अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 8
ऋषिः - भृगुः
देवता - अग्निः
छन्दः - भुरिक्त्रिष्टुप्
सूक्तम् - यक्ष्मारोगनाशन सूक्त
1
क्र॒व्याद॑म॒ग्निं प्र हि॑णोमि दू॒रं य॒मरा॑ज्ञो गच्छतु रिप्रवा॒हः। इ॒हायमित॑रो जा॒तवे॑दा दे॒वो दे॒वेभ्यो॑ ह॒व्यं व॑हतु प्रजा॒नन् ॥
स्वर सहित पद पाठक्र॒व्य॒ऽअद॑म् । अ॒ग्निम् । प्र । हि॒णो॒मि॒ । दू॒रम् । य॒मऽरा॑ज्ञ: । ग॒च्छ॒तु॒ । रि॒प्र॒ऽवा॒ह: । इ॒ह । अ॒यम् । इत॑र: । जा॒तऽवे॑दा: । दे॒व: । दे॒वेभ्य॑: । ह॒व्यम् । व॒ह॒तु॒ । प्र॒ऽजा॒नन् ।॥२.८॥
स्वर रहित मन्त्र
क्रव्यादमग्निं प्र हिणोमि दूरं यमराज्ञो गच्छतु रिप्रवाहः। इहायमितरो जातवेदा देवो देवेभ्यो हव्यं वहतु प्रजानन् ॥
स्वर रहित पद पाठक्रव्यऽअदम् । अग्निम् । प्र । हिणोमि । दूरम् । यमऽराज्ञ: । गच्छतु । रिप्रऽवाह: । इह । अयम् । इतर: । जातऽवेदा: । देव: । देवेभ्य: । हव्यम् । वहतु । प्रऽजानन् ।॥२.८॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
राजा और प्रजा के कर्तव्य का उपदेश।
पदार्थ
(क्रव्यादम्) मांसभक्षक [क्रूर] (अग्निम्) अग्नि [समान सन्तापक मनुष्य] को (दूरम्) दूर [प्र हिणोमि] बाहिर पहुँचाता हूँ, (रिप्रवाहः) वह पाप का ले चलनेवाला पुरुष (यमराज्ञः) न्यायाधीश राजा के पुरुषों में (गच्छतु) जावे। (इह) यहाँ पर (अयम्) यह (इतरः) दूसरा [पापी से भिन्न धर्मात्मा], (जातवेदाः) वेदों का ज्ञाता, (देवः) विजय चाहनेवाला राजा (हव्यम्) देने-लेने योग्य पदार्थ को (प्रजानन्) भले प्रकार जानता हुआ (देवेभ्यः) विजय चाहनेवाले पुरुषों के लिये (वहतु) पहुँचावे ॥८॥
भावार्थ
जब प्रजागण राजा से मिलकर अत्याचारियों को दण्ड दिलाते हैं, तब वह ज्ञानी राजा धर्मात्माओं के सत्कार करने में समर्थ होता है ॥८॥ यह मन्त्र कुछ भेद से ऋग्वेद में है−१०।१६।९। और यजुर्वेद ३५।१९ ॥
टिप्पणी
८−(क्रव्यादम्) मांसभक्षकम् (अग्निम्) अग्निवत्परितापकम् (प्र) बहिर्भावे (हिणोमि) गमयामि (दूरम्) (यमराज्ञः) यमो न्यायाधीशो राजा येषां तान् यमराजकान् पुरुषान् (गच्छतु) प्राप्नोतु (रिप्रवाहः) रिप्र+वह प्रापणे−अण्। रिप्रं पापं तस्य वोढा (इह) अस्मिन् संसारे (अयम्) (इतरः) भिन्नः (जातवेदाः) प्रसिद्धवेदज्ञाता (देवः) विजिगीषुः (देवेभ्यः) विजिगीषुभ्यः (हव्यम्) दातव्यग्राह्यपदार्थम् (वहतु) प्रापयतु (प्रजानन्) प्रकर्षेण विदन् सन् ॥
विषय
'क्रव्याद् अग्नि' 'रोग व दोष' प्रापकता
पदार्थ
