अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 8/ मन्त्र 17
ऋषिः - कुत्सः
देवता - आत्मा
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - ज्येष्ठब्रह्मवर्णन सूक्त
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ये अ॒र्वाङ्मध्य॑ उ॒त वा॑ पुरा॒णं वेदं॑ वि॒द्वांस॑म॒भितो॒ वद॑न्ति। आ॑दि॒त्यमे॒व ते परि॑ वदन्ति॒ सर्वे॑ अ॒ग्निं द्वि॒तीयं॑ त्रि॒वृतं॑ च हं॒सम् ॥
स्वर सहित पद पाठये । अ॒र्वाङ् । मध्ये॑ । उ॒त । वा॒ । पु॒रा॒णम् । वेद॑म् । वि॒द्वांस॑म् । अ॒भित॑: । वद॑न्ति । आ॒दि॒त्यम् । ए॒व । ते । परि॑ । व॒द॒न्ति॒ । सर्वे॑ । अ॒ग्निम् । द्वि॒तीय॑म् । त्रि॒ऽवृत॑म् । च॒ । हं॒सम् ॥८.१७॥
स्वर रहित मन्त्र
ये अर्वाङ्मध्य उत वा पुराणं वेदं विद्वांसमभितो वदन्ति। आदित्यमेव ते परि वदन्ति सर्वे अग्निं द्वितीयं त्रिवृतं च हंसम् ॥
स्वर रहित पद पाठये । अर्वाङ् । मध्ये । उत । वा । पुराणम् । वेदम् । विद्वांसम् । अभित: । वदन्ति । आदित्यम् । एव । ते । परि । वदन्ति । सर्वे । अग्निम् । द्वितीयम् । त्रिऽवृतम् । च । हंसम् ॥८.१७॥
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
परमात्मा और जीवात्मा के स्वरूप का उपदेश।
पदार्थ
(ये) जो [विद्वान्] (अर्वाङ्) अवर [इस काल वा लोक] में, (मध्ये) मध्य में (उत वा) अथवा (पुराणम्) पुराने काल में [वर्तमान] (वेदम्) वेद के (विद्वांसम्) जाननेवाले [परमात्मा] को (अभितः) सब ओर से (वदन्ति) बखानते हैं, (ते सर्वे) वे सब [विद्वान्, उस] (आदित्यम्) खण्डनरहित [परमात्मा] को (एव) ही (अग्निम्) अग्नि [प्रकाशस्वरूप] (च) और (द्वितीयम्) दूसरा [दूसरे नामवाला] (त्रिवृतम्) तीनों [कर्म, उपासना और ज्ञान] को स्वीकार करनेवाला (हंसम्) हंस [सर्वव्यापक वा सर्वज्ञानी] (परि) निरन्तर (वदन्ति) बताते हैं ॥१७॥
भावार्थ
जो परमात्मा तीनों काल तीनों लोक में वर्तमान और सत्यज्ञानी है, उसको विवेकी जन वेदविहित कर्म, उपासना और ज्ञान से प्राप्त होकर मुक्तिसुख भोगते हैं ॥१७॥
टिप्पणी
१७−(ये) विद्वांसः (अर्वाङ्) अवरे देशे काले वा (मध्ये) (उत वा) अथवा (पुराणम्) अ० १०।७।२६। पुरातनकाले (वेदम्) अ० ७।२८।१। परमेश्वरज्ञानम् (विद्वांसम्) विदेः शतुर्वसुः। पा० ७।१।३। वेत्तेः शतुर्वसुरादेशो वा। विदन्तं जानन्तं परमेश्वरम् (अभितः) सर्वतः (वदन्ति) कथयन्ति (आदित्यम्) अ० १।९।१। दो अवखण्डने-क्तिन्। दितिः खण्डः, अदितिः अखण्डः। दित्यदित्यादित्य०। पा० ४।१।८५। अदिति-ण्य प्रत्ययो भवार्थे। खण्डरहितं परमेश्वरम् (एव) (ते) (विद्वांसः) (परि) सर्वतः (वदन्ति) (सर्वे) (अग्निम्) प्रकाशस्वरूपम् (द्वितीयम्) द्वितीयनाम्ना प्रसिद्धम् (त्रिवृतम्) त्रि+वृञ् वरणे-क्विप् तुक् च। त्रीणि कर्मोपासनाज्ञानानि वृणोति स्वीकरोतीति तम् (च) (हंसम्) अ० ६।१२।१। हन हिंसागत्योः-स। हन्ति गच्छतीति हंसः। सर्वव्यापकं परमात्मानम् ॥
विषय
आदित्य, अग्नि, हंस
पदार्थ
१. (ये) = जो वेदज्ञ (अर्वाङ्) = इस काल में, मध्ये मध्य में (उत वा) = और (पुराणम्) = पुराण काल में, अर्थात् सदा ही (वेदम्) = ज्ञान को (विद्वांसम्) = जाननेवाले ईश को (अभित:) = चारों ओर अथवा दिन के प्रारम्भ व अन्त में-दिन के दोनों ओर-प्रात:-सायं (वदन्ति) = वर्णित व स्तुत करते हैं, (ते सर्वे) = वे सब (आदित्यम् एव परिवदन्ति) = ज्ञानों का अपने में आदान करनेवाले प्रभु को ही कहते हैं। स्तोता लोग यही कहते हैं कि वे प्रभु सदा ही ज्ञानमय हैं-सम्पूर्ण ज्ञानों का आदान करनेवाले वे प्रभु'सूर्यसम ज्योति' ही तो हैं 'ब्रह्म सूर्यसमं ज्योतिः'। २. वे स्तोता उस प्रभु को (द्वितीयम्) = [द्वयोः पूरणः] जीव व प्रकृति दोनों का पूरण करनेवाला और (अग्निम्) = अग्रणी प्रतिपादित करते हैं, (च) = तथा वे प्रभु को (त्रिवृतम्) = [त्रिषु वर्तते] तीनों कालों व तीनों लोकों में सदा सर्वत्र वर्तमान (हंसम्) = [हन्ति] पापों का विनाशक कहते हैं। प्रभु की सर्वव्यापकता का स्मरण हमें पापों से बचाता है।
