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अथर्ववेद के काण्ड - 10 के सूक्त 8 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 8/ मन्त्र 20
    ऋषिः - कुत्सः देवता - आत्मा छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - ज्येष्ठब्रह्मवर्णन सूक्त
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    यो वै ते वि॒द्याद॒रणी॒ याभ्यां॑ निर्म॒थ्यते॒ वसु॑। स वि॒द्वाञ्ज्ये॒ष्ठं म॑न्येत॒ स वि॑द्या॒द्ब्राह्म॑णं म॒हत् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    य: । वै । ते इति॑ । वि॒द्यात् । अ॒रणी॒ इति॑ । याभ्या॑म् । नि॒:ऽम॒थ्यते॑ । वसु॑ । स: । वि॒द्वान् । ज्ये॒ष्ठम् । म॒न्ये॒त॒ । स: । वि॒द्या॒त् । ब्राह्म॑णम् । म॒हत् ॥८.२०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यो वै ते विद्यादरणी याभ्यां निर्मथ्यते वसु। स विद्वाञ्ज्येष्ठं मन्येत स विद्याद्ब्राह्मणं महत् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    य: । वै । ते इति । विद्यात् । अरणी इति । याभ्याम् । नि:ऽमथ्यते । वसु । स: । विद्वान् । ज्येष्ठम् । मन्येत । स: । विद्यात् । ब्राह्मणम् । महत् ॥८.२०॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 8; मन्त्र » 20
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    परमात्मा और जीवात्मा के स्वरूप का उपदेश।

    पदार्थ

    (यः) जो [पुरुष] (वै) निश्चय करके (ते) उन दोनों (अरणी) अरणियों [रगड़ कर अग्नि निकालने की दो लकड़ियों] को (विद्यात्) जान लेवे, (याभ्याम्) जिन दोनों से (वसु) अग्नि (निर्मथ्यते) मथकर निकाला जाता है, (सः) वह (विद्वान्) विद्वान् (ज्येष्ठम्) ज्येष्ठ [सब से बड़े ब्रह्म] को (मन्येत) समझ लेगा, और (सः) वह (महत्) बड़े (ब्राह्मणम्) ब्राह्मण [ब्रह्मज्ञान] को (विद्यात्) जानेगा ॥२०॥

    भावार्थ

    जैसे दो लकड़ियों को रगड़कर आग निकालते हैं, वैसे ही विद्वान् कार्य-कारण की सूक्ष्मता को समझकर परब्रह्म का ज्ञान प्राप्त करते हैं ॥२०॥

    टिप्पणी

    २०−(यः) विद्वान् (वै) निश्चयेन (ते) उभे (विद्यात्) जानीयात् (अरणी) अर्त्तिसृधृ०। उ० २।१०२। ऋ गतौ−अनि। अरणी प्रत्यृत एने अग्निः समरणाज्जायत इति वा-निरु० ५।१०। अग्न्युत्पत्तये मथनी द्वे दारुणी (याभ्याम्) अरणिभ्याम् (निर्मथ्यते) मथनेन निःसार्यते (वसु) विभक्तेर्लुक्। वसुः। अग्निः (सः) (विद्वान्) प्राज्ञः (ज्येष्ठम्) महत्तमं ब्रह्म [मन्येत] जानीयात् (सः) (विद्यात्) [ब्राह्मणम्] ब्रह्मणः परमेश्वराज् जातं विज्ञानम् (महत्) पूजनीयम् ॥

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    विषय

    अरणी [दो अरणियाँ]

    पदार्थ

    १. (य:) = जो उपासक (वै) = निश्चय से (ते अरणी) = उन दो अरणियों को-स्वदेहरूप अधरारणि तथा प्रणवरूप उत्तरारणि को (विद्यात्) = जानता है, (याभ्याम्) = जिन दो अरणियों के द्वारा (वसु) = सबको बसानेवाला वह प्रभु (निर्मथ्यते) = मथा जाता है-मथकर प्रकाशित किया जाता है। (सः विद्वान्) = वह दोनों अरणियों को जाननेवाला पुरुष ही (ज्येष्ठं मन्येत) = उस सर्वश्रेष्ठ प्रभु का मनन कर पाता है। (स:) = वही (महत्) = महनीय (ब्राह्मणम्) = ब्रह्मज्ञान को-वेदज्ञान को (विद्यात्) = जानता है। २. ('स्वदेहमरणिं कत्वा प्रणव चोत्तरारणिम्। ध्याननिर्मथनाभ्यासाद् देवं पश्येन्निगूढवत्')।। -श्वेता०१।१४। देह अधरारणि है और प्रणव उत्तरारणि। ध्यान के द्वारा इनका मथन होता है और परमगूढ़ आत्मतत्त्व का दर्शन हुआ करता है।

