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अथर्ववेद के काण्ड - 12 के सूक्त 2 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 10
    ऋषिः - भृगुः देवता - अग्निः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - यक्ष्मारोगनाशन सूक्त
    1

    क्र॒व्याद॑म॒ग्निं श॑शमा॒नमु॒क्थ्यं प्र हि॑णोमि प॒थिभिः॑ पितृ॒याणैः॑। मा दे॑व॒यानैः॒ पुन॒रा गा॒ अत्रै॒वैधि॑ पि॒तृषु॑ जागृहि॒ त्वम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    क्र॒व्य॒ऽअद॑म् । अ॒ग्निम् । श॒श॒मा॒नम् । उ॒क्थ्य᳡म् । प्र । हि॒णो॒मि॒ । प॒थिऽभि॑: । पि॒तृ॒ऽयानै॑: । मा । दे॒व॒ऽयानै॑: । पुन॑: । आ । गा॒: । अत्र॑ । ए॒व । ए॒धि॒ । पि॒तृषु॑ । जा॒गृ॒हि॒ । त्वम् ॥२.१०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    क्रव्यादमग्निं शशमानमुक्थ्यं प्र हिणोमि पथिभिः पितृयाणैः। मा देवयानैः पुनरा गा अत्रैवैधि पितृषु जागृहि त्वम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    क्रव्यऽअदम् । अग्निम् । शशमानम् । उक्थ्यम् । प्र । हिणोमि । पथिऽभि: । पितृऽयानै: । मा । देवऽयानै: । पुन: । आ । गा: । अत्र । एव । एधि । पितृषु । जागृहि । त्वम् ॥२.१०॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 2; मन्त्र » 10
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    राजा और प्रजा के कर्तव्य का उपदेश।

    पदार्थ

    (पितृयाणैः) पितरों [रक्षक विद्वानों] के चलने योग्य (पथिभिः) मार्गों से [चलता हुआ] मैं (क्रव्यादम्) मांसभक्षक (अग्निम्) अग्नि [समान सन्तापकारी मनुष्य] को (शशमानम्) उछलकर चलते हुए [उद्योगी] (उक्थ्यम्) प्रशंसनीय पुरुष से (प्र हिणोमि) बाहिर भेजता हूँ। [हे दुष्कर्मी !] तू (देवयानैः) विद्वानों के मार्गों से [रोकने को] (पुनः) फिर (मा आ गाः) मत आ, [हे सत्कर्मी !] (त्वम्) तू (अत्र एव) यहाँ ही (एधि) रह, और (पितृषु) पितरों [रक्षक विद्वानों] के बीच (जागृहि) जागता रहे ॥१०॥

    भावार्थ

    धर्मज्ञ पुरुषार्थी राजा दुष्टों को सत्पुरुषों से पृथक् कर दे, जिस से धर्मात्माओं के कार्य में विघ्न न पड़े और धर्म की उन्नति सदा होती रहे ॥१०॥

    टिप्पणी

    १०−(क्रव्यादम्) मांसभक्षकम् (अग्निम्) अग्निवत् सन्तापकं पुरुषम् (शशमानम्) शश प्लुतगतौ−चानश्। उत्प्लुत्य गन्तारम्। उद्योगिनम् (उक्थ्यम्) अ० ७।४७।१। अकथितं च। पा० १।४।५१। इति कर्मसंज्ञा। प्रशस्यात् (प्र) (हिणोमि) गमयामि (पथिभिः) मार्गैः (पितृयाणैः) पालकैर्गन्तव्यैः (देवयानैः) विदुषां मार्गैः (पुनः) पश्चात् (मा आ गाः) नैवागच्छ (अत्र) (एव) (एधि) भव। वर्तस्व (पितृषु) पालकेषु (जागृहि) सावधानो भव (त्वम्) ॥

