अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 22
ऋषिः - भृगुः
देवता - मृत्युः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - यक्ष्मारोगनाशन सूक्त
1
इ॒मे जी॒वा वि मृ॒तैराव॑वृत्र॒न्नभू॑द्भ॒द्रा दे॒वहू॑तिर्नो अ॒द्य। प्राञ्चो॑ अगाम नृ॒तये॒ हसा॑य सु॒वीरा॑सो वि॒दथ॒मा व॑देम ॥
स्वर सहित पद पाठइ॒मे । जी॒वा: । वि । मृ॒तै: । आ । अ॒व॒वृ॒त्र॒न् । अभू॑त् । भ॒द्रा । दे॒वऽहू॑ति: । न॒: । अ॒द्य । प्राञ्च॑: । अ॒गा॒म॒ । नृ॒तये॑ । हसा॑य । सु॒ऽवीरा॑स: । वि॒दथ॑म् । आ । व॒दे॒म॒ ॥२.२२॥
स्वर रहित मन्त्र
इमे जीवा वि मृतैराववृत्रन्नभूद्भद्रा देवहूतिर्नो अद्य। प्राञ्चो अगाम नृतये हसाय सुवीरासो विदथमा वदेम ॥
स्वर रहित पद पाठइमे । जीवा: । वि । मृतै: । आ । अववृत्रन् । अभूत् । भद्रा । देवऽहूति: । न: । अद्य । प्राञ्च: । अगाम । नृतये । हसाय । सुऽवीरास: । विदथम् । आ । वदेम ॥२.२२॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
राजा और प्रजा के कर्तव्य का उपदेश।
पदार्थ
(इमे) ये सब (जीवाः) जीवते हुए [पुरुषार्थी जन] (मृतैः) मृतकों [दुर्बलेन्द्रियों] से (वि) पृथक् होकर (आ अववृत्रन्) लौट आये हैं, (देवहूतिः) विद्वानों की वाणी (नः) हमारे लिये (अद्य) आज (भद्रा) कल्याणी (अभूत्) हुई है। (नृतये) नृत्य [हाथ-पैर चलाने] के लिये और (हसाय) हँसने [आनन्द भोगने] के लिये (प्राञ्चः) आगे बढ़ते हुए हम (अगाम) पहुँचे हैं, (सुवीरासः) अच्छे वीरोंवाले हम (विदथम्) विज्ञान का (आ वदाम) उपदेश करें ॥२२॥
भावार्थ
जब पुरुषार्थी जन दुर्बलेन्द्रियों के कुमार्गों से हटकर सुमार्ग पर चलते हैं, तब विद्वान् लोग अनेक उद्योगों से आनन्द भोगते हुए पुत्र पौत्र सेवक आदि को वीर बनाते हुए विद्या की उन्नति करते हैं ॥२२॥ इस मन्त्र के पहिले तीन पाद ऋग्वेद १०।१८।३। में और चौथा ऋ० १।११७।२५। में है ॥
टिप्पणी
२२−(इमे) दृश्यमानाः (जीवाः) जीवन्तः पुरुषाः (वि) वियुज्य (मृतैः) मृतकैः। हतपुरुषार्थैः (आ अववृत्रन्) वृतु वर्तने छान्दसो लुङ्। अवृतन्। आवृत्ता अभवन् (अभूत्) (भद्रा) कल्याणी (देवहूतिः) विदुषां वाणी (नः) अस्मभ्यम् (अद्य) अस्मिन् दिने (प्राञ्चः) प्रकर्षेण गच्छन्तः (अगाम) इण् गतौ−लुङ्। अगमाम् (नृतये) नर्तनाय। गात्रविक्षेपाय कर्मानुष्ठानाय (हसाय) हसनाय। सहक्रीडनाय (सुवीरासः) शोभनवीरयुक्ताः (विदथम्) अ० १।१३।४। विज्ञानम् (आ वदेम) उपदिशेम ॥
विषय
भद्रा देवहूतिः
पदार्थ
१. (इमे) = घर में रहनेवाले ये व्यक्ति (जीवा:) = जीवित हों-मुर्दे-से न हों। (ये मृतैः वि आववृत्रन्) = मृत्युओं [रोगों] से पृथक् हों। ये रोगाक्रान्त होकर असमय में ही चले न जाएँ। (न:) = हमारे लिए (अद्य) = आज (देवहूति:) = देवों का आह्वान, अर्थात् देववृत्ति के लोगों का अतिथिरूपेण घर पर आना-जाना (भद्रा अभूत) = कल्याणकर हो। २. उनसे प्रेरणा लेकर (प्राञ्चः अगाम) = हम आगे और आगे बढ़नेवाले हों। (नृतये हसाय) = नाचते व हँसते हुए हम आगे बढ़ते चलें। हम (सुवीरास:) = उत्तम बीर बनते हुए (विदथम् आवदेम) = ज्ञान का ही चर्चण करें। हमारा समय ज्ञान की चर्चाओं में ही उपयुक्त हो।
भावार्थ
हम रोगों से बचकर जीवनशक्ति से परिपूर्ण हों। विद्वानों के सम्पर्क में, उत्तम प्रेरणा को प्राप्त करके आगे बढ़ते चलें। प्रसन्नता से व वीरतापूर्ण जीवन से युक्त होकर हम ज्ञान की ही चर्चा करें।
भाषार्थ
(इमे जीवाः) ये जीवित मनुष्य, (मृतैः) मृतों से (वि) वियुक्त अर्थात् अलग हो कर, (आ ववृत्रन्) लौट आए हैं, (अद्य) आज (नः) हमारी (देवहूतिः) परमेश्वर देव के प्रति पुकार या प्रार्थना (भद्रा) कल्याणकारिणी तथा सुखप्रदा (अभूत्) हुई है। (प्राञ्चः) आगे की ओर (अगाम) हम बढ़े है, (नृतये हसाय) नाचने और हंसी-खुशी के लिये। (सुवीरासः) उत्तम धर्मवीर तथा शूरवीर हो कर (विदथम्) ज्ञान गोष्ठियों में (आवदेम) हम परस्पर ज्ञानचर्चा करें।
टिप्पणी
