अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 28
ऋषिः - भृगुः
देवता - मृत्युः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - यक्ष्मारोगनाशन सूक्त
1
वै॑श्वदे॒वीं वर्च॑सा॒ आ र॑भध्वं शु॒द्धा भव॑न्तः॒ शुच॑यः पाव॒काः। अ॑ति॒क्राम॑न्तो दुरि॒ता प॒दानि॑ श॒तं हिमाः॒ सर्व॑वीरा मदेम ॥
स्वर सहित पद पाठवै॒श्व॒ऽदे॒वीम् । वर्च॑से । आ । र॒भ॒ध्व॒म् । शु॒ध्दा: । भव॑न्त: । शुच॑य: । पा॒व॒का: । अ॒ति॒ऽक्राम॑न्त: । दु॒:ऽइ॒ता । प॒दानि॑ । श॒तम् । हिमा॑: । सर्व॑ऽवीरा: । म॒दे॒म॒ ॥२.२८॥
स्वर रहित मन्त्र
वैश्वदेवीं वर्चसा आ रभध्वं शुद्धा भवन्तः शुचयः पावकाः। अतिक्रामन्तो दुरिता पदानि शतं हिमाः सर्ववीरा मदेम ॥
स्वर रहित पद पाठवैश्वऽदेवीम् । वर्चसे । आ । रभध्वम् । शुध्दा: । भवन्त: । शुचय: । पावका: । अतिऽक्रामन्त: । दु:ऽइता । पदानि । शतम् । हिमा: । सर्वऽवीरा: । मदेम ॥२.२८॥
भाष्य भाग
हिन्दी (5)
विषय
राजा और प्रजा के कर्तव्य का उपदेश।
पदार्थ
[हे मनुष्यो !] (वैश्वदेवीम्) सब विद्वानों के हित करनेवाली [वेदवाणी] को (वर्चसे) तेज पाने के लिये तुम (शुद्धाः) शुद्ध, (शुचयः) पवित्र (पावकाः) शुद्ध करनेवाले (भवन्तः) होते हुए (आ रभध्वम्) आरम्भ करो। (दुरिता) कठिन [कष्टदायक] (पदानि) पगडण्डियों को (अतिक्रामन्तः) लाँघते हुए, (सर्ववीराः) सब को वीर रखते हुए हम (शतम्) सौ (हिमाः) शीत ऋतुओंवाली [स्थितियों] तक (मदेम) सुख भोगें ॥२८॥
भावार्थ
मनुष्यों को योग्य है कि वेदवाणी के निरन्तर विचार से बाहिर और भीतर से शुद्ध होकर और दूसरों को शुद्ध करके कुमार्गों को त्याग कर सब को वीर बनाते हुए पूर्ण आयु भोगें ॥२८॥ इस मन्त्र का मिलान करो−अ० ६।६२।३ ॥
टिप्पणी
२८−(वैश्वदेवीम्) तस्मै हितम्। पा० ५।१।५। विश्वदेव−अण्, ङीप्। सर्वेभ्यो विद्वद्भ्यो हिताम् (वर्चसे) तेजसे (आरभध्वम्) आरम्भं कुरुत (शुद्धाः) (भवन्तः) सन्तः (शुचयः) (पावकाः) संशोधकाः (अतिक्रामन्तः) उल्लङ्घयन्तः (दुरिता) दुर्गतानि। कष्टप्रदानि (पदानि) पदचिह्नानि। क्षुद्रमार्गान् (शतम्) (हिमाः) हिम+अर्शआद्यच्, टाप्। शीतकालयुक्ताः स्थितीः (सर्ववीराः) सर्ववीरोपेताः (मदेम) हृष्येम ॥
विषय
वैश्वदेवी 'वेदवाणी'
पदार्थ
१. हे मनुष्यो! (वैश्वदेवीम्) = सब दिव्यगुणों की जननी इस वेदवाणी को (वर्चसे) = तेजस्विता की प्राप्ति के लिए (आरभध्वम्) = प्रारम्भ करो। इस वेदवाणी का अध्ययन तुम्हें सब बुराइयों से बचाकर अच्छाइयों की ओर ले-चलेगा। उस समय तुम (शुद्धा: भवन्त:) = मलों से रहित होते हुए, (शुचय:) = अर्थ के दृष्टिकोण से पवित्र बनोगे और (पावका:) = अपने मनों को पूर्ण पवित्र बना पाओगे। २. तुम्हारी यही कामना हो कि दुरिता पदानि सब दुराचरण के मागों को (अतिक्रामन्त:) = उल्लंघन करते हुए, (सर्ववीरा:) = सब वीर सन्तानोंवाले होते हुए हम (शतं हिमा: मदेम) = सौ वर्ष तक आनन्द का अनुभव करें।
भावार्थ
वेदवाणी का अध्ययन हमें तेजस्वी बनाएगा, शुद्ध, शुचि व पवित्र करेगा। उस समय हम दुरितों से दूर रहकर, वीर बनते हुए शतवर्षपर्यन्त उल्लासमय जीवनवाले होंगे।
भाषार्थ