१. (क्रव्यादम् अग्निम्) = मांस खानेबाली अनि को (दूरं प्रहिणोमि) = मैं अपने से दूर भेजता हूँ। यह क्रव्याद् अग्नि (यमराज्ञः) = यमराज की है, अर्थात् इस मांसभक्षक अग्नि का सम्बन्ध मृत्यु की देवता से है-यह मांसभोजन मृत्यु का [रोगों का] कारण बनता है, अत: (रिप्रवाहः) = दोषों का वहन करनेवाला यह क्रव्याद् अग्नि (गच्छतु) = हमारे घरों से दूर हो जाए। हमारी प्रवृत्ति मांसभोजन की न हो जाए। २. (अयम्) = यह (इतरः) = मांसभोजन से दूसरा वानस्पतिक भोजनोंवाला (जातवेदा:) = ज्ञान के प्रादुर्भाववाला हव्याद् अग्नि ही (इह) = यहाँ हमारे घरों में हो। यह अग्नि (देव:) = हमारे जीवनों को प्रकाशमय व दिव्यगुणसम्पन्न बनानेवाला है, अत: (प्रजानन्) = एक समझदार पुरुष देवेभ्य: दिव्यगुणों की प्राप्ति के लिए हव्यं वहतु-हव्य पदार्थों को ही इस जाठराग्नि में प्राप्त करानेवाला हो।
भावार्थ
मांसभोजन से जीवन रोगों व दोषों से परिपूर्ण बनता है, अत: हम दिव्यगुणों के विकास के लिए हव्य [सात्त्विक, वानस्पतिक] पदार्थों का ही प्रयोग करें।
भाषार्थ
(क्रव्यादम् अग्निम्) क्रव्याद् अग्नि को (दूरम् प्रहिणोमि) मैं दूर भेज देता हूं, (रिप्रवाहः) रिप्र अर्थात् पाप का वहन करने वाली क्रव्याद अग्नि, (यमराज्ञः) यमराजा की प्रजा को (गच्छतु) जाय, प्राप्त हो। (इह) यहां हमारे घर में (अयम् इतरः जातवेदाः) यह उस से भिन्न जातवेदस् (देवः) दिव्य अग्नि, (प्रजानन्) मानो जानते हुए के सदृश, (देवेभ्यः) देवों के प्रति (हव्यम्) हवियोग्य वस्तु (वहतु) ले जाय, उन्हें प्राप्त कराएं।
टिप्पणी
[यमराज्ञः = यमराजा की प्रजा है, गृहस्थजन। गृहस्थ पितृयाण मार्ग है जहां कि मृत्युएं होती रहती हैं और पुनर्जन्म होते रहते हैं। अतः गृहस्थ मानो यमराजा के अधीन है, उस की प्रजा है। गृहस्थ में रिप्र की अधिक सम्भावना है। रिप्र= पापकर्म। अतः गृहस्थ में क्रव्याद् अग्नि की भी अधिक सम्भावना है। परन्तु जो सद्गृहस्थ जातवेदस् अग्नि की परिचर्या करते रहते है, वहां क्रव्याद् अग्नि की सम्भावना नहीं होती]।
विषय
क्रव्यात् अग्नि का वर्णन, दुष्टों का दमन और राजा के कर्त्तव्य।
भावार्थ
(क्रव्यादम् अग्निम्) क्रव्य,अर्थात् नर मांस खाने वाले अग्नि = मृत्यु को (दूरं प्रहिणोमि) दूर करता हूं। (रिप्रवाहः) पाप को बहन करने वाला, पापी या यमयातना को अनुभव करने वाला पुरुष (यमराज्ञः) सब के नियन्ता राजा या परमात्मा के पास (गच्छतु) जाय। (इह) यहां (अयम्) यह (इतरः) दूसरा निष्पाप, नीरोग (जातवेदाः) विद्वान् गृहपति (देवः) दानशील, पुत्रों को अन्न वस्त्रादि देने में समर्थ और (प्रजानन्) प्रकृष्ट ज्ञानवान् होकर (देवेभ्यः) विद्वान् अतिथियों को (हव्यम्) हव्य = अन्न आदि (वहतु) प्रदान करे।
टिप्पणी
(द्वि०) ‘यमराज्यम्’ इति ऋ०। तत्र दमनो यामायन ऋषिः। अग्निर्देवता।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
