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अथर्ववेद के काण्ड - 12 के सूक्त 2 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 13
    ऋषिः - भृगुः देवता - अग्निः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - यक्ष्मारोगनाशन सूक्त
    1

    अ॒स्मिन्व॒यं संक॑सुके अ॒ग्नौ रि॒प्राणि॑ मृज्महे। अभू॑म य॒ज्ञियाः॑ शु॒द्धाः प्र ण॒ आयूं॑षि तारिषत् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒स्मिन् । व॒यम् । सम्ऽक॑सुके । अ॒ग्नौ । रि॒प्राणि॑ । मृ॒ज्म॒हे॒ । अभू॑म । य॒ज्ञिया॑: । शु॒ध्दा: । प्र । न॒: । आयूं॑षि । ता॒रि॒ष॒त् ॥२.१३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अस्मिन्वयं संकसुके अग्नौ रिप्राणि मृज्महे। अभूम यज्ञियाः शुद्धाः प्र ण आयूंषि तारिषत् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अस्मिन् । वयम् । सम्ऽकसुके । अग्नौ । रिप्राणि । मृज्महे । अभूम । यज्ञिया: । शुध्दा: । प्र । न: । आयूंषि । तारिषत् ॥२.१३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 2; मन्त्र » 13
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    राजा और प्रजा के कर्तव्य का उपदेश।

    पदार्थ

    (अस्मिन्) इस (संकसुके) यथावत् शासक (अग्नौ) अग्नि [समान प्रतापी राजा] में [अर्थात् उसके आश्रय से] (रिप्राणि) पापों को (वयम्) हम (मृज्महे) धोते हैं। हम (यज्ञियाः) संगति के योग्य, (शुद्धाः) शुद्ध आचरणवाले (अभूम) हो गये हैं, वह (नः) हमारे (आयूंषि) जीवन को (प्र तारिषत्) बढ़ा देवे ॥१३॥

    भावार्थ

    मनुष्यों को योग्य है कि धर्मात्मा शासक के अनुशासन में रह कर विद्या और पुरुषार्थ से परस्पर मेल के साथ अपने जीवनों को सुफल करें ॥१३॥

    टिप्पणी

    १३−(अस्मिन्) (वयम्) (संकसुके) म० ११। सम्यक् शासके (अग्नौ) अग्निवत्प्रतापिनि राजनि (रिप्राणि) पापानि (मृज्महे) शोधयामः (अभूम) (यज्ञियाः) संगतियोग्याः (शुद्धाः) शुद्धाचरणाः (नः) अस्माकम् (आयूंषि) जीवनानि (प्रतारिषत्) अ० २।४।६। प्रवर्धयेत् ॥

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    विषय

    यज्ञियाः, शुद्धाः

    पदार्थ

    १. (वयम्) = हम (अस्मिन्) = इस हृदयदेश में समिद्ध किये गये, (संकसुके अग्नौ) = ब्रह्माण्ड को सम्यक् गति देनेवाले अग्रणी प्रभु में (रिप्राणि) = दोषों को (मृज्यहे) = धो डालते हैं। प्रभु स्मरण द्वारा जीवन को पवित्र बनाने के लिए यत्नशील होते हैं। २. प्रभुस्मरण द्वारा दोषों का प्रमार्जन करके हम (यज्ञियाः) = यज्ञादि उत्तम कर्मों में प्रवृत्त, (शुद्धा:) = शुद्ध जीवनवाले (अभूम) = हुए हैं। वे प्रभु (न:) = हमारे (आयूंषि) = जीवनों को (प्रतारिषत्) = खुब दीर्घ करें।

    भावार्थ

    प्रभुस्मरण द्वारा दोषों का प्रमार्जन करके हम यज्ञिय व शुद्ध बनें और दीर्घजीवन को प्राप्त करें।

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    भाषार्थ

    (अस्मिन्) इस (संकसुके अग्नौ) संकसुक अग्नि में (रिप्राणि) कुत्सित मलों को (मृज्महे) हम शुद्ध करते है, और (यज्ञियाः१ शुद्धा अभूम) यज्ञ करने योग्य शुद्ध हुए हैं, (नः) हमारी (आयूंषि) आयुधों को (प्रतारिषत्) संकसुक अग्नि बढ़ाएं।

