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अथर्ववेद के काण्ड - 10 के सूक्त 8 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 8/ मन्त्र 16
    ऋषिः - कुत्सः देवता - आत्मा छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - ज्येष्ठब्रह्मवर्णन सूक्त
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    यतः॒ सूर्य॑ उ॒देत्यस्तं॒ यत्र॑ च॒ गच्छ॑ति। तदे॒व म॑न्ये॒ऽहं ज्ये॒ष्ठं तदु॒ नात्ये॑ति॒ किं च॒न ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत॑: । सूर्य॑: । उ॒त्ऽएति॑ । अस्त॑म् । यत्र॑ । च॒ । गच्छ॑ति । तत् । ए॒व । म॒न्ये॒ । अ॒हम् । ज्ये॒ष्ठम् । तत् । ऊं॒ इति॑ । न । अति॑ । ए॒ति॒ । किम् । च॒न ॥८.१६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यतः सूर्य उदेत्यस्तं यत्र च गच्छति। तदेव मन्येऽहं ज्येष्ठं तदु नात्येति किं चन ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत: । सूर्य: । उत्ऽएति । अस्तम् । यत्र । च । गच्छति । तत् । एव । मन्ये । अहम् । ज्येष्ठम् । तत् । ऊं इति । न । अति । एति । किम् । चन ॥८.१६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 8; मन्त्र » 16
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    हिन्दी (4)

    विषय

    परमात्मा और जीवात्मा के स्वरूप का उपदेश।

    पदार्थ

    (यतः) जिस से (सूर्यः) सूर्य (उदेति) उदय होता है, (च) और (यत्र) जिस में (अस्तम्) अस्त को (गच्छति) प्राप्त होता है। (तत् एव) उसे ही (ज्येष्ठम्) ज्येष्ठ [सब से बड़ा] (अहम्) मैं (मन्ये) मानता हूँ, (तत् उ) उस से (किं चन) कोई भी (न अति एति) बढ़कर नहीं है ॥१६॥

    भावार्थ

    जिस परमात्मा से सृष्टिसमय में सूर्य आदि उत्पन्न होते और प्रलयकाल में वे सब जिसमें लय हो जाते हैं, उस महान् की उपासना सब लोग करें ॥१६॥

    टिप्पणी

    १६−(यतः) यस्मात् परमेश्वरात् (सूर्यः) (उदेति) उद्गच्छति (अस्तम्) अदर्शनम् (यत्र) यस्मिन् ब्रह्मणि (च) (गच्छति) प्राप्नोति (तत्) ब्रह्म (एव) (मन्ये) जानामि (अहम्) (ज्येष्ठम्) महत्तमम् (तत्) ब्रह्म (उ) पादपूरणे (न) निषेधे (अत्येति) अतिक्रामति (किम् चन) किमपि ॥

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    पदार्थ

    शब्दार्थ =  ( यतः ) = जिस परमात्मा की प्रेरणा से  ( सूर्य: ) = सूर्य  ( उदेति )  = उदय होता है  ( च ) = और  ( अस्तम् ) = अस्त को  ( यत्र ) = जिस में  ( गच्छति ) = प्राप्त होता है ।  ( तत् एव ) = उसको ही  ( ज्येष्ठम् ) = सब से बड़ा  ( अहम् मन्ये ) = मैं मानता हूं  ( तत् एव ) = उस को  ( किंचन ) =  कोई भी  ( नात्येति ) = उल्लंघन नहीं कर सकता । 

    भावार्थ

    भावार्थ = जिस सर्वशक्तिमान् जगदीश्वर ने यह तेजः पुञ्ज सूर्य उत्पन्न किया, जिस जगदीश्वर की प्रेरणा से यही सूर्य अस्त होता है, उस परमात्मा को ही मैं सब से श्रेष्ठ और सब से बड़ा मानता हूँ । ऐसे समर्थ प्रभु को कोई उल्लंघन नहीं कर सकता। उसकी आज्ञा में ही सारे सूर्य चन्द्र आदि सब लोक लोकान्तर वर्त्तमान हैं। उस परमात्मा को उल्लंघन करने की किसी की भी शक्ति नहीं है ।

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    विषय

    ज्येष्ठ [ब्रह्म]