भृगुर्ऋषिः। अग्निरुत मन्त्रोक्ता देवताः, २१—३३ मृत्युर्देवता। २, ५, १२, २०, ३४-३६, ३८-४१, ४३, ५१, ५४ अनुष्टुभः [ १६ ककुम्मती परावृहती अनुष्टुप्, १८ निचृद् अनुष्टुप् ४० पुरस्तात् ककुम्मती ], ३ आस्तारपंक्ति:, ६ भुरिग् आर्षी पंक्तिः, ७, ४५ जगती, ८, ४८, ४९ भुरिग्, अनुष्टुब्गर्भा विपरीत पादलक्ष्मा पंक्तिः, ३७ पुरस्ताद बृहती, ४२ त्रिपदा एकावसाना आर्ची गायत्री, ४४ एकावताना द्विपदा आर्ची बृहती, ४६ एकावसाना साम्नी त्रिष्टुप्, ४७ पञ्चपदा बार्हतवैराजगर्भा जगती, ५० उपरिष्टाद विराड् बृहती, ५२ पुरस्ताद् विराडबृहती, ५५ बृहतीगर्भा विराट्, १, ४, १०, ११, २९, ३३, ५३, त्रिष्टुभः। पञ्चपञ्चाशदृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Yakshma Nashanam
Meaning
Kravyada Agni, which carries on the dynamics of flesh on the natural plane, I assign to far off forces other than the spirit. Let it be the carrier of the acts of evil to the house of Yama, death and sufferance. For me, this other fire, Jataveda, brilliant leader of enlightened life, knowing the rules and paths of the good life, may carry our offerings in yajna to the divinities and to the ultimate Lord Supreme. (To understand the difference between the service of Kravyadagni and that of Jataveda, refer to Gita, 3, 13 and 17, 4-6, and Kathopanishad, 1,1,23-26.)
Translation
I send far forth the flesh-eating Agni; let him go, carrying evil, to Yama’s subjects; here let this other Jatavedas carry the oblation, a god to the gods, foreknowing.
Translation
I, the house-holder, separately fix a side this Kravyad. fire, let it go to the king or the person of science as it is of violent nature and purpose. Here in home let the powerful other one called Jatvedas carry out the oblations dropped therein for the other physical and spiritual elements, it has them within its reach..
Translation
I take afar, the meat-eating culprit. May the sin-bearer appear before the state officials of the just King. In this world, the immaculate, virtuous king, the knower of the Vedas, anxious for conquest, full of knowledge, should bestow nice eatables on the learned.
Footnote
A responsible public-spirited person. See Rig, 10-16-9, Yajur, 35-19.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
८−(क्रव्यादम्) मांसभक्षकम् (अग्निम्) अग्निवत्परितापकम् (प्र) बहिर्भावे (हिणोमि) गमयामि (दूरम्) (यमराज्ञः) यमो न्यायाधीशो राजा येषां तान् यमराजकान् पुरुषान् (गच्छतु) प्राप्नोतु (रिप्रवाहः) रिप्र+वह प्रापणे−अण्। रिप्रं पापं तस्य वोढा (इह) अस्मिन् संसारे (अयम्) (इतरः) भिन्नः (जातवेदाः) प्रसिद्धवेदज्ञाता (देवः) विजिगीषुः (देवेभ्यः) विजिगीषुभ्यः (हव्यम्) दातव्यग्राह्यपदार्थम् (वहतु) प्रापयतु (प्रजानन्) प्रकर्षेण विदन् सन् ॥
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