अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 52
ऋषिः - भृगुः
देवता - अग्निः
छन्दः - पुरस्ताद्विराड्बृहती
सूक्तम् - यक्ष्मारोगनाशन सूक्त
1
प्रेव॑ पिपतिषति॒ मन॑सा॒ मुहु॒रा व॑र्तते॒ पुनः॑। क्र॒व्याद्यान॒ग्निर॑न्ति॒काद॑नुवि॒द्वान्वि॒ताव॑ति ॥
स्वर सहित पद पाठप्रऽइ॑व । पि॒प॒ति॒ष॒ति॒ । मन॑सा । मुहु॑: । आ । व॒र्त॒ते॒ । पुन॑: । क्र॒व्य॒ऽअत् । यान् । अ॒ग्नि: । अ॒न्ति॒कात् । अ॒नु॒ऽवि॒द्वान् । वि॒ऽताव॑ति ॥२.५२॥
स्वर रहित मन्त्र
प्रेव पिपतिषति मनसा मुहुरा वर्तते पुनः। क्रव्याद्यानग्निरन्तिकादनुविद्वान्वितावति ॥
स्वर रहित पद पाठप्रऽइव । पिपतिषति । मनसा । मुहु: । आ । वर्तते । पुन: । क्रव्यऽअत् । यान् । अग्नि: । अन्तिकात् । अनुऽविद्वान् । विऽतावति ॥२.५२॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
राजा और प्रजा के कर्तव्य का उपदेश।
पदार्थ
वह [मनुष्य] (मनसा) अपने मन से (प्र इव) आगे बढ़ता हुआ सा (पिपतिषति) ऐश्वर्यवान् होना चाहता है और (मुहुः) वारंवार (पुनः) पीछे को (आ वर्तते) लौट आता है। (यान्=यम्) जिस [मनुष्य] को (क्रव्यात्) मांसभक्षक (अग्निः) अग्नि [समान सन्तापकारी दोष आदि] (अन्तिकात्) निकट से (अनुविद्वान्) निरन्तर जानता हुआ (वितावति) सता डालता है ॥५२॥
भावार्थ
पापी मनुष्य यद्यपि अपने को ऐश्वर्यवान् बनाने की चेष्टा करता है, परन्तु सत्य बल न होने से गिरता ही जाता है ॥५२॥ इस मन्त्र का उत्तरार्द्ध पीछे−म० ३८ में आ चुका है ॥
टिप्पणी
५२−(प्र इव) प्रकर्षेण गच्छन् यथा (पिपतिषति) पत्लृ गतौ ऐश्वर्ये च−सन्। ऐश्वर्यवान् भवितुमिच्छति (मनसा) चित्तेन (मुहः) वारंवारम् (आ वर्तते) आगत्य वर्तते (पुनः) पश्चात्। अन्यत् पूर्ववत्−म० ३८ ॥
विषय
व्यसन की दुरन्तता
पदार्थ
१.(यान्) = जिन मनुष्यों को (क्रव्यात् अग्निः) = मांसभक्षण करनेवाला अग्नि (अन्तिकात्) = बहत समीपता के कारण, अर्थात् मांसभक्षण की प्रवृत्ति के बहुत बढ़ जाने के कारण (अनुविद्वान्) = [विद्-वेदना की अनुभूति] अनुक्रम से वेदना को प्राप्त कराता हुआ (वितावति) = हिंसित करता है, वह मनुष्य (मनसा) = मन से-हदय से (प्रपिपतिषति इव) = इस मांसभक्षण से दूर जाने की कामनावाला-सा होता है। उसे कष्ट के कारण विचार होता है कि 'मांस खाना छोड़ दूं'। वह छोड़ता भी है, परन्तु (पुन) = फिर (मुहुः) = बारम्बार (आवर्तते) = मांसभक्षण की ओर लौट आता है।
भावार्थ
मांसभक्षण का व्यसन विविध वेदनाओं का कारण बनता है। वेदनाओं से पीडित होकर वह मन में व्यसन से ऊपर उठने का निश्चय करता है, परन्तु बारम्बार इस व्यसन में प्रवृत्त हो जाता है। इसकी हेयता को समझता हुआ भी वह इसे छोड़ नहीं पाता।
भाषार्थ
(इव) मानो कुकर्मी व्यक्ति (मनसा) मन द्वारा (प्र) आगे की ओर (पिपतिषति) उड़ना चाहता है, परन्तु (मुहुः) बार-बार (पुनः) फिर (आ वर्त्तते) वापिस लौट आता है, (यान्) जिन्हें कि (क्रव्याद अग्निः) मांसभक्षक अग्नि (विद्वान्) मानों जानता हुआ सा, (अन्तिकात्) उन के समीप होकर, (अनु) निरन्तर (वितावति) वृद्धि या उन्नति से विगत करती रहती है। वितावति= वि +तु (वृद्धौ)।
