अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 8/ मन्त्र 5
ऋषिः - कुत्सः
देवता - आत्मा
छन्दः - भुरिगनुष्टुप्
सूक्तम् - ज्येष्ठब्रह्मवर्णन सूक्त
1
इ॒दं स॑वित॒र्वि जा॑नीहि॒ षड्य॒मा एक॑ एक॒जः। तस्मि॑न्हापि॒त्वमि॑च्छन्ते॒ य ए॑षा॒मेक॑ एक॒जः ॥
स्वर सहित पद पाठइ॒दम् । स॒वि॒त॒: । वि । जा॒नी॒हि॒ । षट् । य॒मा: । एक॑: । ए॒क॒ऽज: । तस्मि॑न् । ह॒ । अ॒पिऽत्वम् । इ॒च्छ॒न्ते॒ । य: । ए॒षा॒म् । एक॑: । ए॒क॒ऽज: ॥८.५॥
स्वर रहित मन्त्र
इदं सवितर्वि जानीहि षड्यमा एक एकजः। तस्मिन्हापित्वमिच्छन्ते य एषामेक एकजः ॥
स्वर रहित पद पाठइदम् । सवित: । वि । जानीहि । षट् । यमा: । एक: । एकऽज: । तस्मिन् । ह । अपिऽत्वम् । इच्छन्ते । य: । एषाम् । एक: । एकऽज: ॥८.५॥
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
परमात्मा और जीवात्मा के स्वरूप का उपदेश।
पदार्थ
(सवितः) हे ऐश्वर्यवान् [विद्वान् !] (इदम्) इस [बात] को (वि जानीहि) विज्ञानपूर्वक जान [कि] (षट्) छह (यमाः) यम [नियम से चलने चलानेवाले पाँच ज्ञानेन्द्रिय और एक मन] और (एकः) एक [जीवात्मा] (एकजः) [अपने कर्मानुसार] अकेला उत्पन्न होनेवाला है। (तस्मिन्) उस [जीवात्मा] में (ह) ही (अपित्वम्) बन्धुपन को (इच्छन्ते) वे [छह इन्द्रिय] प्राप्त करते हैं, (यः) जो [जीवात्मा] (एषाम्) इन [छह] के बीच (एकः) एक (एकजः) अकेला उत्पन्न होनेवाला है ॥५॥
भावार्थ
मनुष्य को खोजना चाहिये कि इस शरीर में कौन से शुभ और अशुभ संस्कारों के कारण जीवात्मा के साथ पाँच ज्ञानेन्द्रिय अर्थात् कान, त्वचा, नेत्र, जिह्वा नासिका और छठे मन का संबन्ध है ॥५॥
टिप्पणी
५−(इद्रम्) वाक्यम् (सवितः) ऐश्वर्यवन् विद्वन् (वि) विशेषेण (जानीहि) (षट्) (यमाः) पञ्चज्ञानेन्द्रियाणि षष्ठं मनः (एकः) जीवात्मा (एकजः) एक एव जातः (तस्मिन्) जीवात्मनि (ह) एव (अपित्वम्) इणजादिभ्यः। वा० पा० ३।३।१०८। आप्लृ व्याप्तौ-इण्। छान्दसो ह्रस्वः। आपित्वम्। बन्धुत्वम् (इच्छन्ते) कामयन्ते (यः) जीवात्मा (एषाम्) यमानां मध्ये। अन्यत् पूर्ववत् ॥
विषय
षड् यमा:-एका एकजः
पदार्थ
१.हे (सवितः) = अपने अन्दर सोम का सवन करनेवाले जीव ! (इदं विजानीहि) = तू यह समझ ले कि (षड्) = पाँच ज्ञानेन्द्रिय और एक मन-ये छह तो (यमाः) = यम हैं-परस्पर जोड़े के रूप में रहनेवाले हैं। अकेली आँख नहीं देखती, मन से मिलकर ही देखनेवाली बनती है। इसी प्रकार कान आदि भी मन से मिलकर ही अपना कार्य कर पाते हैं। (एक:) = एक आत्मा (एकज:) = अकेला ही शरीर में प्रादुर्भूत हुआ करता है। ('एकः प्रजायते जन्तु एक एव विलीयते')। २. (य:) = जो यह (एषाम्) = इन्द्रियों आदि में (एक:) =एक जीव (एकज:) = अकेला ही प्रादुर्भूत होनेवाला है, (तस्मिन् ह) = उसमें ही निश्चय से ये इन्द्रियाँ व मन (आपित्वम्) = मित्रता को (इच्छन्ते) = चाहते हैं। उस आत्मतत्त्व की मित्रता में ही इन सबका कार्य चलता है। उसके शरीर को छोड़ते ही ये सब भी शरीर को छोड़ जाते हैं।
भावार्थ
पाँच ज्ञानेन्द्रियों और छठा मन-ये सब मिलकर ही कार्य करनेवाले हैं। जीव अकेला ही संसार में जन्म लेता है, अकेला ही विलीन होता है। इस 'एकज' आत्मा में ही इन्द्रियाँ व मन मित्रता को चाहते हैं। उसके शरीर में आने पर ये शरीर में आते हैं, उसके छोड़ जाने पर ये भी शरीर को छोड़ जाते है।
भाषार्थ
(सवितः) हे सविता ! (इदम्) इसे (विजानीहि) तू जान कि (षड् यमाः) ६ हैं जगत् के नियामक नियन्ता (एकः) इन में से एक है (एकजः) एक से पैदा हुआ। (तस्मिन्) उस एकज में [शेष ३] (ह) ही (अपित्वम्) लय होना (इच्छन्ते) चाहते हैं (यः) जो कि (एषाम्) इस में से (एकः) एक (एकजः) एकज है।