[संक्रामक रोग में कतिपय सम्बन्धियों की मृत्यु हो जाय तो उन की जीवित अन्त्येष्टि के पश्चात् शेष सम्बन्धी वापिस आ कर दुःख या शोक में ग्रस्त न हो जाय, अपितु परमेश्वर के उपासक होते हुए प्रसन्नता पूर्वक उन्नति पथ पर चलते रहें, और परस्पर मिल कर ज्ञान बढ़ाते रहें। भद्रा = भद् कल्याणे सुखे च। विदथम् =विदथानि वेदनानि (ज्ञानानि); यथा "विदथानि प्रचोदयन्" (ऋ० ३।२७।७); (निरुक्त ६।२।७)]
विषय
क्रव्यात् अग्नि का वर्णन, दुष्टों का दमन और राजा के कर्त्तव्य।
भावार्थ
(इमे जीवाः) ये समस्त जीव (मृतैः) मरने के साधनों से या मरने वाले प्राणियों से या मृत्यु के कारणों से (आ ववृत्रन्) विविध रूप से घिरे हुए हैं, (नः) हम मुमुक्षु मार्ग से जानेहारों को (अद्य) अब, (भद्रा) अति कल्याणकारिणी (देवहूतिः) देव-अध्यात्म और ज्ञानी विद्वानों का भी उपदेशक या आज्ञा या बुलाहट (अभूत्) हो गयी है। हम (सुवीरासः) उत्तम वीर्यसम्पन्न होकर (नृतये हसाय) नृत्य और हास, आनन्द और प्रमोद के लिये (प्राञ्चः) और भी आगे पूर्व की ओर ज्ञानमय सूर्य की तरफ़ (अगाम) बढ़ें, जायें। और (विदथम्) ज्ञानकथा की (आ वदेम) चर्चा करें।
टिप्पणी
(च०) ‘द्राघीय आयुः प्रतरं दधानः’ इति ऋ०। (प्र०) ‘आववर्तिन्’ इति तै० आ०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
भृगुर्ऋषिः। अग्निरुत मन्त्रोक्ता देवताः, २१—३३ मृत्युर्देवता। २, ५, १२, २०, ३४-३६, ३८-४१, ४३, ५१, ५४ अनुष्टुभः [ १६ ककुम्मती परावृहती अनुष्टुप्, १८ निचृद् अनुष्टुप् ४० पुरस्तात् ककुम्मती ], ३ आस्तारपंक्ति:, ६ भुरिग् आर्षी पंक्तिः, ७, ४५ जगती, ८, ४८, ४९ भुरिग्, अनुष्टुब्गर्भा विपरीत पादलक्ष्मा पंक्तिः, ३७ पुरस्ताद बृहती, ४२ त्रिपदा एकावसाना आर्ची गायत्री, ४४ एकावताना द्विपदा आर्ची बृहती, ४६ एकावसाना साम्नी त्रिष्टुप्, ४७ पञ्चपदा बार्हतवैराजगर्भा जगती, ५० उपरिष्टाद विराड् बृहती, ५२ पुरस्ताद् विराडबृहती, ५५ बृहतीगर्भा विराट्, १, ४, १०, ११, २९, ३३, ५३, त्रिष्टुभः। पञ्चपञ्चाशदृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Yakshma Nashanam
Meaning
All these that are living have come from the shades of death in life. Our dedication, service and prayer to Divinity has been auspcious and fruitful today. Let us go forward to live a life of high order of virtue to sing and dance with joyous laughter and, blest with progeny worthy of the brave, define a social order of knowledge, justice and Dharma.
Translation
These living ones have turned away from the dead: our invocation of the gods hath been auspicious today; we have gone forward unto dancing, unto laughter; may we, rich in héroes, address counsel.
Translation
These Jivas, the men are surrounded with the dead ones or the things of world which are perishable, our prayer to Divinity now be auspicious, may we go forward for dance and laughter, We having good children, may perform Yajna,
Translation
All these souls are surrounded by different causes of death. Our prayer to God now is successful. Let us advance for dancing and for laughter. Being highly brave let us think of battle
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
२२−(इमे) दृश्यमानाः (जीवाः) जीवन्तः पुरुषाः (वि) वियुज्य (मृतैः) मृतकैः। हतपुरुषार्थैः (आ अववृत्रन्) वृतु वर्तने छान्दसो लुङ्। अवृतन्। आवृत्ता अभवन् (अभूत्) (भद्रा) कल्याणी (देवहूतिः) विदुषां वाणी (नः) अस्मभ्यम् (अद्य) अस्मिन् दिने (प्राञ्चः) प्रकर्षेण गच्छन्तः (अगाम) इण् गतौ−लुङ्। अगमाम् (नृतये) नर्तनाय। गात्रविक्षेपाय कर्मानुष्ठानाय (हसाय) हसनाय। सहक्रीडनाय (सुवीरासः) शोभनवीरयुक्ताः (विदथम्) अ० १।१३।४। विज्ञानम् (आ वदेम) उपदिशेम ॥
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