भावार्थ
प्रभु सदा ही ज्ञानस्वरूप हैं। हम प्रातः-सायं प्रभु का इस रूप में स्मरण करें कि वे सब ज्ञानों का अपने में आदान करनेवाले 'आदित्य' हैं, प्रकृति व जीव का पूरण करनेवाले वे प्रभु हमें आगे ले-चलनेवाले 'अग्नि' हैं, सदा सर्वत्र वर्तमान वे प्रभु हमें पापों से बचानेवाले हमारी पापवृत्तियों को नष्ट करनेवाले 'हंस' है।
भाषार्थ
(अर्वाङ्) अर्वाक् काल में, (मध्ये) मध्यवर्ती काल में, (उत वा) अथवा (पुराणम्) पुराकाल में (ये) जो [वेदवेत्ता विद्वान्] (वेदं विद्वांसम्) वेदवेत्ता परमेश्वर का (अभितः) सब ओर (वदन्ति) कथन करते हैं, (ते) वे (सर्वे) सब (आदित्यम् एव) आदित्य नाम वाले परमेश्वर का ही (द्वितीयम्, अग्निम्) और द्वितीय अग्नि नाम वाले परमेश्वर का (च) तथा (त्रिवृतम्) तीसरे (हंसम्) हंस नाम वाले परमेश्वर का (परिवदन्ति) सब ओर कथन करते हैं।
टिप्पणी
[स्कम्भ नामवाले परमेश्वर को "वेदं विद्वांसम्" द्वारा वेदवेत्ता कहा है। "आदित्य और अग्नि" परमेश्वर के नाम हैं (यजु० ३२।१)। हंस भी परमेश्वर का नाम है। यथा "हंसः शुचिषद् वसुः" (यजु० १०।२४; १२।१४)। हंसः = हन्ति अविद्यान्धकारम्; हन्ति क्लेशान् सः]।
इंग्लिश (4)
Subject
Jyeshtha Brahma
Meaning
Those who all round speak of the direct, present, middling and the ancient and external omniscient Brahma as One, Agni, the light of life, or second as Purusha and Prakrti, or third as Purusha, Prakrti and Jivatma, or as Hansa, the omnipresent spirit of the universe, all speak of the same one Aditya, eternal, imperishable Brahma.
Translation
They, who describe the knower of all this is to be known as recent, medieval or ancient, all of them describe only the Sun, the second and the threefold swan (hamsam).
Translation
Those who in present time, in before time and in ancient time laudly speaks of the Intelligent Being revealing the Veda really speaks first the Aditya, the Indivisible God, secondly Agni, the Self-refulgent God and thirdly Hansam, the Supreme spirit free of all inflictions and possessed of the trio of operation—the creation, subsistence and dissolution.
Translation
Those who in recent, mediaeval, or ancient times, on all sides greet God, the knower of the Veda, one and all, verily, discuss God, the Absorber of this universe. Next to Him they discuss the learned emancipated soul. Thirdly they discuss the ordinary soul subject to transmigration, bound by tri-attributed Matter.
Footnote
Tri-attributed: Possessing the attributes of Satva, Rajasa, Tamasa.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१७−(ये) विद्वांसः (अर्वाङ्) अवरे देशे काले वा (मध्ये) (उत वा) अथवा (पुराणम्) अ० १०।७।२६। पुरातनकाले (वेदम्) अ० ७।२८।१। परमेश्वरज्ञानम् (विद्वांसम्) विदेः शतुर्वसुः। पा० ७।१।३। वेत्तेः शतुर्वसुरादेशो वा। विदन्तं जानन्तं परमेश्वरम् (अभितः) सर्वतः (वदन्ति) कथयन्ति (आदित्यम्) अ० १।९।१। दो अवखण्डने-क्तिन्। दितिः खण्डः, अदितिः अखण्डः। दित्यदित्यादित्य०। पा० ४।१।८५। अदिति-ण्य प्रत्ययो भवार्थे। खण्डरहितं परमेश्वरम् (एव) (ते) (विद्वांसः) (परि) सर्वतः (वदन्ति) (सर्वे) (अग्निम्) प्रकाशस्वरूपम् (द्वितीयम्) द्वितीयनाम्ना प्रसिद्धम् (त्रिवृतम्) त्रि+वृञ् वरणे-क्विप् तुक् च। त्रीणि कर्मोपासनाज्ञानानि वृणोति स्वीकरोतीति तम् (च) (हंसम्) अ० ६।१२।१। हन हिंसागत्योः-स। हन्ति गच्छतीति हंसः। सर्वव्यापकं परमात्मानम् ॥
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