टिप्पणी
["सवितः” से कोई जिज्ञासु व्यक्ति प्रतीत होता है। यमाः = नियामक। ५ भूत और "महान् आत्मा" अर्थात् परमेश्वर, भौतिक जगत् के नियामक हैं। इन्हीं ६ द्वारा भौतिक जगत् उत्पन्न होता है। अतः ये ६ भौतिक जगत् के यम हैं नियामक हैं। ५ भूत हैं आकाश, वायु, अग्नि, आपः और पृथिवी। इन के परस्पर मेल से भौतिक जगत् पैदा हुआ है। परमेश्वर इन का नियामक है। विना चेतन नियामक के व्यवस्थित उत्पत्ति नहीं हो सकती। "तस्माद्वा एतस्मादात्मनः आकाशः सम्भूतः आकाशाद् वायुः वायोरग्निरग्नेरापः अद्भ्यः पृथिवी (तैतिरीय उप०) के अनुसार ये ६ यम हैं, नियामक हैं १ आत्मा और ५ भूत। कार्य अपने उपादान कारण में "अपित्व" अर्थात् लीन होना चाहते हैं। वायु आदि ४ तत्त्व एकज नहीं। आकाश एकज है। यह एक परमेश्वर से पैदा हुआ है, "तस्माद्वा एतस्मादात्मनः से पैदा हुआ है। वायु दो से पैदा हुई है मूलकारण आत्मा से, और आकाश से। इसी प्रकार अग्नि तीन से पैदा हुई है मूलकारण आत्मा सें, आकाश तथा वायु से इत्यादि। इसलिए पृथिवी का लय होता है आपः में, आपः का लय होता है अग्नि में, अग्नि का लय होता है वायु में, वायु का लय होता है आकाश में। इस प्रकार ४ भूतों का लय होता है एकज अर्थात् आकाश में। आकाश एकज है। एक आत्मा से पैदा हुआ है। सांख्य सिद्धान्तानुसार प्रकृति से महत् तत्त्व पैदा हुआ है। यह है व्यापी तत्त्व। इस से मनुष्य में वैयक्तिक बुद्धि पैदा हुई। यह वैयक्तिक बुद्धि, अहंकार, मन और चित्तरूप में विकृत होकर चार रूपवाली हुई, जिसे कि "अन्तः करण चतुष्टय" कहते हैं। "व्यापी महत्-तत्त्व' और अन्तः करण चतुष्टय, तथा मूलप्रकृति ये ६ यम हैं, जिन से जगत् पैदा हुआ, अतः जगत् के ये ६ यम हैं, नियामक हैं। इन ६ में महत्-तत्त्व एकज है, एक प्रकृति से पैदा हुआ है। शेष ५ स्व-स्व उपादान में परम्परया विलीन होते हुए "एकज महत्तत्त्व" में विलीन होते हैं। और महत्-तत्त्व प्रकृति में विलीन होता है। इस सम्बन्ध में एक व्याख्याकार का विचार निम्न प्रकार का है– इस व्याख्याकार के अनुसार यम का अर्थ है जोड़ा, "युगल न कि नियामक। अतः षड्यमाः =६ ऋतुएं। प्रत्येक ऋतु एक यम है, जोड़ा है, दो-दो मासों का। "एकज" है मलमास, intercalary month "एकः जायते इत्येकजः”। यह मलमास अकेला पैदा होता है, ऋतु के सदृश जोड़ारूप में नहीं]
इंग्लिश (4)
Subject
Jyeshtha Brahma
Meaning
O Savita, bright seeker, know this wherein there are six that move according to the law of divine nature. One is one alone born of one, and unto that one alone born of one, they wish to join, seeking unity and fulfilment. [This mantra is a mystical vision of the universe at the microcosmic level as well as at the macrocosmic level. At the microcosmic level of the individual, the human being comprises five elements (Akasha, Vayu, Agni, Apah and Prthivi) and one mind (mana, buddhi, chitta and ahankara which is also called Antahkaranachatushtaya, the fourfold personality). These make up the six. Corresponding to the five elements, there are five senses (shabda, sparsha, rupa, rasa and gandha, the mind being, again, the sixth. These are formal and functional mutations of Prakrti. The five gross