अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 8/ मन्त्र 30
ऋषिः - कुत्सः
देवता - आत्मा
छन्दः - भुरिक्त्रिष्टुप्
सूक्तम् - ज्येष्ठब्रह्मवर्णन सूक्त
3
ए॒षा स॒नत्नी॒ सन॑मे॒व जा॒तैषा पु॑रा॒णी परि॒ सर्वं॑ बभूव। म॒ही दे॒व्युषसो॑ विभा॒ती सैके॑नैकेन मिष॒ता वि च॑ष्टे ॥
स्वर सहित पद पाठए॒षा । स॒नत्नी॑ । सन॑म् । ए॒व । जा॒ता । ए॒षा । पु॒रा॒णी । परि॑ । सर्व॑म् । ब॒भू॒व॒ । म॒ही । दे॒वी । उ॒षस॑: । वि॒ऽभा॒ती । सा । एके॑नऽएकेन । मि॒ष॒ता । वि । च॒ष्टे॒ ॥८.३०॥
स्वर रहित मन्त्र
एषा सनत्नी सनमेव जातैषा पुराणी परि सर्वं बभूव। मही देव्युषसो विभाती सैकेनैकेन मिषता वि चष्टे ॥
स्वर रहित पद पाठएषा । सनत्नी । सनम् । एव । जाता । एषा । पुराणी । परि । सर्वम् । बभूव । मही । देवी । उषस: । विऽभाती । सा । एकेनऽएकेन । मिषता । वि । चष्टे ॥८.३०॥
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
परमात्मा और जीवात्मा के स्वरूप का उपदेश।
पदार्थ
(एषा) यह [शक्ति अर्थात् परमेश्वर] (सनम् एव) सदा से ही (सनत्नी) भक्तों की नेत्री [आगे बढ़ानेवाली] (जाता) प्रसिद्ध है, (एषा) इस (पुराणी) पुरानी से (सर्वम्) सब [जगत्] को (परिबभूव) घेर लिया है। (उषसः) प्रभात वेलाओं को (विभाती) प्रकाशित करनेवाली (सा) वह (मही) बड़ी (देवी) देवी [दिव्य शक्ति] (एकेनैकेन) एक-एक (मिषता) पलक मारने से [सबको] (वि चष्टे) देखती रहती है ॥३०॥
भावार्थ
महान् शक्ति परमात्मा सर्वव्यापक और सर्वप्रकाशक होकर अपने भक्तों की बढ़ती करता और समस्त संसार की सुधि रखता है ॥३०॥
टिप्पणी
३०−(एषा) प्रसिद्धा (सनत्नी) वर्तमाने पृषद्बृहन्महज्०। उ० २।८४। षण संभक्तौ-अति+णीञ् प्रापणे ड, ङीप्। सनतां भक्तानां नेत्री (सनम्) सदा (एव) (जाता) प्रसिद्धा (एषा) (पुराणी) अ० १०।७।२६। पुराण ङीप्। पुरातनी (सर्वम्) जगत् (परि बभूव) व्याप (मही) महती (देवी) दिव्यगुणा (उषसः) प्रभातवेलाः (विभाती) अन्तर्गतण्यर्थः। विभापयन्ती। प्रकाशयन्ती (सा) शक्तिः (एकेनैकेन) प्रत्येकेन (मिषता) वर्तमाने पृषद्बृहन्महज्०। उ० २।८४। मिष स्पर्धायाम्-अति। निमिषेण। चक्षुर्मुद्रेण (वि चष्टे) विशेषेण पश्यति ॥
विषय
सनत्नी-पुराणी
पदार्थ
१. (एषा) = यह प्रभु-शक्ति (सनत्नी) = [सन् संभक्ती, नी] सम्भजनशील पुरुषों का प्रणयन [आगे ले-चलना] करनेवाली (सनम् एव) = जाता-सदा से ही प्रसिद्ध है। (एषा पुराणी) = यह सनातन काल से चली आ रही शक्ति (सर्वं परिबभूव) = सबको व्याप्त किये हुए है। २. (सा मही) = वह महनीय [ पूजनीय] (देवी) = प्रकाशमयी शक्ति (उषस:) = उषाकालों को (विभाती) = प्रकाशित करती हुई (एकेन एकेन मिषता) = प्रत्येक निमेषोन्मेषवाले प्राणी के द्वारा विचष्टे-देखती है। सब प्राणियों को दर्शन आदि की शक्ति प्राप्त करानेवाली वह 'सनत्नी पुराणी' शक्ति ही है।
भावार्थ
प्रभु-शक्ति ही भक्तों का प्रणयन करनेवाली है, यही सबमें व्याप्त हो रही है। यही उषाकालों को प्रकाशित करती है-यही सब प्राणियों को दर्शनादि की शक्ति देती है।
भाषार्थ
(एषा) यह (सनत्नी) सनातनी (सनम् एव) सदा ही (जाता) सृष्टि में प्रकट होती है (एषा) यह (पुराणी) पुराकाल से विद्यमान है, अनादि है (सर्वम्) सब को (परिबभूव) इसने सब ओर से घेरा हुआ है। (मही देवी) यह महती देवी (उषसः) उषाओं को (विभाती) दीप्त करती है, चमकाती है। (सा) वह (एकेन-एकेन) एक-एक (मिषता) उन्मेष द्वारा (विचष्टे) विविध जगत् को देख लेती है।
टिप्पणी
[मिषता = आंख के उन्मेष द्वारा। परिषिच्यते (२९) और परिबभूव (३०) में "परि" का भाव है सब ओर]।
इंग्लिश (4)
Subject
Jyeshtha Brahma
Meaning
This power and presence is eternal. It has existed since eternity and it will exist eternally. It is immeasurably ancient and comprehends everything. This Almighty Power illuminates the dawns, and, moment by moment, it watches all that winks and wakes and sleeps.
Translation
She is eternal indeed, eternal by birth. She, the ancient, has subdued all. Mighty deity of dawns, shining bright, she appears with each and every one, that winks.
Translation
This eternal Prakriti (matter in subtle state) ever makes itself manifest (by assuming various shapes and figures). This eternal substance pervades all the objects of the world. This great and luminous and makes manifest all the desirable objects. If reveals itself in various ways to every active soul.
Translation
God, from times immemorial, is known as the Leader of the devotees. This Primordial God pervades the entire universe. The Mighty God illumines all the Dawns, and looks all in the twinkling of an eye.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
३०−(एषा) प्रसिद्धा (सनत्नी) वर्तमाने पृषद्बृहन्महज्०। उ० २।८४। षण संभक्तौ-अति+णीञ् प्रापणे ड, ङीप्। सनतां भक्तानां नेत्री (सनम्) सदा (एव) (जाता) प्रसिद्धा (एषा) (पुराणी) अ० १०।७।२६। पुराण ङीप्। पुरातनी (सर्वम्) जगत् (परि बभूव) व्याप (मही) महती (देवी) दिव्यगुणा (उषसः) प्रभातवेलाः (विभाती) अन्तर्गतण्यर्थः। विभापयन्ती। प्रकाशयन्ती (सा) शक्तिः (एकेनैकेन) प्रत्येकेन (मिषता) वर्तमाने पृषद्बृहन्महज्०। उ० २।८४। मिष स्पर्धायाम्-अति। निमिषेण। चक्षुर्मुद्रेण (वि चष्टे) विशेषेण पश्यति ॥
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