    टिप्पणी

    [शव को संकसुक अर्थात् श्मशानाग्नि में जला देने पर शव के कारण होने वाले गृह्य कुत्सित मल दूर हो जाते है। तदन्तर स्नान द्वारा शुद्ध हो कर गृह वासी यज्ञ करने के योग्य होते हैं, और यज्ञ द्वारा निज आयुओं को बढ़ाते हैं। रिप्रम् = कुत्सितम् (उणा० ५।५५, महर्षि दयानन्द)]। [१. यज्ञयोग्य हो कर यज्ञियाग्नि में यक्ष्मरोगनाशक ओषधियों की आहुतियां दे कर (मन्त्र ११) दीर्घायु को प्राप्त करना।]

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    विषय

    क्रव्यात् अग्नि का वर्णन, दुष्टों का दमन और राजा के कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    (संकसुके) अति प्रदीप्त, सर्वोपरि शासक (अस्मिन् अग्नौ) इस महान्, कालाग्नि रूप परमात्मा में ही (वयम्) हम सब अपने (रिप्राणि) पापों, मलों को (मृज्महे) जला कर शुद्ध करते हैं। और हे परमात्मन् ! आपके संसर्ग से हम जीव बन्धन मुक्त होकर (यज्ञियाः) यज्ञ, आप पूजनीय देव की पूजा और संग लाभ करने के योग्य (शुद्धाः) शुद्ध पवित्र (अभूम) हो जाते हैं। (नः) हमारे (आयूंषि) जीवनों को (प्र तारिषत्) आप तराओ, सफल करो।

    टिप्पणी

    ‘संकुमुकेगनौ’ इति आप०। (च०) ‘तापत्’ इति क्वचित्।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भृगुर्ऋषिः। अग्निरुत मन्त्रोक्ता देवताः, २१—३३ मृत्युर्देवता। २, ५, १२, २०, ३४-३६, ३८-४१, ४३, ५१, ५४ अनुष्टुभः [ १६ ककुम्मती परावृहती अनुष्टुप्, १८ निचृद् अनुष्टुप् ४० पुरस्तात् ककुम्मती ], ३ आस्तारपंक्ति:, ६ भुरिग् आर्षी पंक्तिः, ७, ४५ जगती, ८, ४८, ४९ भुरिग्, अनुष्टुब्गर्भा विपरीत पादलक्ष्मा पंक्तिः, ३७ पुरस्ताद बृहती, ४२ त्रिपदा एकावसाना आर्ची गायत्री, ४४ एकावताना द्विपदा आर्ची बृहती, ४६ एकावसाना साम्नी त्रिष्टुप्, ४७ पञ्चपदा बार्हतवैराजगर्भा जगती, ५० उपरिष्टाद विराड् बृहती, ५२ पुरस्ताद् विराडबृहती, ५५ बृहतीगर्भा विराट्, १, ४, १०, ११, २९, ३३, ५३, त्रिष्टुभः। पञ्चपञ्चाशदृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Yakshma Nashanam

    Meaning

    Into this Agni, all controlling catalytic, purifying fire, we pour and purify our material smears, become pure performers of yajna and associates of divinity throughout life. May the holy fire advance and elevate our life to fullness, free from sin and sickness.

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    Translation

    On this devouring Agni do we wipe off evils; we have become fit for sacrifice, cleansed; may he prolong our lifetimes.

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    Translation

    We making this Sanksuk fire ablaze always wipe out our intentions of eveil acts and become the performers of Yajna and pure in conscience, Let this become the source of prolonging our lives.

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    Translation

    Under the guidance of this Omniscient God, we wipe our impurities away. In His Company we have become pure and fit to perform noble deeds. May He prolong our lives

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १३−(अस्मिन्) (वयम्) (संकसुके) म० ११। सम्यक् शासके (अग्नौ) अग्निवत्प्रतापिनि राजनि (रिप्राणि) पापानि (मृज्महे) शोधयामः (अभूम) (यज्ञियाः) संगतियोग्याः (शुद्धाः) शुद्धाचरणाः (नः) अस्माकम् (आयूंषि) जीवनानि (प्रतारिषत्) अ० २।४।६। प्रवर्धयेत् ॥

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