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अथर्ववेद के काण्ड - 12 के सूक्त 2 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 48
    ऋषिः - भृगुः देवता - अग्निः छन्दः - भुरिक्त्रिष्टुप् सूक्तम् - यक्ष्मारोगनाशन सूक्त
    1

    अ॑न॒ड्वाहं॑ प्ल॒वम॒न्वार॑भध्वं॒ स वो॒ निर्व॑क्षद्दुरि॒ताद॑व॒द्यात्। आ रो॑हत सवि॒तुर्नाव॑मे॒तां ष॒ड्भिरु॒र्वीभि॒रम॑तिं तरेम ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒न॒ड्वाह॑म् । प्ल॒वम् । अ॒नु॒ऽआर॑भध्वम् । स : । व॒: । नि: । व॒क्ष॒त् । दु॒:ऽइ॒तात् । अ॒व॒द्यात् । आ । रो॒ह॒त॒ । स॒वि॒तु: । नाव॑म् । ए॒ताम् । ष॒टऽभि: । उ॒र्वीभि॑: । अम॑तिम् । त॒रे॒म॒ ॥२.४८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अनड्वाहं प्लवमन्वारभध्वं स वो निर्वक्षद्दुरितादवद्यात्। आ रोहत सवितुर्नावमेतां षड्भिरुर्वीभिरमतिं तरेम ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अनड्वाहम् । प्लवम् । अनुऽआरभध्वम् । स : । व: । नि: । वक्षत् । दु:ऽइतात् । अवद्यात् । आ । रोहत । सवितु: । नावम् । एताम् । षटऽभि: । उर्वीभि: । अमतिम् । तरेम ॥२.४८॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 2; मन्त्र » 48
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    राजा और प्रजा के कर्तव्य का उपदेश।

    पदार्थ

    [हे मनुष्यो !] (अनड्वाहम्) जीवन के ले चलनेवाले (प्लवम्) [डोंगी रूप] [परमेश्वर] का (अन्वारभध्वम्) निरन्तर सहारा लो, (सः) वह (वः) तुमको (अवद्यात्) निन्दा से और (दुरितात्) कष्ट से (निः वक्षत्) निकालेगा। (सवितुः) चलानेवाले [चतुर नाविक वा माँझी] की (एनाम् नावम्) इस नाव पर (आ रोहत) चढ़ो, (षड्भिः) छह (उर्वीभिः) चौड़ी [दिशाओं] से (अमतिम्) विपत्ति को (तरेम) हम पार करें ॥४८॥

    भावार्थ

    मनुष्यों को उचित है कि दुष्ट निन्दित कर्म छोड़ कर दुःख को पार करें, जैसे चतुर माँझी की नाव द्वारा सब ऊपर-नीचे और पूर्व आदि दिशाओं में सुरक्षित रह कर समुद्र पार करते हैं ॥४८॥

    टिप्पणी

    ४८−(अनड्वाहम्) अ० ४।११।१। अन प्राणने असुन्+वह प्रापणे−क्विप्। अनसः प्राणस्य जीवनस्य वा वाहकं गमयितारम् (प्लवम्) प्लुङ् गतौ−अप्। उडुपं भेलं तद्रूपं परमात्मानम् (आ रोहत) अधितिष्ठत (सवितुः) प्रेरकस्य नाविकस्य (नावम्) नौकाम् (एताम्) (षड्भिः) ऊर्ध्वाधोभ्यां सह पूर्वादिभिः (उर्वीभिः) विस्तृताभिर्दिग्भिः (अमतिम्) अमेरतिः। उ० ४।५०। अम पीडने−अति। विपत्तिम् (तरेम) पारयेम। अन्यत् पूर्ववत्−म० ४७ ॥