टिप्पणी
[कुकर्मी व्यक्ति उन्नति की केवल मानसिक इच्छा करता है, परन्तु निःशक्त हो जाने से उसे सफलता प्राप्त नहीं होती। वह क्रव्याद् अग्नि का शिकार बना रहता है और उन्नति नहीं कर सकता। अन्तिकात् = जिन में रोग निरोधशक्ति (Immunity) कम होती है उन के समीप रोग रहते है। कुकर्मों द्वारा रोगनिरोध शक्ति कम हो जाती है।]
विषय
क्रव्यात् अग्नि का वर्णन, दुष्टों का दमन और राजा के कर्त्तव्य।
भावार्थ
(यान् अन्तिकात्) जिनके अति समीप से (क्रव्यात्) मांसभक्षी (अग्निः) अग्नि (अनुविद्वान्) जान बूझ कर (विताविति) नाना प्रकार से सताता है वह पुरुष जब भी (मनसा) अपने मन से (प्र पिषतिपति इव) आगे भी जाना चाहता है (पुनः मुहुः) फिर भी बार बार (आ वर्त्तते) लौट आता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
भृगुर्ऋषिः। अग्निरुत मन्त्रोक्ता देवताः, २१—३३ मृत्युर्देवता। २, ५, १२, २०, ३४-३६, ३८-४१, ४३, ५१, ५४ अनुष्टुभः [ १६ ककुम्मती परावृहती अनुष्टुप्, १८ निचृद् अनुष्टुप् ४० पुरस्तात् ककुम्मती ], ३ आस्तारपंक्ति:, ६ भुरिग् आर्षी पंक्तिः, ७, ४५ जगती, ८, ४८, ४९ भुरिग्, अनुष्टुब्गर्भा विपरीत पादलक्ष्मा पंक्तिः, ३७ पुरस्ताद बृहती, ४२ त्रिपदा एकावसाना आर्ची गायत्री, ४४ एकावताना द्विपदा आर्ची बृहती, ४६ एकावसाना साम्नी त्रिष्टुप्, ४७ पञ्चपदा बार्हतवैराजगर्भा जगती, ५० उपरिष्टाद विराड् बृहती, ५२ पुरस्ताद् विराडबृहती, ५५ बृहतीगर्भा विराट्, १, ४, १०, ११, २९, ३३, ५३, त्रिष्टुभः। पञ्चपञ्चाशदृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Yakshma Nashanam
Meaning
Mentally they wish to soar high but again and again they fall back to earth whom carnivorous Agni pursues relentlessly, knowing them at the closest by nature, character and ambition.
Translation
He desires, as it were, to fly forth with his mind; repeatedly he returns again-they whom the flesh-eating Agni, from near by, after knowing follows.
Translation
They whom the Kravyad fire (the disease caused by heart etc.) has in its clutches and pursue' frequently, fall down in their mind and spirit alike and this state for them comes and go further and further.
Translation
He whom the vice of meat-eating discovers from near and torments, though willing to go forward and make progress, is ever a prey to rebirth and degradation again and again.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
५२−(प्र इव) प्रकर्षेण गच्छन् यथा (पिपतिषति) पत्लृ गतौ ऐश्वर्ये च−सन्। ऐश्वर्यवान् भवितुमिच्छति (मनसा) चित्तेन (मुहः) वारंवारम् (आ वर्तते) आगत्य वर्तते (पुनः) पश्चात्। अन्यत् पूर्ववत्−म० ३८ ॥
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