अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 32
ऋषिः - भृगुः
देवता - मृत्युः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - यक्ष्मारोगनाशन सूक्त
1
व्याक॑रोमि ह॒विषा॒हमे॒तौ तौ ब्रह्म॑णा॒ व्यहं क॑ल्पयामि। स्व॒धां पि॒तृभ्यो॑ अ॒जरां॑ कृणोमि दी॒र्घेणायु॑षा॒ समि॒मान्त्सृ॑जामि ॥
स्वर सहित पद पाठवि॒ऽअक॑रोमि । ह॒विषा॑ । अ॒हम् । ए॒तो । तौ । ब्रह्म॑णा । वि । अ॒हम् । क॒ल्प॒या॒मि॒ । स्व॒धाम् । पि॒तृऽभ्य॑: । अ॒जरा॑म् । कृ॒णोमि॑ । दी॒र्घेण॑ । आयु॑षा । सम् । इ॒मान् । सृ॒जा॒मि॒ ॥२.३२॥
स्वर रहित मन्त्र
व्याकरोमि हविषाहमेतौ तौ ब्रह्मणा व्यहं कल्पयामि। स्वधां पितृभ्यो अजरां कृणोमि दीर्घेणायुषा समिमान्त्सृजामि ॥
स्वर रहित पद पाठविऽअकरोमि । हविषा । अहम् । एतो । तौ । ब्रह्मणा । वि । अहम् । कल्पयामि । स्वधाम् । पितृऽभ्य: । अजराम् । कृणोमि । दीर्घेण । आयुषा । सम् । इमान् । सृजामि ॥२.३२॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
राजा और प्रजा के कर्तव्य का उपदेश।
पदार्थ
(अहम्) मैं [परमेश्वर] (हविषा) देने-लेने योग्य कर्म के साथ (एतौ) इन दोनों [स्त्री-पुरुष समूह] को (व्याकरोमि) व्याख्यात करता हूँ, (तौ) उन दोनों को (ब्रह्मणा) वेदज्ञान के साथ (अहम्) मैं (वि) विविध प्रकार (कल्पयामि) समर्थ करता हूँ। (पितृभ्यः) पितरों [रक्षक विद्वानों] के लिये (अजराम्) अक्षय (स्वधाम्) आत्मधारणशक्ति को (करोमि) करता हूँ [देता हूँ], (दीर्घेण) दीर्घ (आयुषा) जीवन के साथ (इमान्) इन सब को (सं सृजामि) संयुक्त करता हूँ ॥३२॥
भावार्थ
परमेश्वर सृष्टि के बीच स्त्री-पुरुषों को समान अधिकार देकर वेदज्ञान से समर्थ बनाता और परोपकारी विद्वान् जनों को आत्मबल देकर चिरंजीवी करता है ॥३२॥
टिप्पणी
३२−(व्याकरोमि) व्याख्यातौ करोमि (हविषा) दातव्यग्राह्यकर्मणा (अहम्) परमेश्वरः (एतौ) दृश्यमानौ स्त्रीपुरुषसमूहौ (तौ) (ब्रह्मणा) वेदज्ञानेन (वि) विविधम् (अहम्) (कल्पयामि) समर्थयामि (स्वधाम्) आत्मधारणशक्तिम् (पितृभ्यः) रक्षकेभ्यो विद्वद्भ्यः (अजराम्) अक्षीणाम् (कृणोमि) करोमि (दीर्घेण) (आयुषा) जीवनेन (इमान्) पितॄन् (सं सृजामि) संयोजयामि ॥
विषय
देवयज्ञ, ब्रह्मयज्ञ, पितृयज्ञ
पदार्थ
१. प्रभु कहते हैं कि (अहम्) = मैं (एतौ) = इन दोनों पति-पत्नी को (हविषा) = हवि के द्वारा दानपूर्वक अदन के द्वारा-यज्ञशेष के सेवन के द्वारा (व्याकरोमि) = [वि आ कृ] विशिष्टरूप से समन्तात् निर्मित करता हूँ, अर्थात् अग्रिहोत्र की प्रवृत्ति के द्वारा-सदा यज्ञशेष [अमृत] के सेवन से इनके सब अङ्ग-प्रत्यङ्ग सुपुष्ट होते हैं। (तौ) = उन दोनों पति-पत्नी को (अहम्) = मैं (ब्रह्मणा) = ज्ञान के द्वारा विकल्पयामि विशिष्ट सामर्थ्यबाला बनता हूँ। [क्लूप् सामर्थ्य] । ज्ञान की प्रवृत्ति इन्हें, विलासवृत्ति से ऊपर उठाकर शक्तिसम्पन्न करती है। २. इनके घर में (पितृभ्यः) = वृद्ध माता-पिता के लिए (स्वधाम्) = स्वधा को-पितरों के लिए दीयमान अन्न को [पितृभ्यः स्वधा] (अजरां कृणोमि) = न जीर्ण होनेवाला करता है। इनके यहाँ वृद्ध माता-पिता को सदा उत्तम भोजन प्राप्त रहता है। इसप्रकार ये पति-पत्नी देवयज्ञ [हविषा], ब्रह्मयज्ञ [ब्रह्मणा] तथा पितृयज्ञ [पितृभ्यः स्वधा] को नियम से करते हैं। इसप्रकार (इमान्) = इस घर में रहनेवाले इन सब लोगों को दीर्घेण आयुषा दीर्घजीवन से (संसृजामि) = संसृष्ट करता हूँ-ये सब इन यज्ञों के कारण दीर्घजीवी बनते हैं।
