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अथर्ववेद के काण्ड - 10 के सूक्त 8 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 8/ मन्त्र 21
    ऋषिः - कुत्सः देवता - आत्मा छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - ज्येष्ठब्रह्मवर्णन सूक्त
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    अ॒पादग्रे॒ सम॑भव॒त्सो अग्रे॒ स्वराभ॑रत्। चतु॑ष्पाद्भू॒त्वा भोग्यः॒ सर्व॒माद॑त्त॒ भोज॑नम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒पात् । अग्रे॑ । सम् । अ॒भ॒व॒त् । स: । अग्रे॑ । स्व᳡: । आ । अ॒भ॒र॒त् । चतु॑:ऽपात् । भू॒त्वा । भोग्य॑: । सर्व॑म् । आ । अ॒द॒त्त॒ । भोजन॑म् ॥८.२१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अपादग्रे समभवत्सो अग्रे स्वराभरत्। चतुष्पाद्भूत्वा भोग्यः सर्वमादत्त भोजनम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अपात् । अग्रे । सम् । अभवत् । स: । अग्रे । स्व: । आ । अभरत् । चतु:ऽपात् । भूत्वा । भोग्य: । सर्वम् । आ । अदत्त । भोजनम् ॥८.२१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 8; मन्त्र » 21
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    हिन्दी (3)

    विषय

    परमात्मा और जीवात्मा के स्वरूप का उपदेश।

    पदार्थ

    (अपात्) विभागरहित [परमात्मा] (अग्रे) पहिले (सम् अभवत्) समर्थ हुआ, (सः) उस ने (अग्रे) पहिले (स्वः) मोक्ष सुख (आ) सब ओर से (अभरत्) धारण किया। (चतुष्पात्) चारों दिशाओं में स्थिति वा गतिवाले [उस परमेश्वर] ने (भोग्यः) [सुखों से] भोगने [अनुभव करने] योग्य (भूत्वा) होकर (सर्वम्) सब (भोजनम्) सुख वा ऐश्वर्य को (आ अदत्त) ग्रहण किया ॥२१॥

    भावार्थ

    परमात्मा सृष्टि के आदि से सब संसार में व्यापकर सब सुखों का भण्डार है ॥२१॥

    टिप्पणी

    २१−(अपात्) अ० ९।१०।२३। पादेन विभागेन रहितः परमेश्वरतः (अग्रे) सृष्ट्यादौ (सम् अभवत्) समर्थोऽभवत् (सः) (अग्रे) (स्वः) मोक्षसुखम् (आ) समन्तात् (अभरत्) धृतवान् (चतुष्पात्) अ० ४।११।५। पद स्थैर्ये गतौ च-घञ्, अन्तलोपः। चतसृषु दिक्षु पादः स्थितिर्गतिर्वा यस्य सः परमेश्वरः (भूत्वा) (भोग्यः) भुज पालनाभ्यवहारयोः-ण्यत्। सुखैरनुभवनीयः (सर्वम्) (आ अदत्त) गृहीतवान् (भोजनम्) भुज-ल्युट्। सुखम्। ऐश्वर्यम्। धनम्-निघ० २।१० ॥

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    विषय

    अत्ता चराचग्रहणात्

    पदार्थ

    १. (अग्ने) = सृष्टि के पूर्व (सः) = वे परम पुरुष 'प्रभु' (अपात्) = [अ, पद् गतौ] अविशेषरूप 'अमात्र' स्वरूप (सम् अभवत्) = थे। वे प्रभु (अग्रे) = सृष्टि की उत्पत्ति से पूर्व (स्वः आभरत्) = प्रकाशमय रूप को धारण करते थे। २. सृष्टि के होने पर वे प्रभु (चतुष्पात् भूत्वा) = 'प्रकाशवान्' 'अनन्तवान्, ज्योतिष्मान् व आयतनवान्' रूप चारों पादोंवाले होकर (भोग्य:) =  भोगने में उत्तम वे प्रभु (सर्वं भोजनम् आदत्त) = सारे ब्रह्माण्ड को भोजन के रूप में ग्रहण कर लेते हैं। ('अत्ता चराचर ग्रहणात्') = चर-अचर सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को अपने में लेने से वे 'अत्ता' कहलाते हैं। इसप्रकार सारे ब्रह्माण्ड को कोई भी अन्य अपना भोजन नहीं बना पाता एवं वे प्रभु'भोक्ता हैं।

    भावार्थ

    सृष्टि से पूर्व प्रभु 'अमात्र' के रूप में हैं। वे प्रकाश का पोषण किये हुए हैं। सृष्टि में वे प्रभु चतुष्पाद् होकर-'प्रकाशवान्, अनन्तवान्, ज्योतिष्मान् व आयतनवान्' होकर सारे ब्राह्माण्ड को भोजन के रूप में लील लेनेवाले सर्वोत्तम भोक्ता हैं।

