम महत्पदम्। तत्रेदं सर्वमार्पितमेजत्प्राणत्प्रतिष्ठितम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आवि: । सत् । निऽहितम् । गुहा । जरत् । नाम । महत् । पदम् । तत्र । इदम् । सर्वम्‌ । आर्पितम् । एजत् । प्राणत् । प्रतिऽस्थितम् ॥८.६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 8; मन्त्र » 6
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    परमात्मा और जीवात्मा के स्वरूप का उपदेश।

    पदार्थ

    (आविः) प्रकट, (जरत्) स्तुतियोग्य, (नाम) प्रसिद्ध (महत्) पूजनीय, (पदम्) पाने योग्य (सत्) अविनाशी ब्रह्म (गुहा) हृदय में (निहितम्) दृढ़ स्थापित है। (तत्र) उसी [ब्रह्म] में (अर्पितम्) जमा हुआ (इदम् सर्वम्) यह सब (एजत्) चेष्टा करता हुआ और (प्राणत्) श्वास लेता हुआ (प्रतिष्ठितम्) प्रत्यक्ष स्थित है ॥६॥

    भावार्थ

    वह परब्रह्म सब सृष्टि के भीतर और बाहिर व्यापकर सबको नियम में चलाता है ॥६॥

    टिप्पणी

    ६−(आविः) अ० ८।३।२४। आङ्+अव रक्षणादिषु-इसि। प्रकटम् (सत्) अविनाशि ब्रह्म (निहितम्) दृढं स्थापितम् (गुहा) गुहायाम्। हृदये (जरत्) जीर्यतेरतृन्। पा० ३।२।१०४। इति जॄ स्तुतौ-अतृन्, बाहुलकात्। जरा स्तुतिर्जरतेः स्तुतिकर्मणः-निरु० १०।८। स्तुत्यम् (नाम) प्रसिद्धम् (महत्) पूजनीयम् (पदम्) प्रापणीयम् (तत्र) ब्रह्मणि (इदम्) दृश्यमानम् (सर्वम्) जगत् (आर्पितम्) समन्तात् स्थापितम् (एजत्) चेष्टायमानम् (प्राणत्) श्वसत् (प्रतिष्ठितम्) प्रत्यक्षं स्थितम् ॥

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    विषय

    जरन्नाम

    पदार्थ

    १. वह (आवि:) = एक-एक पदार्थ में अपनी महिमा से प्रकट होनेवाला, (जरत्) = स्तुति के योग्य, (नाम) = प्रसिद्ध (महत्) = महान् व पूजनीय, (पदम्) = पाने के योग्य [पद गती] (सत्) = अविनाशी प्रभु गुहा (निहितम्) = हृदयरूप गुहा में स्थित हैं। २. (तत्र) = उस प्रभु में ही (इदं सर्वम्) = यह सब (आर्पितम्) = अर्पित हुआ-हुआ है। (एजत) = गति करता हुआ व (प्राणत्) = प्राणों को धारण करता हुआ यह सब प्राणिजगत् [तत्र] (प्रतिष्ठितम्) = उस प्रभु में प्रतिष्ठित है।

    भावार्थ

    वे सर्वत्र प्रकट महिमावाले पूज्य प्रभु हमारे हृदयों में स्थित हैं। उन प्रभु में ये सारा ब्रह्माण्ड व प्राणिजगत् प्रतिष्ठित है।

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    भाषार्थ

    (सत्) सत् परमेश्वर (जरत्) पुराण (नाम) नामी (महत्) महान् (पदम्) तथा प्रापणीय है, वह (गुहा) हृदयगुहा में (निहितम्) स्थित हुआ (आविः) प्रकट होता है। (तत्र) उस में (इदम् सर्वम्) यह सब (एजत् प्राणत्) गति करता हुआ और प्राणधारी जगत् (आर्पितम्) समर्पित हुआ (प्रतिष्ठितम्) स्थित है।

    टिप्पणी

    [सत् = परमेश्वर सत् चित् आनन्द स्वरूप है। जरत् = सब पुराण है, पुराकाल का है, अनादि है। एजत्= गति करता हुआ जड़ जगत्]।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Jyeshtha Brahma

    Meaning

    Brahma, Supreme Reality, eternal and adorable Spirit of existence, mysteriously hidden under the folds of its own Shakti, Prakrti, manifests through the worlds of existence. In that Spirit alone all this that moves and breathes abides, self-surrendered. The same Spirit exists deep in the caverns of human heart and soul, and that is the Supreme state of Being worthy of realisation and attainment, for sure, beyond all doubt.

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    Translation

    Though manifest, it lies concealed, as if, in a cave, an ancient name and a great place. Therin is well established all this, that which moves and that which breathes.

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    Translation

    The Being who deserves laudation is a Supreme position, manifests Himself inmost chamber of our hearts ; All that which moveth and that which moveth not and all living creatures have wholly taken shelter therein (in Him).

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    Translation

    God is Manifest, Eternal, concealed in the heart, Adorable, Famous, Worshipful and Attainable. Therein is firmly stationed all the moving breathing universe.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ६−(आविः) अ० ८।३।२४। आङ्+अव रक्षणादिषु-इसि। प्रकटम् (सत्) अविनाशि ब्रह्म (निहितम्) दृढं स्थापितम् (गुहा) गुहायाम्। हृदये (जरत्) जीर्यतेरतृन्। पा० ३।२।१०४। इति जॄ स्तुतौ-अतृन्, बाहुलकात्। जरा स्तुतिर्जरतेः स्तुतिकर्मणः-निरु० १०।८। स्तुत्यम् (नाम) प्रसिद्धम् (महत्) पूजनीयम् (पदम्) प्रापणीयम् (तत्र) ब्रह्मणि (इदम्) दृश्यमानम् (सर्वम्) जगत् (आर्पितम्) समन्तात् स्थापितम् (एजत्) चेष्टायमानम् (प्राणत्) श्वसत् (प्रतिष्ठितम्) प्रत्यक्षं स्थितम् ॥

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