(वर्चसे) शरीर की कान्ति के लिये (वैश्वदेवीम्) वैश्वदेवनाम वाली ओषधि [का सेवन] (आरभध्वम्) आरम्भ करो, (शुद्धाः भवन्तः) यक्ष्मरोग के मल से शुद्ध होते हुए (पावकाः) पवित्र करने वाली; अग्नि के सदृश (शुचयः) पवित्र हो जाओ। (दुरिता) दुःखदायी या दुष्परिणामी (पदानि) चालों का (अतिक्रामन्तः) अतिक्रमण करते हुए (सर्ववीराः) सब वीर हो कर (शतं हिमाः) सौ वर्ष (मदेम) हम मोद-प्रमोद अनुभव करते रहें।
टिप्पणी
[प्रकरणानुसार यह अर्थ सङ्गत प्रतीत होता है। अथर्व० ८।७।४ का मन्त्रांश इस सम्बन्ध में द्रष्टव्य है। यथा:- "ते वीरुधो बेश्वदेवीरुग्राः पुरुष जीवनीः"; अर्थात् वैश्वदेवी वीरुधें, ओषधियां, रोग के विनाशन में उग्र हैं, और पुरुषों को जीवन प्रदान करती हैं। ये ओषधियां यक्ष्म का विनाश करती है देखो (अथर्व० ८।७।२-५ आदि)। वीरुधः= वि + रुध्, विविध रोगों को अवरुद्ध करने वाली; या रोगविरोधिनी ओषधियां। पदानि = पद् गतौ]।
विषय
हर्षयुक्त सो वर्ष की आयु
शब्दार्थ
(वर्चसे) ब्रह्मतेज की प्राप्ति के लिए (वैश्वदेवीम्) सबका कल्याण करनेवाली, प्रभु-प्रदत्त वेदवाणी का (आ रभध्वम्) आरम्भ करो । उसके स्वाध्याय से (शुद्धाः) शुद्ध, मलरहित, (शुचय:) मनसा, वाचा, कर्मणा पवित्र और (पावकः) अग्नि के समान पवित्रकारक (भवन्तः) होते हुए (दुरितानि पदानि) बुरे चाल-चलनों को, बुरे आचार और व्यवहारों को (अतिक्रामन्तः) पार करते हुए, छोड़ते हुए (सर्ववीराः) सामर्थ्यवान् प्राणों से सम्पन्न होकर, सब-के-सब वीर्यवान् होकर हम (शतम् हिमाः) सौ वर्ष तक (मदेम) हर्ष और आनन्द से जीवन व्यतीत करें ।
भावार्थ
१. प्रत्येक मनुष्य को बल, वीर्य और प्राणशक्ति से युक्त होकर कम-से-कम सौ वर्ष तक हर्ष और आनन्द से युक्त जीवन व्यतीत करना चाहिए । २. इसके लिए बुरे चाल-चलनों को, दुष्टाचार और दुष्ट व्यवहार को सर्वथा छोड़ देना चाहिए । ‘दुरित’ पद में आयु को कम करनेवाले सभी दुर्गुणों यथा अधिक या न्यून भोजन, व्यायाम न करना, शरीर को स्वच्छ न रखना, मैले वस्त्र धारण करना आदि का समावेश हो जाता है । ३. बुरे चाल-चलनों को छोड़ने के लिए स्वयं मन, वाणी और कर्म से शुद्ध पवित्र और निर्मल बनो । अपने सम्पर्क में आनेवालों को भी शुद्ध और पवित्र बनाओ । ४. शुद्ध पवित्र बनने के लिए प्रभु-प्रदत्त वेद का स्वाध्याय करो । वेद के स्वाध्याय से आपको शुद्ध, पवित्र रहने और दीर्घायु प्राप्त करने का ठीक ज्ञान प्राप्त होगा ।
विषय
क्रव्यात् अग्नि का वर्णन, दुष्टों का दमन और राजा के कर्त्तव्य।
भावार्थ
हे पुरुषो ! आप लोग (शुचयः) मनसा, वाचा कर्मणा शुद्ध चित्त, (पावकाः) अग्नि के समान परम पवित्र, तपस्वी और (शुद्धाः) शुद्ध, मलरहित (भवन्तः) होते हुए (वर्चसे) ब्रह्मवर्चस् = तेज के प्राप्त करने के लिये (वैश्वदेवीम्) विश्वे-देव अर्थात् प्रजापति परमात्मा की ज्ञानकथा और उपासना (आरभध्वम्) किया करो। और हम सब (सर्ववीराः) समस्त सामर्थ्यवान् प्राणों से सम्पन्न और पुत्रों से और वीरों से और वीर्यवान् पुरुषों से युक्त होकर, या स्वयं सब वीर्यवान् होकर (दुरिता पदानि) दुःख से पार करने योग्य, दुर्गम स्थानों और अवसरों को (अतिक्रामन्तः) पार करते हुए (शतं हिमाः मदेम) सौ वर्षों तक आनन्द से जीवन व्यतीत करें।
टिप्पणी
