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अथर्ववेद के काण्ड - 10 के सूक्त 8 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 8/ मन्त्र 32
    ऋषिः - कुत्सः देवता - आत्मा छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - ज्येष्ठब्रह्मवर्णन सूक्त
    2

    अन्ति॒ सन्तं॒ न ज॑हा॒त्यन्ति॒ सन्तं॒ न प॑श्यति। दे॒वस्य॑ पश्य॒ काव्यं॒ न म॑मार॒ न जी॑र्यति ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अन्ति॑ । सन्त॑म् । न । ज॒हा॒ति॒ । अन्ति॑ । सन्त॑म् । न । प॒श्य॒ति॒ । दे॒वस्य॑ । प॒श्य॒ । काव्य॑म् । न । म॒मा॒र॒ । न । जी॒र्य॒ति॒ ॥८.३२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अन्ति सन्तं न जहात्यन्ति सन्तं न पश्यति। देवस्य पश्य काव्यं न ममार न जीर्यति ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अन्ति । सन्तम् । न । जहाति । अन्ति । सन्तम् । न । पश्यति । देवस्य । पश्य । काव्यम् । न । ममार । न । जीर्यति ॥८.३२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 8; मन्त्र » 32
    Acknowledgment

    हिन्दी (5)

    विषय

    परमात्मा और जीवात्मा के स्वरूप का उपदेश।

    पदार्थ

    [जो विद्वान्] (अन्ति) समीप में (सन्तम्) वर्तमान [देव परमात्मा] को (न) नहीं (जहाति) छोड़ता है और (अन्ति) समीप में (सन्तम्) वर्तमान (न) जैसे [उसको] (पश्यति) देखता है। (देवस्य) देव [दिव्यगुणवाले परमात्मा] की (काव्यम्) बुद्धिमत्ता (पश्य) देख, वह [विद्वान्] (न ममार) न तो मरा और (न जीर्यति) न जीर्ण [निर्बल] होता है ॥३२॥

    भावार्थ

    जो विद्वान् दृढ़ चित्त से परमात्मा को प्रत्यक्ष जानता है, वह कभी दुःखी नहीं होता, उसका आत्मबल सदा बढ़ता रहता है, यह ईश्वर नियम है ॥३२॥

    टिप्पणी

    ३२−(अन्ति) अन्तिके। समीपे (सन्तम्) वर्तमानम् (न) निषेधे (जहाति) त्यजति यो विद्वान् (अन्ति) (सन्तम्) (न) इव (पश्यति) अवलोकते (देवस्य) परमेश्वरस्य (पश्य) (काव्यम्) कवि-ष्यञ्। कविकर्म। मेधावित्वम् (न) निषेधे (ममार) मृत्युं प्राप (न) निषेधे (जायति) जॄ वयोहानौ। जीर्णो निर्बलो भवति ॥

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    पदार्थ

    शब्दार्थ = ईश्वर  ( अन्ति सन्तम् ) = पास रहनेवाले उपासक को  ( न जहाति ) = छोड़ता नहीं  ( अन्ति सन्तम् ) = पास रहनेवाले भगवान् को जीव  ( न पश्यति ) = देखता नहीं ।  ( देवस्य ) = परमात्मा के  ( काव्यम् ) = वेदरूप काव्य को  ( पश्य ) = देख  ( न ममार ) = मरता  नहीं और  ( न जीर्यति ) = न ही बूढ़ा होता है। 

    भावार्थ

    भावार्थ = जो ईश्वर का भक्त ईश्वर की भक्ति करता है वह परमेश्वर के समीप है। उसपर परमात्मा सदा कृपादृष्टि रखते हैं यही उनका न छोड़ना है। अज्ञानी नास्तिक लोग जो ईश्वर की भक्ति से हीन हैं वे, परमात्मा के सर्वव्यापक होने से सदा समीप वर्त्तमान को भी नहीं जान सकते। यह परमात्मा अजर-अमर है उसका काव्य वेद भी सदा अजर-अमर है। मुमुक्षु जनों को चाहिए कि उस अजर-अमर परमात्मा के अजर-अमर काव्य को सदा विचारा करें, जिससे लोक-परलोक सुधर सकें ।

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    विषय

    प्रभु का अजरामर काव्य

    पदार्थ

    १. (अन्ति सन्तम्) = समीप होते हुए उस प्रभु को (न जहाति) = जीव कभी छोड़ नहीं पाता प्रभु से दूर होना उसके लिए सम्भव नहीं, साथ ही (अन्ति सन्तम्) = समीप होते हुए उस प्रभु को (न पश्यति) = यह देखता भी नहीं। प्रभु से दूर होना भी सम्भव नहीं और समीप होते हुए भी उसका देखना सम्भव नहीं। २. हे जीव! तु (देवस्य) = उस प्रकाशमय प्रभु के (काव्यम्) = इस वेदज्ञानरूप काव्य को पश्य देख। यह ज्ञान (न ममार) = न विनष्ट होता है, (न जीर्यति) = न ही जीर्ण होता है। यह ज्ञान सनातन होता हुआ भी सदा नवीन है। यह कभी किसी समय में अनुपयुक्त out of date नहीं होता।

    भावार्थ

    प्रभु हमारे समीप हैं, परन्तु हम प्रभु को देख नहीं पाते। प्रभु का यह वेदरूप काव्य अजरामर है। हम इस काव्य को देखने का व्रत लें।

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    भाषार्थ

    (अन्ति = अन्तिकम्) समीप (सन्तम्) होते हुए को (न जहाति) [यह जीवात्मा] नहीं त्यागता, (अन्ति सन्तम्) समीप होते हुए को (न पश्यति) देखता भी नहीं। (देवस्य) देव के (काव्यम्) वेदकाव्य को (पश्य) देख, (न ममार) देखने वाला न मरता है, (न जीर्यति) और न जीर्ण होता है।

