अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 8/ मन्त्र 44
ऋषिः - कुत्सः
देवता - आत्मा
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - ज्येष्ठब्रह्मवर्णन सूक्त
3
अ॑का॒मो धीरो॑ अ॒मृतः॑ स्वयं॒भू रसे॑न तृ॒प्तो न कुत॑श्च॒नोनः॑। तमे॒व वि॒द्वान्न बि॑भाय मृ॒त्योरा॒त्मानं॒ धीर॑म॒जरं॒ युवा॑नम् ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒का॒म: । धीर॑: । अ॒मृत॑: । स्व॒य॒म्ऽभू: । रसे॑न । तृ॒प्त: । न । कुत॑:। च॒न । ऊन॑: । तम् । ए॒व । वि॒द्वान् । न । बि॒भा॒य॒ । मृ॒त्यो: । आ॒त्मान॑म् । धीर॑म् । अ॒जर॑म् । युवा॑नम् ॥८.४४॥
स्वर रहित मन्त्र
अकामो धीरो अमृतः स्वयंभू रसेन तृप्तो न कुतश्चनोनः। तमेव विद्वान्न बिभाय मृत्योरात्मानं धीरमजरं युवानम् ॥
स्वर रहित पद पाठअकाम: । धीर: । अमृत: । स्वयम्ऽभू: । रसेन । तृप्त: । न । कुत:। चन । ऊन: । तम् । एव । विद्वान् । न । बिभाय । मृत्यो: । आत्मानम् । धीरम् । अजरम् । युवानम् ॥८.४४॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
परमात्मा और जीवात्मा के स्वरूप का उपदेश।
पदार्थ
(अकामः) निष्काम, (धीरः) धीर [धैर्यवान्] (अमृतः) अमर, (स्वयंभूः) अपने आप वर्तमान वा उत्पन्न, (रसेन) रस [वीर्य वा पराक्रम] से (तृप्तः) तृप्त अर्थात् परिपूर्ण [परमात्मा] (कुतः चन) कहीं से भी (ऊनः) न्यून (न) नहीं है। (तम् एव) उस ही (धीरम्) धीर [बुद्धिमान्], (अजरम्) अजर [अक्षय], (युवानम्) युवा [महाबली] (आत्मानम्) आत्मा [परमात्मा] को (विद्वान्) जानता हुआ पुरुष (मृत्योः) मृत्यु [मरण वा दुःख] से (न) नहीं (बिभाय) डरा है ॥४४॥
भावार्थ
जो मनुष्य निष्काम, बुद्धिमान्, धैर्यवान् आदि गुण विशिष्ट परमात्मा को जान लेते हैं, वे परोपकारी धीर वीर पुरुष मृत्यु वा विपत्ति से निर्भय होकर आनन्द भोगते हैं ॥४४॥ इति चतुर्थोऽनुवाकः ॥
टिप्पणी
४४−(अकामः) निष्कामः। स्वप्रयोजनत्यागी (धीरः) अ० २।३५।३। धीरो धीमान्-निरु० ३।१२। धीराः प्रज्ञावन्तो ध्यानवन्तः-निरु० ४।१०। धैर्यवान्। मेधावी (अमृतः) अमरः (स्वयम्भूः) स्वयम्+भू-क्विप्। स्वयं वर्तमानः। स्वयमुत्पन्नः (रसेन) वीर्येण। पराक्रमेण (तृप्तः) सन्तुष्टः। परिपूर्णः (न) निषेधे (कुतः) (चन) अपि (ऊनः) हीनः (तम्) (एव) (विद्वान्) जानन् पुरुषः (न) निषेधे (बिभाय) भयं प्राप (मृत्योः) मरणात् (आत्मानम्) परमात्मानम् (धीरम्) धीमन्तम् (अजरम्) अक्षयम् (युवानम्) महाबलिनम् ॥
पदार्थ
शब्दार्थ = ( अकामः ) = प्रभु सब कामनाओं से रहित हैं, ( धीरः ) = धीर, बुद्धि के प्रेरक हैं ( अमृत: ) = अमर हैं, ( स्वयं भवतीति स्वयम्भू ) = आप ही होते हैं किसी से उत्पन्न होकर सत्ता को नहीं प्राप्त होते अर्थात् अजन्मा हैं ( रसेन तृप्त : ) = आनन्द से तृप्त हैं ( न कुतः च न ऊनः ) = किसी से भी न्यून नहीं हैं। ( तम् धीरम् अजरम् युवानम् आत्मानम् ) = उस धीर जरा रहित युवा आत्मा आप प्रभु को ( विद्वान् एव ) = जाननेवाला ही ( मृत्योः न बिभाय ) = मृत्यु से नहीं डरता ।
भावार्थ
