अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 8/ मन्त्र 18
ऋषिः - कुत्सः
देवता - आत्मा
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - ज्येष्ठब्रह्मवर्णन सूक्त
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स॑हस्रा॒ह्ण्यं विय॑तावस्य प॒क्षौ हरे॑र्हं॒सस्य॒ पत॑तः स्व॒र्गम्। स दे॒वान्त्सर्वा॒नुर॑स्युप॒दद्य॑ सं॒पश्य॑न्याति॒ भुव॑नानि॒ विश्वा॑ ॥
स्वर सहित पद पाठस॒ह॒स्र॒ऽअ॒ह्न्यम् । विऽय॑तौ । अ॒स्य॒ । प॒क्षौ । हरे॑: । हं॒सस्य॑ । पत॑त: । स्व॒:ऽगम् । स: । दे॒वान् । सर्वा॑न् । उर॑सि । उ॒प॒ऽदद्य॑ ।स॒म्ऽपश्य॑न् । या॒ति॒ । भुव॑नानि । विश्वा॑ ॥८.१८॥
स्वर रहित मन्त्र
सहस्राह्ण्यं वियतावस्य पक्षौ हरेर्हंसस्य पततः स्वर्गम्। स देवान्त्सर्वानुरस्युपदद्य संपश्यन्याति भुवनानि विश्वा ॥
स्वर रहित पद पाठसहस्रऽअह्न्यम् । विऽयतौ । अस्य । पक्षौ । हरे: । हंसस्य । पतत: । स्व:ऽगम् । स: । देवान् । सर्वान् । उरसि । उपऽदद्य ।सम्ऽपश्यन् । याति । भुवनानि । विश्वा ॥८.१८॥
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
परमात्मा और जीवात्मा के स्वरूप का उपदेश।
पदार्थ
(स्वर्गम्) मोक्षसुख को (पततः) प्राप्त हुए (अस्य) इस [सर्वत्र वर्तमान] (हरेः) हरि [दुःख हरनेवाले] (हंसस्य) हंस [सर्वव्यापक परमेश्वर] के (पक्षौ) दोनों पक्ष [ग्रहण करने योग्य कार्य कारणरूप व्यवहार] (सहस्राह्ण्यम्) सहस्रों दिनोंवाले [अनन्त देश काल] में (वियतौ) फैले हुए हैं। (सः) वह [परमेश्वर] (सर्वान्) सब (देवान्) दिव्यगुणों को [अपने] (उरसि) हृदय में (उपदद्य) लेकर (विश्वा) सब (भुवनानि) लोकों को (संपश्यन्) निरन्तर देखता हुआ (याति) चलता रहता है ॥१८॥
भावार्थ
जैसे परमेश्वर अन्तर्यामी रूप से अनन्त कार्य-कारणरूप जगत् की निरन्तर सुधि रखता है, वैसे ही मनुष्य परमेश्वर का विचार करता हुआ सब कामों में सदा सावधान रहे ॥१८॥
टिप्पणी
१८−(सहस्राह्ण्यम्) मये च। पा० ४।४।१३८। बाहुलकाद् य प्रत्ययः। कालाध्वनोरत्यन्तसंयोगे। पा० २।३।५। इति द्वितीया। सहस्रदिनयुक्तम्। अनन्तं देशं कालं वा (वियतौ) यम-क्त। विस्तृतौ (अस्य) (पक्षौ) पक्ष परिग्रहे-अच्। परिग्रहौ कार्यकारणरूपौ-यथा दयानन्दभाष्ये, यजु० १८।५२। (हरेः) दुःखहरस्य (हंसस्य) म० १७ (पततः) गच्छतः। प्राप्नुवतः (स्वर्गम्) मोक्षसुखम् (सः) (देवान्) दिव्यगुणान् (सर्वान्) (उरसि) हृदये (उपदद्य) उप+दद दाने-ल्यप्। आदाय (संपश्यन्) निरीक्ष्यमाणः (याति) गच्छति (भुवनानि) लोकान् (विश्वा) सर्वाणि ॥
विषय
हंस-हरि
पदार्थ
१. (स्वर्गं पतत:) = सदा आनन्दमय लोक में गति करनेवाले-सदा आनन्दस्वरूप-(हंसस्य) = हमारे पापों का नाश करनेवाले और पापनाश द्वारा (हरे:) = दुःखों का हरण करनेवाले (अस्य) = इस प्रभु के (पक्षौ) = सृष्टि निर्माण [दिन] व प्रलय [रात्रि]-रूप दो पक्ष (सहस्त्राह्णयम्) = सहस्त्र युगपर्यन्त परिणामवाले दिन व रात में( वियतौ) = फैले हुए हैं व विशिष्टरूप से नियमबद्ध हैं [सहस्त्रयुग पर्यन्तमहर्यद् ब्रह्मणो विदुः, रात्रिं युगसहस्त्रान्तां तेऽहोरात्रविदो जनाः ] । २. (स:) = वे प्रभु (सर्वान् देवान्) = तेतीस-के-तेतीस सब देवों को उरसि उपदद्य अपने हृदय में-एकदेश में ग्रहण करके (विश्वा भुवनानि संपश्यन्) = सब लोकों को सम्यक् देखते हुए उनका धारण करते हुए [सं दृश् to look-after] (याति) = सर्वत्र प्राप्त होते हैं [या प्रापणे]।
भावार्थ
सदा आनन्दमय लोक में निवास करनेवाले, पापविनाशक, दु:खनिवारक प्रभु के सृष्टि-निर्माण व प्रलयरूप दिन व रात सहस्रयुगों के परिणामवाले हैं। वे प्रभु सब देवों को अपने में धारण करते हुए, सब लोकों को देखते हुए सर्वत्र प्राप्त हो रहे हैं।
भाषार्थ