    भावार्थ

    हम इस मानव-शरीर को प्राप्त करके प्रणव [ओम्] का मानस जप करें। इसी से पवित्र हुए-हुए हृदय में प्रभु के प्रकाश की प्रासि होगी।

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    भाषार्थ

    (यः) जो (वै) वास्तव में (ते अरणी) उन दो अरणियों को (वेद) जानता है (याभ्याम्) जिन दो द्वारा (वसु) इनमें बसा हुआ [स्कम्भ-परमेश्वर] (निर्मथ्यते) अग्नि की तरह मथ कर निकाला जाता है, प्रकट किया जाता है, (स विद्वान्) वह विद्वान् अर्थात् मथनविधि को जानने वाला व्यक्ति (ज्येष्ठम्) ज्येष्ठ ब्रह्म को (मन्येत) जान सकता है, (सः) वह (महत्) महान् (ब्राह्मणम्) ब्रह्म को (विद्यात्) जान सकता है।

    टिप्पणी

    [ब्राह्मणम् = ब्रह्म + अण् (स्वार्थ) अथवा वेदप्रतिपादित स्कम्भ-परमेश्वर। दो अरणि-काष्ठों में परस्पर मथन द्वारा यज्ञिय अग्नि को प्रकट किया जाता है। अध्यात्म ब्रह्माग्नि को मथ निकालने के सम्बन्ध में कहा है कि— स्वदेहमरणिं कृत्वा प्रणवं चोत्तरारणिम्।ध्याननिर्मथनाभ्यासाद् देवं पश्येन्निगूवढत्।। (श्वेताश्व० उपनिषद् अध्याय १, खण्ड १४)। निज देह को अरणि काष्ठ करके, और प्रणव अर्थात् ओ३म् को उत्तरारणि कर के, ध्यानरूपी निर्मथन के अभ्यास से, निगूढ़ अर्थात् छिपी अग्नि की तरह, परमेश्वर देव का दर्शन करे]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Jyeshtha Brahma

    Meaning

    One who knows the two arani woods with which the heat and light of fire is generated and received by attrition is really wise. He would know the Supreme Brahma at heart in the soul by realisation, and he would know the great knowledge and the wide world that Brahma has created and sustains by pervasive presence and divine will. (Refer also to Shvetashvatara Upanishad, 1, 14 for fire-like generation of Brahma awareness by meditation on Aum.)

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    Translation

    Whoso verily knows two (fire-producing) churning sticks (arani), with which the (spiritual) wealth (vasu) is churned out, he may consider himself to be knowing the Chiefest Lord; he may know the great Lord supreme.

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    Translation

    The learned one who knows the kindling-stick from which by attrition the wealth of fire is drawn, understands the Supreme Being and comprehend what is Supreme to all.

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    Translation

    The sage who knows the kindling-sticks of Om and the body, whence by attrition God, the All-Pervader is realized, will comprehend what is Most High, will know the Mighty God.

    Footnote

    Just as by rubbing together two sticks we get fire, the great giver of riches, so by rubbing together the body and Om we realize God See Shwetashwatara Upanishad.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २०−(यः) विद्वान् (वै) निश्चयेन (ते) उभे (विद्यात्) जानीयात् (अरणी) अर्त्तिसृधृ०। उ० २।१०२। ऋ गतौ−अनि। अरणी प्रत्यृत एने अग्निः समरणाज्जायत इति वा-निरु० ५।१०। अग्न्युत्पत्तये मथनी द्वे दारुणी (याभ्याम्) अरणिभ्याम् (निर्मथ्यते) मथनेन निःसार्यते (वसु) विभक्तेर्लुक्। वसुः। अग्निः (सः) (विद्वान्) प्राज्ञः (ज्येष्ठम्) महत्तमं ब्रह्म [मन्येत] जानीयात् (सः) (विद्यात्) [ब्राह्मणम्] ब्रह्मणः परमेश्वराज् जातं विज्ञानम् (महत्) पूजनीयम् ॥

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