यद्विश्वेदेवा सम् अयजन्त तद्वैश्वदेवस्य विश्वेदेवत्वम्। तै० १। १४। १०। ५। प्रजापति वैश्वदेवम्। कौ० ५। १॥ समस्त विद्वानों का मिलकर देवोपासना करना या ‘वैश्वदेव’ कार्य है। प्रजापति ‘वैश्वदेव’ कहाता है। ‘वैश्वानरीम्’ इति अथर्व० ६। ६२। ३। (प्र०) ‘वैश्वदेवीं सूनृताम् आरभध्वम्’ इति पैप्प० सं०। वैश्वदेवीं नावमिति लेन्मेन प्रेक्षितम्। ‘वैश्वदेवीम्’ इत्यत्र कौशिकसूत्रानुसारं गृह्यसूत्रानुसारं च वैश्वदेवी वत्सतरीग्रहणं तदुपालम्भनं च वेदविरुद्धम्।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
भृगुर्ऋषिः। अग्निरुत मन्त्रोक्ता देवताः, २१—३३ मृत्युर्देवता। २, ५, १२, २०, ३४-३६, ३८-४१, ४३, ५१, ५४ अनुष्टुभः [ १६ ककुम्मती परावृहती अनुष्टुप्, १८ निचृद् अनुष्टुप् ४० पुरस्तात् ककुम्मती ], ३ आस्तारपंक्ति:, ६ भुरिग् आर्षी पंक्तिः, ७, ४५ जगती, ८, ४८, ४९ भुरिग्, अनुष्टुब्गर्भा विपरीत पादलक्ष्मा पंक्तिः, ३७ पुरस्ताद बृहती, ४२ त्रिपदा एकावसाना आर्ची गायत्री, ४४ एकावताना द्विपदा आर्ची बृहती, ४६ एकावसाना साम्नी त्रिष्टुप्, ४७ पञ्चपदा बार्हतवैराजगर्भा जगती, ५० उपरिष्टाद विराड् बृहती, ५२ पुरस्ताद् विराडबृहती, ५५ बृहतीगर्भा विराट्, १, ४, १०, ११, २९, ३३, ५३, त्रिष्टुभः। पञ्चपञ्चाशदृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Yakshma Nashanam
Meaning
Join and start serving the winsome divinity of universal good, that way being purified, sanctified immaculate saviours of the self for the real beauty and splendour of life. Crossing over all evil and temptations, let us together, all unassailable brave, enjoy life for a full hundred years of happiness.
Translation
Take ye hold on that of all the gods in order to splendor, becoming cleansed clear purifying; stepping over difficult tracks, may we revel a hundred winters with all our heroes.
Translation
O my world companions, all of you, becoming pure, bright in thought and action and purifying others begin the prayer of God to attain the splendor who is the master of all and power of all powers. May we, over-passing all the troubles and evils rejoice, with all our heroes, children etc. through a hundred autumn.
Translation
Becoming pure and bright and purifying begin for splendour the study of the Vedas, the benefactors of all the learned. Overpowering troublous vices, may we rejoice with heroic sons for a hundred winters.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
२८−(वैश्वदेवीम्) तस्मै हितम्। पा० ५।१।५। विश्वदेव−अण्, ङीप्। सर्वेभ्यो विद्वद्भ्यो हिताम् (वर्चसे) तेजसे (आरभध्वम्) आरम्भं कुरुत (शुद्धाः) (भवन्तः) सन्तः (शुचयः) (पावकाः) संशोधकाः (अतिक्रामन्तः) उल्लङ्घयन्तः (दुरिता) दुर्गतानि। कष्टप्रदानि (पदानि) पदचिह्नानि। क्षुद्रमार्गान् (शतम्) (हिमाः) हिम+अर्शआद्यच्, टाप्। शीतकालयुक्ताः स्थितीः (सर्ववीराः) सर्ववीरोपेताः (मदेम) हृष्येम ॥
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