भावार्थ = हे भयहारिन् परमात्मन्! आप अकाम, धीर, अमर और अजन्मा हैं सदा आनन्द से तृप्त हैं, आप में कोई न्यूनता नहीं है। आप जो कि धीर, अजर, युवा, अर्थात् सदा एक रस आत्मा को जाननेवाला महात्मा ही, मृत्यु से कभी नहीं डरता। आप निर्भय हैं, आपको जानने वा माननेवाला महापुरुष भी निर्भय हो जाता है ।
विषय
'अजर-धीर-युवा' प्रभु
पदार्थ
१. ब्रह्मज्ञानी उस प्रभु को इस रूप में जानता है कि वे प्रभु (अकामः) = सब प्रकार की कामनाओं से रहित हैं। वे (धीरः) = [धिया ईत] बुद्धिपूर्वक गतिवाले हैं-उनकी सब कृतियाँ बुद्धिपूर्वक होने से पूर्ण हैं। वे (अमृत:) = अविनाशी हैं, (स्वयम्भः) = सदा से स्वयं होनेवाले हैं उनका कोई कारण नहीं है-वे कारणों के भी कारण हैं। (रसेन तृप्तः) = वे रस से तृप्त है-रसरूप हैं 'रसो वै सः'। (कुतश्चन ऊनः न) = किसी भी दृष्टिकोण से न्यून नहीं हैं-वे पूर्ण-ही-पूर्ण हैं। २. (तम्) = उन (धीरम्) = बुद्धिपूर्वक गतिवाले (अजरम्) = कभी जीर्ण न होनेवाले (युवानम्) = नित्य तरुण अथवा बुराइयों का अमिश्रण व अच्छाइयों का मिश्रण करनेवाले (आत्मानम्) = परमात्मा को (विद्वान् एव) = जानता हुआ ही पुरुष (मृत्योः न बिभाय) = मृत्यु से भयभीत नहीं होता-वह जन्ममरण के चक्र से मुक्त होकर मोक्षलाभ करता है।
भावार्थ
वे प्रभु 'अकाम, धीर, अमृत, स्वयम्भू, अजर व युवा' हैं। रस से तृप्त व न्यूनता से रहित हैं। उन प्रभु को जानकर मनुष्य मृत्यु-मुख से मुक्त हो जाता है। यह भी 'अकाम, धीर, अजर व युवा' बनने का यत्न करता है।
भाषार्थ
परमेश्वर (अकामः) कामना रहित है (धीरः) प्रज्ञावान् (अमृतः) मृत्युरहित (स्वयंभूः) स्वयं सत्तावान् अर्थात् स्वाश्रित, (रसेन) आनन्द रस द्वारा (तृप्तः) तृप्त, (कुतश्चन) किसी दृष्टि से (न ऊनः) न्यून नहीं। (आत्मानम्) आत्मारूप (धीरम्) प्रज्ञावान् या धैर्यवान् (अजरम्) जरारहित, (युवानम्) सदा युवा (तम एव) उस परमेश्वर को ही (विद्वान्) जानता हुआ व्यक्ति, (मृत्योः) मृत्यु से (न बिभाय) भयभीत नहीं होता।
टिप्पणी
[धीरः="धी प्रज्ञावान्" (निघं० ३।९) +र (मत्वर्थीयः), तथा धैर्यवान्। धैर्यवान् इसलिये कि वह पापी को तत्काल उग्र दण्ड नहीं देता अपितु तप्संस्कार रूप में दण्ड देता है। आत्मानम्= वह सदा आत्मस्वरूप में रहता है, काय को धारण नहीं करता। परमेश्वरज्ञ व्यक्ति मृत्यु से भयभीत नहीं होता, क्योंकि शरीर त्याग के पश्चात् उसने परमेश्वर के आनन्दरस का पान करना है]।
इंग्लिश (4)
Subject
Shataudana Cow
Meaning
Beyond desire, constantly calm and resolute, immortal, self-existent, is all-supreme, self-blest with the beauty and sweetness of his own creation, Brhad- Brahma no-way wanting or imperfect. Having realised and attained to that constant, unaging, eternally young and ever new Suprer-Soul, the sagely scholar, self- realised, never fears death. This is a hymn to the divine Mother that sustains her children with material, intellectual and spiritual food for survival and progress without, of course, ruling out ‘the cow’. ‘The Cow’ is a metaphor for the divine Cow: the earth, sunlight, Prakrti itself, Veda-vani and others and their gifts.