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    विषय

    पितृयाण+देवयान

    पदार्थ

    १. (कव्यादम् अग्निम्) = मांसभक्षक अग्नि को, जोकि (शशमानम्) = [शश् to jump] मर्यादाओं का उल्लंघन करनेवाली है, (उक्थ्यम्) = चाहे वह कितनी भी प्रशंसित हो रही है तो भी, (प्रहिणोमि) = अपने से दूर भेजता हूँ। लोग मांस भोजन की कितनी भी प्रशंसा करें कि 'इससे तो शक्ति बढ़ती है, प्रभु ने इन पशुओं को मनुष्य के लिए ही तो बनाया है, हरिण आदि को न मारा जाएगा तो वे खेतियों को भी तो समाप्त कर डालेंगे' तो भी मैं मांसभोजन में प्रवृत्त नहीं होता। (पितृयाणैः पथिभिः) = पितृयाण-मार्गों पर चलने के हेतु से मैं मांसभोजन से दूर रहता हूँ। मांसभोजन मुझे स्वार्थी व क्रूर बनाकर वृद्ध पितरों की सेवा से भी दूर कर देता है। २. मांसभोजन से दूर रहनेवाले पुरुष से प्रभु कहते हैं कि तू (पुन:) = फिर, गृहस्थ को सुन्दरता से निभाने के बाद, (देवयानैः) = देवयान-मागों से चलता हुआ (मा आगा:) = मुझे प्राप्त हो। गृहस्थ कर्तव्यों की पूर्ति होने तक (अत्र एव एधि) = यहाँ ही हो, अर्थात् संन्यस्त न होकर घर में ही रह और (त्वम् पितषु जागृहि) = पितरों में जागरित रह। उनके प्रति अपने कर्तव्य में प्रमाद न कर।

    भावार्थ

    मांसभोजन की कितनी भी प्रशंसा की जाए तो भी हम उसमें प्रवृत्त न हों। हम गृहस्थ में रहते हुए स्वकर्तव्य पालन करते हुए पितृयज्ञ को सम्यक्तया पालित करें। गृहस्थ समाप्ति पर देवयान-मार्ग से चलते हुए प्रभु को प्राप्त करें।

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    भाषार्थ

    (शशमानम्) प्लुतगति से चलती हुई, (उक्थ्यम्) वैदिक सूक्तों में वर्णित (क्रव्यादम् अग्निम्) जीवितों के मांस के भक्षक अग्नि को (प्र हिणोमि) मैं दूर करता हूं। (पितृयाणैः पथिभिः) मातापिता जिन मार्गों पर चलते हैं उन मागों द्वारा। (देवयानैः) देवों अर्थात् सत्य मार्गों पर चलने वाले दिव्य जनों के मार्गों द्वारा तू ते क्रव्याद् (पुनः) बार-बार (मा आगाः) न आ, (अत्र एव) इस पितृमार्ग में ही (एधि) तू बनी रह, (पितृषु) माता पिताओं में (त्वम्) तू (जागृहि) जागरूक रह।

    टिप्पणी

    [शशमानम्ः– भिन्न-भिन्न स्थानों में एक साथ मृत्युएं होती रहती हैं, क्रव्याद् मानो प्लुतगति से सर्वत्र पहुंच जाती है तथा प्लुतगति से बार-बार, आक्रमण करती है। पुनः = देवयानमार्गियों की मृत्यु एक बार होती है, बार-बार नहीं, क्योंकि वे चिरकाल के लिये मुक्त हो जाते हैं। शशमानम् =शश प्लुतगतौ]।