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    विषय

    'अनड्वान्+प्लव' प्रभु

    पदार्थ

    १. (अनड्वान्) = संसार-शकट का वहन करनेवाले तथा (प्लवम्) = भव-सागर से पार करनेवाले बेड़ेरूप प्रभु को (अनु आरभध्वम्) = स्मरण करके सब कार्यों का प्रारम्भ करो। (सः) = वे प्रभु (व:) = तुम्हें (दुरितात्) = सब दुराचरणों से तथा (अवधात्) = निन्द्य कर्मों से (निर्वक्षत्) = पार करते हैं। प्रभुस्मरणपूर्वक कार्यों के करने पर दुराचरण व पाप से हम सदा दूर रहते हैं। २. हे मनुष्यो! तुम (सवितुः) = उस उत्पादक व प्रेरक प्रभु की (एतां नावम् आरोहत) = इस नाव पर आरोहण करो। प्रभुरूपी नाव तुम्हें कभी इस भव-सागर में डूबने नहीं देगी। (षड्भिः उबिभि:) = [उर्णज आच्छादने] छह रक्षणों के द्वारा [उा-Protection]-'काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद व मत्सर' रूप छह शत्रुओं से रक्षण के द्वारा (अमतिं तरेम) = हम अमति को-बुद्धि के अभाव व अप्रशस्त विचारों को तैर जाएँ। प्रभुरूप नाव में बैठे हुए हम इन काम-क्रोध आदि की प्रबल तरंगों से आहत न हों और सदा शुभ विचारवाले बने रहें।

    भावार्थ

    प्रभुरूप नाव में बैठकर हम भव-सागर को तैर जाएँ। इस नाव में बैठ हुए हम काम-क्रोध आदि की तरंगों से आक्रान्त न होंगे, हम शुद्ध विचारोंवाले बने रहेंगे।

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    भाषार्थ

    (अनड्वाहम्) संसाररूपी शकट का वहन करने वाली, (प्लवम्) भवसागर से तैराने वाली नौका रूप परमेश्वर का (अनु) निरन्तर (आरभध्वम्) आलम्बन लो, (सः) वह (वः) तुम्हारा (निर्वक्षत्) निर्वहन करेगा (अवद्यात्) गर्ह्य अर्थात् निन्दनीय (दुरितात्) तथा दुष्परिणामी पाप से। (सवितुः) संसार के उत्पादक परमेश्वर रूपी (एतां नावम्) इस नौका पर (आ रोहत) आरोहण करो ताकि (षड्भिः) छः (उर्वीभिः) विस्तृत षट्-सम्पत्ति रूपी नौकाओं द्वारा (अमतिम्) अध्यात्म-अज्ञानरूपी नद को (तरेम) हम तैर जांय।

    टिप्पणी

    [अनड्वाहम्; अनस् =शकट, उस का वहन करने वाला, अर्थात् संसार रूपी शकट का वहन करने वाला परमेश्वर। प्लवम्= नौका। परमेश्वर को ब्रह्मोडुप१ भी कहा है, अर्थात् ब्रह्म रूपी डोंगी या नौका (श्वेता० उप० अध्या० २, खं. ८)। सवितुः नावम्= सविता रूपी नौका (विकल्पे षष्ठी)। भवसागर से तैराने वाली नौका है परमेश्वर, और जिस अध्यात्म-अज्ञानरूपी नद में हम गोते खा रहे हैं, या डूबे जा रहे हैं, उस अज्ञानरूपी नद से तैराने वाली हैं षट्-सम्पत्ति रूपी छः नौकाएँ२]। [१. "ब्रह्मोडुपेन प्रतरेत विद्वान् स्रोतांसि सर्वाणि भयावहानि"। २. एक सात्त्विक मन और सात्त्विक ५ ज्ञानेन्द्रिया रूपी नौकाएं।]

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    विषय

    क्रव्यात् अग्नि का वर्णन, दुष्टों का दमन और राजा के कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    (अनड्वाहम्) अनस् = शकट को जिस प्रकार बैल उठाता है राष्ट्र रूप शकट को उठाने वाले राजा और ब्रह्माण्ड रूप शकट को ले चलने वाले सर्व प्रवर्तक परमेश्वर स्वरूप (प्लवम्) जहाज को आप लोग (अनु-आरभध्वम्) प्राप्त करो। (सः) वह (वः) आप सबको (अवद्यात्) निन्दनीय (दुरितात्) बुरे कामों से (निर्-वक्षत्) मुक्त करे। हे सज्जना ! (सवितुः) सब के उत्पादक और प्रेरक परमेश्वर और उत्तम राजा की बनायी (एताम्) इस (नाकम्*) नाव के समान, सब को भवसागर और दुःखसागर से पार उतारने वाली और सब को अपने बीच सुरक्षा से रखने वाली राजव्यवस्था रूप नाव में (आरोहत) चढ़ो, उसमें शरण लो। और (षड्भिः) छहों (उर्वीभिः) उर्वी, विशाल शक्तियों से हम (अमतिम्) अज्ञान और कुमति को (तरेम) पार करें। ‘षट् ऊर्मयः’ = छः बड़ी शक्तियां, पांच ज्ञान इन्द्रिय और छठा मन, ये आत्मा की छः बड़ी शक्तियां हैं जिनसे वह भारी अमति—अविद्या को तरता और ज्ञान प्राप्त करता है।