Translation
Free from desire, self-possessed, immortal, self-existing, contented with bliss and lacking nothing in any respect (is he): knowing him alone, the self-possessed, undecaying and ever-young self, let one never have any fear of death.
Translation
That Universal Soul is without desire of any worldly attainments, firm, immortal, self-existent contented with His own blessedness and He is backing nothing (for His perfection)but completely perfect. The man who knows this Universal soul as firm, undecaying and ever young or mature, does not fear death.
Translation
Free from the fear of Death is he, who knoweth the Desireless, Firm, Immortal, Self-existent, Joyful, Lacking nothing, Courageous, Undecaying, and Powerful God.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
४४−(अकामः) निष्कामः। स्वप्रयोजनत्यागी (धीरः) अ० २।३५।३। धीरो धीमान्-निरु० ३।१२। धीराः प्रज्ञावन्तो ध्यानवन्तः-निरु० ४।१०। धैर्यवान्। मेधावी (अमृतः) अमरः (स्वयम्भूः) स्वयम्+भू-क्विप्। स्वयं वर्तमानः। स्वयमुत्पन्नः (रसेन) वीर्येण। पराक्रमेण (तृप्तः) सन्तुष्टः। परिपूर्णः (न) निषेधे (कुतः) (चन) अपि (ऊनः) हीनः (तम्) (एव) (विद्वान्) जानन् पुरुषः (न) निषेधे (बिभाय) भयं प्राप (मृत्योः) मरणात् (आत्मानम्) परमात्मानम् (धीरम्) धीमन्तम् (अजरम्) अक्षयम् (युवानम्) महाबलिनम् ॥
बंगाली (1)
পদার্থ
অকামো ধীরো অমৃতঃ স্বয়ম্ভূ রসেন তৃপ্তো ন কুতশ্চনোনঃ।
তমেব বিদ্বান্ন বিভায় মৃত্যোরাত্মানং ধীরমজরং য়ুবানম্ ।।১৯।।
(অথর্ব ১০।৮।৪৪)
পদার্থঃ (অকামঃ) তিনি সমস্ত কামনারহিত, (ধীরঃ) ধীর, বুদ্ধির প্রেরক, (অমৃতঃ) অমর, (স্বয়ম্ভূঃ) নিজ হতেই বর্তমান অর্থাৎ জন্মরহিত, (রসেন তৃপ্তঃ) আনন্দে তৃপ্ত, (ন কুতঃ চ ন ঊনঃ) কোনোকিছু থেকেই কম নও। (তম্ ধীরম্ অজরম্ য়ুবানম্ আত্মানম্) সেই ধীর জরারহিত সদা তরুণ পরমাত্মাকে (বিদ্বান্ এব) যে জানে, সেই ব্যক্তি (মৃত্যোঃ ন বিভায়) মৃত্যুতে কখনো ভয় পায় না।
ভাবার্থ
ভাবার্থঃ হে ভয়হারী পরমাত্মা! তুমি কামনারহিত, ধীর, অমর ও জন্মরহিত। তুমি সদা আনন্দে তৃপ্ত, তোমাতে কোন ন্যূনতা নেই। তুমি ভয়হীন, তোমাকে যে জানে বা মানে সেই মহাপুরুষও নির্ভয় হয়ে যায় ।।১৯।।
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