(स्वर्गम्) स्वर्ग की ओर (पततः) उड़ते हुए, (हरेः) अपने साथ सौरपरिवार को हरते हुए, (अस्य) इस (हंसस्य) हंस [सूर्य] के (पक्षौ) मानो दो पंख (सहस्राह्णम्) हजारों दिनों की व्याप्ति में (वियतौ) खुले रहते हैं, फैले रहते हैं। (सः) वह हंस (सर्वान्) सब (देवान्) देवों को (उरसि) छाती में (उपदद्यं) धारण करके (विश्वा भुवनानि संपश्यन्) सब भुवनों को देखता हुआ (याति) जाता है तथा देखो (अथर्व० १३।२।३८; ३।१४)।
टिप्पणी
[मन्त्र १७ में "हंस" नाम से परमेश्वर का वर्णन हुआ है, जिस की व्याख्या मन्त्र (१८) में हुई है। स्कम्भ के अध्यात्म-प्रकरण में, सूर्य के वर्णन द्वारा सूर्य को स्कम्भ-परमेश्वर के, रथरूप में जानना चाहिये। यजुर्वेद (४०।१७) के अनुसार आदित्य में ब्रह्म पुरुष की स्थिति कही है। यथा "योऽसावादित्ये पुरुषः सोऽसावहम्। ओ३म् खं ब्रह्म"। अतः सूर्यरथ जिधर गति कर रहा है, उसमें स्थित हुए ब्रह्म-पुरुष की गति उधर हो रही हैं। या यह जानो कि सूर्यरथ में अधिष्ठित हुआ ब्रह्म-पुरुष, इस रथ का उड़ान स्वर्ग की ओर कर रहा है। मन्त्र में "पततः" द्वारा और "पक्षौ” द्वारा पक्षी रूप में सूर्यरथ का वर्णन हुआ है, जो कि आकाश में उड़ रहा है। मन्त्र के इस अभिप्राय में "संपश्यन्” पद कविता में नहीं, अपितु "सम्यक् देखने, या निरीक्षण करने, अर्थ में है। सूर्याधिष्ठित ब्रह्मपुरुष वास्तविक द्रष्टा है]।
इंग्लिश (4)
Subject
Jyeshtha Brahma
Meaning
The two wings of divine activity (of constancy in mutability and mutability in constancy, through the chain of cause and effect of Prakrti) of the Cosmic all¬ saving Bird, flying to the state of freedom and bliss, remain open and active for a thousand days (i.e., one thousand four-age units, each unit being four million and three hundred twenty thousand years) of the age of humanity (equal to four billion and three hundred twenty million years). The bird flies on, carrying on the wings all the Devas, divine forces of nature and humanity through all regions of the universe, watching all and every thing.
Translation
Two wings of this golden-coloured swan are spread out for a thousand days while he flies towards heaven. Carrying all the enlightened ones on his breast (urasi), he goes watching over all the beings.
Translation
Like the Sun, wings of the Hansa, the two operation of pervasiveness and creativeness of the Blissful God are stretched and they cover in their compass the luminous space which is not to be covered in the journey of thousands of days. He carrying all the physical forces, emancipated and nonemancipated souls on His space-like bossom exerts His energy beholding all the worlds and creations.
Translation
Both the wings of this Omnipresent God, the Embodiment of perfect joy, the Alleviator of misery, All-pervading, are spread over endless time and place. Retaining all divine virtues in His bosom, beholding all the created worlds, He controls the universe.
Footnote
Both wings: Cause and Effect, कारण,कार्य
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१८−(सहस्राह्ण्यम्) मये च। पा० ४।४।१३८। बाहुलकाद् य प्रत्ययः। कालाध्वनोरत्यन्तसंयोगे। पा० २।३।५। इति द्वितीया। सहस्रदिनयुक्तम्। अनन्तं देशं कालं वा (वियतौ) यम-क्त। विस्तृतौ (अस्य) (पक्षौ) पक्ष परिग्रहे-अच्। परिग्रहौ कार्यकारणरूपौ-यथा दयानन्दभाष्ये, यजु० १८।५२। (हरेः) दुःखहरस्य (हंसस्य) म० १७ (पततः) गच्छतः। प्राप्नुवतः (स्वर्गम्) मोक्षसुखम् (सः) (देवान्) दिव्यगुणान् (सर्वान्) (उरसि) हृदये (उपदद्य) उप+दद दाने-ल्यप्। आदाय (संपश्यन्) निरीक्ष्यमाणः (याति) गच्छति (भुवनानि) लोकान् (विश्वा) सर्वाणि ॥
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