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    भाषार्थ

    [स्कम्भ-परमेश्वर] (अग्रे) सृष्ट्युत्पादन से पहिले (अपाद्) पादरहित (अभवत्) था, (सः) वह (अग्रे) पहिले (स्वः) सुखस्वरूप को (आभरत्) धारण किये हुए था। (चतुष्पाद् भूत्वा) चतुष्पाद् होकर (भोग्यः) वह भोग्य बना। तदनन्तर (सर्वम्) सब (भोजनम्) निज सृष्टिरूपी भोजन का (आदत्त = आ + अदन्त) उसने आदान कर लिया।

    टिप्पणी

    [समग्र सृष्टि स्कम्भ-पुरुष का एकपाद् रूप है "पादोऽस्य विश्वा भूतानि" (यजु० ३१।३)। शेष त्रिपाद् अमृत रूप हैं, उन का सृष्टि की उत्पत्ति-और-मृत्यु के साथ सम्बन्ध नहीं, वे उस के द्योतनात्मक स्वरूप में स्थित रहते हैं, "त्रिपादस्यामृतं दिवि" (यजु० ३१।३)। इस प्रकार सृष्टि की रचना की दृष्टि से स्कम्भ-पुरुष चतुष्पाद् हो जाता है। परन्तु सृष्टिरचना से पूर्व चूंकि उस का सृष्टिरूपी एकपाद् भी नहीं होता अतः सृष्टि रचना से पूर्व वह अपाद् होता है, पादरहित होता है। उस समय वह निज सुखस्वरूप में वर्तमान रहता है। चतुष्पाद् हो कर अर्थात् सृष्टि रचना कर के वह "भोग्य" होता है। उपासक उस के आनन्दस्वरूप का भोग करते हैं। सृष्टिकाल की समाप्ति के समय वह सृष्टिरूपी भोजन का पुनः आदान कर लेता है। जैसे कहा है— यस्य ब्रह्म च क्षत्रं चोभे भवत ओदनः। मृत्युर्थस्योपसेपनं क हत्त्था वेद यत्र सः।। (कठोप० २।२५)।। ब्रह्म और क्षत्र जिस के ओदन है, भात हैं; और मृत्यु उपसेचन है दालरूप है, इस प्रकार प्रलय हो जाने पर, यथार्थ रूप में कौन जानता है कि वह कहां है? ब्रह्म अन्न भी है, और अन्नाद भी "अहमन्नम्, अहमन्नादः” (तैत्तिरीय उप० भृगवल्ली ३, खं ६)। अन्नरूप में वह "भोग्य" होता है, और “अन्नादरूप में” “भोजनमादत्त" अर्थात् अन्नाद होता है।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Jyeshtha Brahma

    Meaning

    Brahma before the beginning of the created universe was indiscrete, so it was pure bliss. In the created existence it became discrete, thinkable in four states, and thus it became a subject of thought, meditation and realisation. And at the time of the dissolution of the created universe it withdraws everything unto itself as one swallows food. (Refer to Mandukyopanishad 2-7 for Apat and Chatushpat. States of Brahma.)

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    Translation

    First he came into being footless (apād). He in the beginning bestowed heavenly bliss. Becoming four-footed, capable of enjoying, he took to all sorts of enjoyment (bhojanam).

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    Translation

    The Supreme Being having no foot was manifest first and He brought the celestial light. He becoming four-footed (i.e. penetrating four regions of the sky) and the guard of all takes into His own power the subsistence of all.

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    Translation

    God, the Indivisible, existed before the creation of the world. He realized perfect joy before creation, as soul does in salvation. Being Four-footed, and Ruler of the world, He absorbed the whole universe in Himself as food at the time of its dissolution.

    Footnote

    Four-footed: प्रकाशमान,अनन्तवान, ज्योतिष्मान् and आयतनवान। These are the four feet of God metaphorically, i.e., Lustre, Infinity, Intelligence, Immensity. God engulfs the whole world at the time of its dissolution. Scherman considers speech, Breath, Eye and Ear to be the four feet. Pt. KhemKarn Das Trivedi considers four directions to be four feet.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २१−(अपात्) अ० ९।१०।२३। पादेन विभागेन रहितः परमेश्वरतः (अग्रे) सृष्ट्यादौ (सम् अभवत्) समर्थोऽभवत् (सः) (अग्रे) (स्वः) मोक्षसुखम् (आ) समन्तात् (अभरत्) धृतवान् (चतुष्पात्) अ० ४।११।५। पद स्थैर्ये गतौ च-घञ्, अन्तलोपः। चतसृषु दिक्षु पादः स्थितिर्गतिर्वा यस्य सः परमेश्वरः (भूत्वा) (भोग्यः) भुज पालनाभ्यवहारयोः-ण्यत्। सुखैरनुभवनीयः (सर्वम्) (आ अदत्त) गृहीतवान् (भोजनम्) भुज-ल्युट्। सुखम्। ऐश्वर्यम्। धनम्-निघ० २।१० ॥

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