elements are the gross elements of Prakrti, and the five senses are sensuous mutations of the same five elements but at their subtle level. The mind is a mutation of Mahat-tattva which is the first evolute of Prakrti in the process of creative evolution. The five serve the sixth, mind, and all the six serve the soul. The mind is called Ekaja, born of one because it is born of one, Mahat. The soul is unborn and eternal, and Brahma, creative Prajapati, gives it the existential personality when it brings the body and soul together. As the body- soul individual microcosm evolves through the physical and biological evolution of Prakrti, so does it recede, back to Prakrti and the self-existent soul. At the macrocosmic level, the story of evolution is the same: It starts from the ‘Zero’ state, continues unto Infinity and receds into the ‘Zero’ state: The ‘Zero’ state is the pre-creation stage which is neither tangible nor describable, only One, Brahma, was awake with its Svadha, Shakti, which was Prakrti and the Jivatmas (Rgveda, 10, 129, 1-5). With the will of Brahma, Prakrti arose and manifested into its first tangible form, Mahat. Mahat evolved into subtle elements and the intelligential mutation, which further evolved into sense-mind complex on the one hand and the gross elements on the other. The five elements (Akasha, Vayu, Agni, Apah and Prthivi) and the sense- mind complex are the six at the macro-cosmic level which arise from one Prakrti-Mahat and recede back into it according to the laws of nature the same way as at the micro-cosmic level. The microcosm serves the individual soul, and the macrocosm, the universal soul, Supreme Brahma.]
Translation
O vivifier (savitr) know this for sure; Six are pairs, of twins and one singly born. They seek relationship in him; who among them is born alone.
Translation
O learned man! discern this that six are the twin (12 months of the year described in six seasons each of which contain two month’s period) one is singly born (the time or the sun).They claim relationship in that among them who is singly born.
Translation
Discern thou this, O learned man, six are the law-abiding forces, and one singly born. They claim relationship in that among them which is born alone.
Footnote
Six law-abiding forces: Five organs of cognition and mind. One singly born: The soul. They: Six law-abiding forces, soul is unborn in nature. Its assuming the body is spoken of as its birth.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
५−(इद्रम्) वाक्यम् (सवितः) ऐश्वर्यवन् विद्वन् (वि) विशेषेण (जानीहि) (षट्) (यमाः) पञ्चज्ञानेन्द्रियाणि षष्ठं मनः (एकः) जीवात्मा (एकजः) एक एव जातः (तस्मिन्) जीवात्मनि (ह) एव (अपित्वम्) इणजादिभ्यः। वा० पा० ३।३।१०८। आप्लृ व्याप्तौ-इण्। छान्दसो ह्रस्वः। आपित्वम्। बन्धुत्वम् (इच्छन्ते) कामयन्ते (यः) जीवात्मा (एषाम्) यमानां मध्ये। अन्यत् पूर्ववत् ॥
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