    टिप्पणी

    [परमेश्वर सर्वव्यापक होने से समीपस्थ है और हृदयनिष्ठ और आत्मनिष्ठ होने से अति समीप है, तो भी जीवात्मा उसका दर्शन नहीं कर पाता। अतः उसके वेदकाव्य को देखना चाहिये, जिससे ज्ञात होगा कि इस के दर्शन के उपाय क्या हैं। दर्शन पाकर व्यक्ति मुक्त हो जाता है और बार-बार जन्म ले कर, बार-बार मरने और जीर्ण होने से उसे छुटकारा मिल जाता है]

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    विषय

    वेद प्रक्षेप आदि से रहित है

    शब्दार्थ

    (अन्ति) समीप ( सन्तम् ) होते हुए परमेश्वर को मनुष्य (न) नहीं (पश्यति ) देख पाता और (अन्ति) समीप ( सन्तम् ) होते हुए को (न) नहीं (जहाति) छोड़ सकता है (देवस्य) दिव्य गुण-सम्पन्न परमात्मा के (काव्यम्) वेदरूपी काव्य को (पश्य) देखो। वह काव्य (न ममार) न कभी मरता है और (न) नही ( जीर्य्यते) कभी पुराना होता है ।

    भावार्थ

    परमात्मा मनुष्य के अत्यन्त समीप है परन्तु वह उसे देख नहीं पाता । मनुष्य प्रभु को देख नहीं पाता परन्तु फिर भी वह उसे छोड़ नहीं सकता क्योंकि वह तो उसके अन्तर में रम रहा है । जब परमात्मा को हम छोड़ नहीं सकते और उसे ढूंढने के लिए कही दूर जाने की आवश्यकता भी नहीं तब उस हृदय-मन्दिर में विराजमान प्रभु को जानने का, उसे प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिए । उसे प्राप्त करने के लिए उसके निर्मित सर्वोत्कृष्ट काव्य वेद का पठन, श्रवण, मनन और चिन्तन करना चाहिये । वेद संसार के पुस्तकालय में सबसे प्राचीन और अद्भुत एवं अनूठा काव्य है । इसके उपदेश कभी भी पुराने नहीं होते। वे सदा नये बने रहते हैं । वेद का कभी नाश नहीं होता। उसमें परिवर्तन और परिवर्धन नहीं हो सकता क्योंकि उसका एक-एक स्वर, अक्षर, बिन्दु और मात्रा गिनी हुई है ।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Jyeshtha Brahma

    Meaning

    Though It is within in the heart core, and man can not forsake It, still man does not attain to It, Nor does he even see It though it is at the closest. O man, see the devine poetry of Brahma which neither dies nor grows old. And man too, having seen It nether dies nor grows old.

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    Translation

    Him, so close, He deserts not. Though so close, the other does not see Him. Look at the Lord’s art that never dies nor decays.

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    Translation

    Man does not abondon Him (God) as He resides near him but man does not pecive Him (God) though He lives near Him. Look on the poem of the Divinity which neither dies nor becomes worn.

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    Translation

    God abandons not the soul that goes nearest to Him. The soul sees j not God, nearest to it. Look at the Vedic poetry of God, which is deathless and ageless.

    Footnote

    The truths of the Vedas are never exploded. They are eternal and ever fresh. The Vedic knowledge can never be destroyed, as it always remains with God, Who is beyond the reach of death.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ३२−(अन्ति) अन्तिके। समीपे (सन्तम्) वर्तमानम् (न) निषेधे (जहाति) त्यजति यो विद्वान् (अन्ति) (सन्तम्) (न) इव (पश्यति) अवलोकते (देवस्य) परमेश्वरस्य (पश्य) (काव्यम्) कवि-ष्यञ्। कविकर्म। मेधावित्वम् (न) निषेधे (ममार) मृत्युं प्राप (न) निषेधे (जायति) जॄ वयोहानौ। जीर्णो निर्बलो भवति ॥

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    बंगाली (1)

    পদার্থ

    অন্তি সন্তম্ ন জহাত্যন্তি সন্তং ন পশ্যতি। 

    দেবস্য পশ্য কাব্যং ন মমার ন জীর্য়তি।।৩০।।

    (অথর্ব ১০।৮।৩২)

    পদার্থঃ (অন্তি সন্তম্) নিকটে থাকা ঈশ্বরকে (ন জহাতি) জীব কখনো ছাড়তে পারে না। (অন্তি সন্তম্) সমীপে থাকা ভগবানকে জীব (ন পশ্যতি) দেখতেও পায় না। (দেবস্য) পরমাত্মার (কাব্যম্) বেদরূপ কাব্যকে (পশ্য) দেখ; তা (ন মমার) মরে না, (ন জীর্য়তি) জীর্ণও হয় না।

     

    ভাবার্থ

    ভাবার্থঃ ঈশ্বরের যে ভক্ত ঈশ্বরকে উপাসনা করেন, তিনি পরমেশ্বরের সমীপে আছেন। তার উপর পরমাত্মা সদা কৃপা দৃষ্টি রাখেন, তাই এই উপাসনা তার কখনোই ছাড়া উচিত নয়। অজ্ঞানী যারা ঈশ্বর ভক্তিহীন, তারা পরমাত্মা সর্বব্যাপক হওয়ায় সদা সমীপে বর্তমান থেকেও তাঁকে জানতে পারে না। এই পরমাত্মা জরারহিত অমর। মুমুক্ষু লোকের উচিত সেই অজর অমর পরমাত্মার জরারহিত অমর কাব্যকে সদা বিচার করা।।৩০।।

     

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