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अथर्ववेद के काण्ड - 10 के सूक्त 8 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 8/ मन्त्र 2
    ऋषिः - कुत्सः देवता - आत्मा छन्दः - बृहतीगर्भानुष्टुप् सूक्तम् - ज्येष्ठब्रह्मवर्णन सूक्त
    1

    स्क॒म्भेने॒मे विष्ट॑भिते॒ द्यौश्च॒ भूमि॑श्च तिष्ठतः। स्क॒म्भ इ॒दं सर्व॑मात्म॒न्वद्यत्प्रा॒णन्नि॑मि॒षच्च॒ यत् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स्क॒म्भेन॑ । इ॒मे इति॑ । विस्त॑भिते॒ इति॒ विऽस्त॑भिते । द्यौ: । च॒ । भूमि॑: । च॒ । ति॒ष्ठ॒त॒: । स्क॒म्भे । इ॒दम् । सर्व॑म् । आ॒त्म॒न्ऽवत् । यत् । प्रा॒णत् । नि॒ऽमि॒षत् । च॒ । यत् ॥८.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स्कम्भेनेमे विष्टभिते द्यौश्च भूमिश्च तिष्ठतः। स्कम्भ इदं सर्वमात्मन्वद्यत्प्राणन्निमिषच्च यत् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    स्कम्भेन । इमे इति । विस्तभिते इति विऽस्तभिते । द्यौ: । च । भूमि: । च । तिष्ठत: । स्कम्भे । इदम् । सर्वम् । आत्मन्ऽवत् । यत् । प्राणत् । निऽमिषत् । च । यत् ॥८.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 8; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    परमात्मा और जीवात्मा के स्वरूप का उपदेश।

    पदार्थ

    (स्कम्भेन) स्कम्भ [धारण करनेवाले परमात्मा] करके (विष्टमिते) विविध प्रकार थाँभे गये (इमे) यह दोनों (द्यौः) सूर्य (च च) और (भूमि) भूमि (तिष्ठतः) स्थित हैं। (स्कम्भे) स्कम्भ [परमेश्वर] में (इदम्) यह (सर्वम्) सब (आत्मन्वत्) आत्मावाला [जगत्] वर्तमान है, (यत्) जो कुछ (प्राणत्) श्वास लेता हुआ [चैतन्य] (च) और (यत्) जो (निमिषत्) आँखें मूँदे हुए [जड़] है ॥२॥

    भावार्थ

    परमेश्वर के सामर्थ्य से आकर्षण द्वारा सूर्य, पृथिवी आदि लोक अपने-अपने स्थान पर और आत्मावाला जङ्गम और स्थावर जगत् वर्तमान है ॥२॥

    टिप्पणी

    २−(स्कम्भेन) अ० १०।७।२। सर्वधारकेण परमेश्वरेण (इमे) दृश्यमाने (विष्टभिते) विविधं धारिते (द्यौः) सूर्यः) (च च) (भूमि) (तिष्ठतः) वर्तेते (स्कम्भे) (इदम्) (सर्वम्) (आत्मन्वत्) अ० ४।१०।७। आत्मना जीवेन युक्तं जगत् (यत्) (प्राणत्) श्वसत् (निमिषत्) निमेषणं चक्षुर्मुद्रणं कुर्वत् (च) (यत्) ॥

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    विषय

    स्कम्भ [ब्रह्मा]

    पदार्थ

    १. प्रभु सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के आधारभूत स्कम्भ हैं। उस (स्कम्भेन) = सर्वाधार स्कम्भभूत प्रभु के द्वारा (विष्टभिते) = विशेषरूप से थामे हुए (इमे) = ये (द्यौः च भूमिः च) = द्युलोक और पृथिवीलोक (तिष्ठत:) = स्थित हैं। (इदम्) = यह (सर्वम्) = सब (आत्मन्यत्) = आत्मावाला, (यत् प्राणत्) = जो प्राण धारण कर रहा है-श्वासोच्छ्वास ले-रहा है [चर] (यत् च निमिषत्) = और जो आँखे बन्द किये हुए पड़ा है, यह सब जगत् (स्कम्भे) = उस सर्वाधार प्रभु में ही आश्रित है।

    भावार्थ

    प्रभु धुलोक व पृथिवीलोक को धारण कर रहे हैं। सब प्राणी-यह चराचर जगत्-उस प्रभु के ही आधार में है।

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    भाषार्थ

    (इमे) ये (द्यौः च, भूमिः च) द्युलोक और भूमि (स्कम्भेन) स्कम्भ द्वारा (विष्टभिते) अलग-अलग थामे हुए (तिष्ठतः) स्थित है। (स्कम्भे) स्कम्भ में (इदं सर्वम) यह सब जगत् है जो कि (आत्मन्वत्) आत्मा वाला है, (यत्) अर्थात् जो कि (प्राणत्) प्राणधारी है (यत् च) और जो (निमिषत्) निमैषोन्मेष क्रिया कर रहा है।

    टिप्पणी

    [सब जगत् और प्राणधारी तथा निमेषोन्मेष करने वाले उच्चप्राणी स्कम्भ के आश्रय में हैं]।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Jyeshtha Brahma

    Meaning

    Both these, heaven and earth, hold fast in place, stabilised in orbit by Skambha, centre-hold of the universe. All this living existence that’s breathing, waking, winking and sleeping is stabilised in Skambha.

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    Translation

    These two, the sky and the earth, stand fast fixed apart by the Skambha (the support of the universe): All this, which has soul and which breaths and which winks, verily is in the Skambha itself.

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    Translation

    These two, the earth and the heavenly region standfast upheld by the All-supporting God. Whatever ix herein this world as animate and what (unanimate) whatever breaths and whatever does not breath, rest on All-supporting God.

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    Translation

    Upheld by God’s power these two, the heaven and the earth, stand fast. All this world of life, whatever breathes or shuts an eye, rests in God.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २−(स्कम्भेन) अ० १०।७।२। सर्वधारकेण परमेश्वरेण (इमे) दृश्यमाने (विष्टभिते) विविधं धारिते (द्यौः) सूर्यः) (च च) (भूमि) (तिष्ठतः) वर्तेते (स्कम्भे) (इदम्) (सर्वम्) (आत्मन्वत्) अ० ४।१०।७। आत्मना जीवेन युक्तं जगत् (यत्) (प्राणत्) श्वसत् (निमिषत्) निमेषणं चक्षुर्मुद्रणं कुर्वत् (च) (यत्) ॥

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