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अथर्ववेद के काण्ड - 12 के सूक्त 2 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 46
    ऋषिः - भृगुः देवता - अग्निः छन्दः - एकावसाना द्विपदा साम्नी त्रिष्टुप् सूक्तम् - यक्ष्मारोगनाशन सूक्त
    1

    सर्वा॑नग्ने॒ सह॑मानः स॒पत्ना॒नैषा॒मूर्जं॑ र॒यिम॒स्मासु॑ धेहि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सर्वा॑न् । अ॒ग्ने॒ । सह॑मान: । स॒ऽपत्ना॑न्। आ । ए॒षा॒म् । ऊर्ज॑म् । र॒यिम् । अ॒स्मासु॑ । धे॒हि॒ ॥२.४६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सर्वानग्ने सहमानः सपत्नानैषामूर्जं रयिमस्मासु धेहि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सर्वान् । अग्ने । सहमान: । सऽपत्नान्। आ । एषाम् । ऊर्जम् । रयिम् । अस्मासु । धेहि ॥२.४६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 2; मन्त्र » 46
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    राजा और प्रजा के कर्तव्य का उपदेश।

    पदार्थ

    (अग्ने) हे ज्ञानस्वरूप ! [परमेश्वर] (सर्वान्) सब (सपत्नान्) वैरियों को (सहमानः) हराता हुआ तू (एषाम्) इनके (ऊर्जम्) अन्न और (रयिम्) धन को (अस्मासु) हम [धर्मात्माओं] में (आ धेहि) सब प्रकार धारण कर ॥४६॥

    भावार्थ

    परमेश्वर के नियम से धर्मात्मा लोग अधर्मियों को सदा नीचा रखते हैं ॥४६॥

    टिप्पणी

    ४६−(सर्वान्) (अग्ने) हे ज्ञानस्वरूप परमात्मन् (सहमानः) अभिभवन् (सपत्नान्) शत्रून् (आ) समन्तात् (एषाम्) शत्रूणाम् (ऊर्जम्) अन्नम् (रयिम्) धनम् (अस्मासु) धार्मिकेषु (धेहि) धारय ॥

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    विषय

    ऊर्जु रयि

    पदार्थ

    १. हे (अग्ने) = अग्रणी प्रभो! (एषाम्) = इन अपने भक्तों के (सर्वान् सपत्नन्) = सब शत्रुओं को (सहमान:) = पराभूत करते हुए आप (अस्मासु) = हम उपासकों के जीवनों में ऊर्जम् बल व प्राणशक्ति को तथा (रयिम्) = ऐश्वर्य को (धेहि) = धारण कीजिए। 'काम-वासना' को समास करके आप हमें बल प्राप्त कराइए। 'क्रोध' के विनाश के द्वारा हमारी प्राणशक्ति को सुरक्षित कीजिए तथा 'लोभ' को दूर करके हमें उत्तम ऐश्वर्य प्राप्त कराइए।

    भावार्थ

    प्रभुकृपा से हम 'काम' पर विजय प्राप्त करके बल-सम्पन्न बनें, क्रोध को जीतकर प्राणशक्ति का रक्षण करें तथा लोभ को परास्त करके उत्तम ऐश्वर्यवाले हों।

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    भाषार्थ

    (अग्ने) हे अग्नि ! (सर्वान् सपत्नान्) सब शत्रुओं का (सहमानः) पराभव करता हुआ तू, (एषाम्) इन के (ऊर्जम्) बल और प्राणशक्ति को तथा (रयिम्) वेगरूपी-सम्पत्ति को (अस्मासु) हम में (आ धेहि) स्थापित कर।

    टिप्पणी

    [प्रत्येक रोगरूपी शत्रु में अपना-अपना स्वाभाविक बल तथा शक्ति और वेग होता है। गार्हपत्य-अग्नि के यथोचित सेवन से रोग के बल आदि घटते जाते हैं, और तादृश बल आदि रोग से उन्मुच्यमान व्यक्ति में शनैः-शनैः आते जाते हैं (४६)]

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    विषय

    क्रव्यात् अग्नि का वर्णन, दुष्टों का दमन और राजा के कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    हे (अग्ने) अग्नि के समान दुष्टों को संताप देने हारे राजन् ! तू (सर्वान् सपत्नान्) समस्त शत्रुओं को (सहमान:) पराजित करता हुआ (एषाम्) उनके (रयिम्) धन को और (ऊर्जम्) अन्न आदि पुष्टिकारी पदार्थों को (अस्मासु) हमें (धेहि) प्रदान करे।

    टिप्पणी

    (प्र०) ‘जीवानामग्नेः प्रतर दीर्घमायुः’ (तृ० च०) ‘अरातीरुषागुषा श्रयं श्रेयसि दधत्’ इति पैप्प० सं०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भृगुर्ऋषिः। अग्निरुत मन्त्रोक्ता देवताः, २१—३३ मृत्युर्देवता। २, ५, १२, २०, ३४-३६, ३८-४१, ४३, ५१, ५४ अनुष्टुभः [ १६ ककुम्मती परावृहती अनुष्टुप्, १८ निचृद् अनुष्टुप् ४० पुरस्तात् ककुम्मती ], ३ आस्तारपंक्ति:, ६ भुरिग् आर्षी पंक्तिः, ७, ४५ जगती, ८, ४८, ४९ भुरिग्, अनुष्टुब्गर्भा विपरीत पादलक्ष्मा पंक्तिः, ३७ पुरस्ताद बृहती, ४२ त्रिपदा एकावसाना आर्ची गायत्री, ४४ एकावताना द्विपदा आर्ची बृहती, ४६ एकावसाना साम्नी त्रिष्टुप्, ४७ पञ्चपदा बार्हतवैराजगर्भा जगती, ५० उपरिष्टाद विराड् बृहती, ५२ पुरस्ताद् विराडबृहती, ५५ बृहतीगर्भा विराट्, १, ४, १०, ११, २९, ३३, ५३, त्रिष्टुभः। पञ्चपञ्चाशदृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Yakshma Nashanam

    Meaning

    Holy fire, challenging and subduing all the adversarial forces of life on earth, pray recover and return to us the wealth and energy of life being wasted on those negativities of human existence and pollution.

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    Translation

    Overcoming, O Agni; all (our) rivals, do thou assign to us their refreshment and wealth.

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    Translation

    This fire (used in wars) destroying all the adversaries brings their wealth their strength and possessions to us.

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    Translation

    Subduing all our adversaries, O King, give us their food, their strength and their possessions!

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ४६−(सर्वान्) (अग्ने) हे ज्ञानस्वरूप परमात्मन् (सहमानः) अभिभवन् (सपत्नान्) शत्रून् (आ) समन्तात् (एषाम्) शत्रूणाम् (ऊर्जम्) अन्नम् (रयिम्) धनम् (अस्मासु) धार्मिकेषु (धेहि) धारय ॥

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