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    विषय

    क्रव्यात् अग्नि का वर्णन, दुष्टों का दमन और राजा के कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    (क्रव्यादम्) नर मांस को खाने वाले (शशमानम्) अति चञ्चल, व्यापक (अग्निम्) अग्नि को (उक्थ्यम्) उक्थ = वेद के अनुसार (पितृयाणैः पथिभिः) पितृयाण मार्गों से (प्र हिणोमि) दूर करता हूं। हे क्रव्याद् अग्ने (देवयानैः) देवयान, विद्वानों और राजा के चलने योग्य मार्गों से (पुनः) फिर (मा आ गाः) कभी मत आ। तू (अत्रैव एधि) वहां ही, श्मशान में ही रह और (पितृषु) बूढ़े और मृत पुरुषों में ही (त्वम्) तू (जागृहि) जागृत रह। राजा के पक्ष में—क्रव्याद् दुष्ट पुरुष को वेद की आज्ञानुसार ‘पितृयाण’ अर्थात् शासकों के बनाये नियमों के अनुकूल दूर करदें। उसे फिर राजमार्गों में न आने दे। और वह शासकों के बीच अपना जीवन बितावें। गृहस्थ-पक्ष में—क्रव्याद अग्नि मृत्यु, पितृयान मार्गों में ही रहे। देवयान मार्गों में न आवे। और मृत्यु बूढ़ों पर ही अपना घात करे, छोटी उमर वालों पर न आवे।

    टिप्पणी

    (तृ०) ‘मा देवयानैः पथिभिरागात्रैव’ इति पैप्प० सं ०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भृगुर्ऋषिः। अग्निरुत मन्त्रोक्ता देवताः, २१—३३ मृत्युर्देवता। २, ५, १२, २०, ३४-३६, ३८-४१, ४३, ५१, ५४ अनुष्टुभः [ १६ ककुम्मती परावृहती अनुष्टुप्, १८ निचृद् अनुष्टुप् ४० पुरस्तात् ककुम्मती ], ३ आस्तारपंक्ति:, ६ भुरिग् आर्षी पंक्तिः, ७, ४५ जगती, ८, ४८, ४९ भुरिग्, अनुष्टुब्गर्भा विपरीत पादलक्ष्मा पंक्तिः, ३७ पुरस्ताद बृहती, ४२ त्रिपदा एकावसाना आर्ची गायत्री, ४४ एकावताना द्विपदा आर्ची बृहती, ४६ एकावसाना साम्नी त्रिष्टुप्, ४७ पञ्चपदा बार्हतवैराजगर्भा जगती, ५० उपरिष्टाद विराड् बृहती, ५२ पुरस्ताद् विराडबृहती, ५५ बृहतीगर्भा विराट्, १, ४, १०, ११, २९, ३३, ५३, त्रिष्टुभः। पञ्चपञ्चाशदृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Yakshma Nashanam

    Meaning

    I acknowledge the existence and place of Kravyadagni, the fire of natural passion for biological continuity of life along the paths of procreation and successive generation as it is celebrated in history and literature as such. But I subdue it for higher spiritual ends by the paths of life divine and pray : Pray come not again, stay where you are in the biological line, and keep awake in parental couples for a life time.

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    Translation

    The flesh-eating Agni, active, praiseworthy, I send forth by the roads that the Fathers go; come thou not back by those that the gods go; be thou just there; watch thou over the Fathers.

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    Translation

    I, the house-holder send this most devastating highly praised kravyad fire (to fulfill its purpose) by the ways and methods of the scientists. Let it not come again in its fixed operation by the ways of spiritual persons and let it be kept active in the works of the scientists.

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    Translation

    Treading on the path of the learned, I keep far away from the virtuous, the meat-eating culprit, ferocious like fire. O sinner, don’t come again on the path of the learned to disturb them! O virtuous, remain here, remain awake amongst learned Fathers!

    Footnote

    The King.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १०−(क्रव्यादम्) मांसभक्षकम् (अग्निम्) अग्निवत् सन्तापकं पुरुषम् (शशमानम्) शश प्लुतगतौ−चानश्। उत्प्लुत्य गन्तारम्। उद्योगिनम् (उक्थ्यम्) अ० ७।४७।१। अकथितं च। पा० १।४।५१। इति कर्मसंज्ञा। प्रशस्यात् (प्र) (हिणोमि) गमयामि (पथिभिः) मार्गैः (पितृयाणैः) पालकैर्गन्तव्यैः (देवयानैः) विदुषां मार्गैः (पुनः) पश्चात् (मा आ गाः) नैवागच्छ (अत्र) (एव) (एधि) भव। वर्तस्व (पितृषु) पालकेषु (जागृहि) सावधानो भव (त्वम्) ॥

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