    पदार्थ

    १. (यत:) = जिस प्रभु के द्वारा (सूर्यः उदेति) = यह सूर्य उदय को प्राप्त करता है, (यत्र च) = और जिस प्रभु के आधार में ही (अस्तं गच्छति) = अस्त होता है, (तत् एव) = उस प्रभु को ही (अहं ज्येष्ठ मन्ये) = मैं सर्वश्रेष्ठ जानता हूँ, (उ) = और (तत्) = उस ब्रह्म को (किञ्चन न अत्येति) = कुछ भी [कोई भी] लाँच नहीं पाता।

    भावार्थ

    प्रभु ही सूर्योदय व सूर्यास्त के-जगत् की उत्पत्ति च लय के आधार व मूलकारण हैं। वे प्रभु ही सर्वश्रेष्ठ हैं-उनसे अतिक्रमण करके कोई भी पदार्थ नहीं है [न तत्समोऽस्त्यभ्यधिक: कुत्तोऽन्यः]।

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    भाषार्थ

    (यतः) जहां से (सूर्यः) सूर्य (उदेति) उदित होता है (च) और (यत्र) जिसमें (अस्तम्, गच्छति) अस्त होता है (तद् एव) उसे ही (अहम्) मैं (ज्येष्ठम्) सर्वज्येष्ठ (मन्ये) मानता हूं, (तद् उ) उसे (किं चन) कोई पदार्थ (न अत्येति) ज्येष्ठता में अतिक्रान्त नहीं करता, अर्थात् ज्येष्ठता में उससे बढ़कर कोई पदार्थ नहीं।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Jyeshtha Brahma

    Meaning

    Whence the sun arises and wherein it goes to set, only That, I know and believe, is the highest, Supreme Brahma. That, no one can ever surpass.

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    Translation

    Wherefrom the Sun arises and wherein he sets (goes to his eternal home), that, indeed, I hold supreme; none whatsoever surpasses Him.

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    Translation

    I know Him the eternal Supreme Being where from the sun arises and whither it goes to set and nothing in the world can surpass Him.

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    Translation

    That, whence the Sun arises, that whither he goes to take his rest, that God verily I hold supreme: naught in the world surpasses Him.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १६−(यतः) यस्मात् परमेश्वरात् (सूर्यः) (उदेति) उद्गच्छति (अस्तम्) अदर्शनम् (यत्र) यस्मिन् ब्रह्मणि (च) (गच्छति) प्राप्नोति (तत्) ब्रह्म (एव) (मन्ये) जानामि (अहम्) (ज्येष्ठम्) महत्तमम् (तत्) ब्रह्म (उ) पादपूरणे (न) निषेधे (अत्येति) अतिक्रामति (किम् चन) किमपि ॥

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    बंगाली (1)

    পদার্থ

    য়তঃ সূর্য় উদেত্যস্তং য়ত্র চ গচ্ছতি। 

    তদেব মন্যে হং জ্যেষ্ঠং তদু নাত্যেতি কিং চন ।।২৯।।

    (অথর্ব ১০।৮।১৬)

    পদার্থঃ (য়তঃ) যে পরমাত্মার প্রেরণা থেকে (সূর্য়ঃ) সূর্য (উদেতি) উদয় হয় (চ) এবং (য়ত্র) যাঁর বিধানেই (অস্তম্) অস্ত (গচ্ছতি) প্রাপ্ত হয়, (তৎ এব) তাঁকেই (জ্যেষ্ঠম্) সবচেয়ে বড় হিসেবে (অহম্ মন্যে) আমি মানি। (তৎ উ) তাঁকে (কিঞ্চন) কেউই (নাত্যেতি) উল্লঙ্ঘন করতে পারে না।

     

    ভাবার্থ

    ভাবার্থঃ যে সর্বশক্তিমান জগদীশ্বর এই তেজপুঞ্জ সূর্য উৎপন্ন করেছেন, যে জগদীশ্বরের প্রেরণা হতে এই সূর্য অস্ত হয়, সেই পরমাত্মাকেই আমি সবচেয়ে শ্রেষ্ঠ আর সবচেয়ে বড় মানি। এমন সামর্থ্যবান ভগবানকে কেউ উল্লঙ্ঘন করতে পারে না। তাঁর আজ্ঞাতেই সূর্য চন্দ্রাদি সকল লোক লোকান্তর বর্তমান আছে। সেই পরমাত্মাকে উলঙ্ঘন করার শক্তি কারো নেই ।।২৯।।

     

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