    टिप्पणी

    नुदतैडप्रत्ययः उणादिः। प्रेरयतीति नौः इति दयानन्दः।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भृगुर्ऋषिः। अग्निरुत मन्त्रोक्ता देवताः, २१—३३ मृत्युर्देवता। २, ५, १२, २०, ३४-३६, ३८-४१, ४३, ५१, ५४ अनुष्टुभः [ १६ ककुम्मती परावृहती अनुष्टुप्, १८ निचृद् अनुष्टुप् ४० पुरस्तात् ककुम्मती ], ३ आस्तारपंक्ति:, ६ भुरिग् आर्षी पंक्तिः, ७, ४५ जगती, ८, ४८, ४९ भुरिग्, अनुष्टुब्गर्भा विपरीत पादलक्ष्मा पंक्तिः, ३७ पुरस्ताद बृहती, ४२ त्रिपदा एकावसाना आर्ची गायत्री, ४४ एकावताना द्विपदा आर्ची बृहती, ४६ एकावसाना साम्नी त्रिष्टुप्, ४७ पञ्चपदा बार्हतवैराजगर्भा जगती, ५० उपरिष्टाद विराड् बृहती, ५२ पुरस्ताद् विराडबृहती, ५५ बृहतीगर्भा विराट्, १, ४, १०, ११, २९, ३३, ५३, त्रिष्टुभः। पञ्चपञ्चाशदृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Yakshma Nashanam

    Meaning

    Take on to the love, protection and support of the universal burden bearer, the ark of divinity. It will take you across the storms of life’s despicable evils. Come, embark this boat of Savita, Lord Creator, inspirer and saviour with the light of life. Let us swim over the flood of darkness and self-ignorance and attain to the splendour of life by sixfold lights of the six quarters of space and the divine message of the six-dimensional universe of heaven and earth, day and night, water and vegetation of our cosmic and earthly environment.

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    Translation

    Lay ye hold after the draft-ox (as) float, he shall carry you out of difficulty and reproach; mount this boat of Savity ; may we cross over misery by the six wide direction.

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    Translation

    Ye Men! prepared and utilize the car deviced with electrical means and weapon and that may save you from disgrace and trouble. Enter into the ship of Savitar the constructive electricity (for your safety). Let us free ourselves from trouble by the dint of our five cognitive organs and the mind sixth.

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    Translation

    O subjects, follow the king, who carries the ship of administration of the state, as an ox does the cart. He will release you from trouble and vice. Observe this state-policy of the King, which will enable you to overcome worldly afflictions and keep you in safe custody. Let us shun ignorance and unwisdom through six mighty forces!

    Footnote

    Six mighty forces: Five organs of cognition and mind. This verse can be applied to God as well. Who carries the ship of the administration of the world.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ४८−(अनड्वाहम्) अ० ४।११।१। अन प्राणने असुन्+वह प्रापणे−क्विप्। अनसः प्राणस्य जीवनस्य वा वाहकं गमयितारम् (प्लवम्) प्लुङ् गतौ−अप्। उडुपं भेलं तद्रूपं परमात्मानम् (आ रोहत) अधितिष्ठत (सवितुः) प्रेरकस्य नाविकस्य (नावम्) नौकाम् (एताम्) (षड्भिः) ऊर्ध्वाधोभ्यां सह पूर्वादिभिः (उर्वीभिः) विस्तृताभिर्दिग्भिः (अमतिम्) अमेरतिः। उ० ४।५०। अम पीडने−अति। विपत्तिम् (तरेम) पारयेम। अन्यत् पूर्ववत्−म० ४७ ॥

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