भावार्थ
हवि के द्वारा हम अङ्ग-प्रत्यङ्ग को पुष्ट करनेवाले बनें। ज्ञान के द्वारा हम विशिष्ट सामर्थ्यवाले हों। पितृयज्ञ को कभी विस्मृत न करें। यही दीर्घजीवन की प्राप्ति का मार्ग है।
भाषार्थ
(एतौ) इन दो को, (हविषा) हविः की दृष्टि से (अहम्) मैं (व्याकरोमि) विभक्त करता हूं, (ब्रह्मणा) वेद द्वारा (अहम्) मैं (वि कल्पयामि) इन दो को विशेषतया समर्पित करता हूं। अर्थात् (पितृभ्यः) पितरों के लिये (अजराम् स्वधाम्) अजर तथा स्वधारण योग्य अन्न को (कृणोमि) नियत करता हूं, और (इमान्) पितरों से भिन्न इन व्यक्तियों को (दीर्घेण) दीर्घ आयु देने वाले (आयुषा) अन्न के साथ (सृजामि) सम्बद्ध करता हूं।
टिप्पणी
[प्रकरण यक्ष्मरोग तथा अकाल मृत्यु के अपाकरण का है। परमेश्वर कहता है कि वृद्धों और अवृद्धों के जीवनों के लिये उपादेय अन्न का, वेद द्वारा विभाग मैं दर्शाता हूं। पितरों के लिये तो अन्न "स्वधा" रूप नियत करता हूं जो कि उनके स्वधारण के योग्य हो (स्वधा= स्वधारणायोग्य) और अजरा हो, उन्हें शीघ्र जीर्ण करने वाला न हो, सुपाच्य हो। और अवशिष्ट व्यक्तियों का सम्बन्ध ऐसे अन्न के साथ करता हूं जो कि उन की आयुओं का दीर्घ करे। परन्तु इन दोनों विभागों को अन्न का सेवन, हविः रूप में करना चाहिये। जीवन को यज्ञ समझते हुए ऐसे अन्न का सेवन करते रहना चाहिये।जिस से जीवन यज्ञ सफलता पूर्वक समाप्त हो। आयुषा = आयुः अन्ननाम (निघण्टु २।७) "आयुषा" पद द्वयर्थक हैं, दो अर्थ हैं आयु और अन्न। स्वधा अन्ननाम (निघण्टु २।७)। कल्पयामि = क्लृप् सामर्थ्ये। ब्रह्मणा= वेदेन। ब्रह्म का अर्थ है वेद। अथर्व वेद का तो नाम ही है "ब्रह्मवेद", क्योंकि अथर्ववेद साक्षात् रूप से अन्य वेदों की अपेक्षया अधिकरूप में ब्रह्म का प्रतिपादन करता है, शेष वेद प्रायः परम्परया ब्रह्म का प्रतिपादन करते हैं। इसलिये ऋग्वेद में कहा है कि "यस्तं न वेद किमृचा करिष्यति" (ऋग्वेद) अर्थात् ऋचाओं का अध्ययन कर के भी जो ब्रह्म को नहीं जानता उसे ऋचाओं के अध्ययन से प्राप्त ही क्या हुआ? अतः साक्षात् तथा परम्परया ब्रह्म का प्रतिपादन करने से सभी वेदों को ब्रह्म कहते हैं। महर्षि दयानन्द ने भी कहा है कि "ब्रह्म = ईश्वरो, वेदः, तत्त्वं, तपो वा " (उणाः ४।१४७)]
विषय
क्रव्यात् अग्नि का वर्णन, दुष्टों का दमन और राजा के कर्त्तव्य।
भावार्थ
(अहम्) मैं (एतौ) इन स्त्री और पुरुष दोनों को (हविषा) हव्यचरु से और अन्न से (वि-आकरोमि) विविध रूप से पुष्ट करता हूं। और (तौ) उन दोनों को (ब्रह्मणा) ब्रह्म, वेद ज्ञान से (अहं) मैं (वि कल्पयामि) नाना प्रकार से समर्थ करता हूं। और (पितृभ्यः) परिपालक, बूढ़े लोगों के लिये (अजराम्) अजर, अविनाशी (स्वधाम्) स्वयं धारण करने योग्य अन्न को (कृणोमि) प्रदान करता हूं। और (इमान्) इन समस्त जीवों को (दीर्घेण) दीर्घ, लम्बे (आयुषा) जीवन से (सं सृजामि) युक्त करता हूं।
टिप्पणी
(तृ० च०) ‘सुधां पितृभ्योऽमृतं दुहाना’ इति पैप्प० सं०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
भृगुर्ऋषिः। अग्निरुत मन्त्रोक्ता देवताः, २१—३३ मृत्युर्देवता। २, ५, १२, २०, ३४-३६, ३८-४१, ४३, ५१, ५४ अनुष्टुभः [ १६ ककुम्मती परावृहती अनुष्टुप्, १८ निचृद् अनुष्टुप् ४० पुरस्तात् ककुम्मती ], ३ आस्तारपंक्ति:, ६ भुरिग् आर्षी पंक्तिः, ७, ४५ जगती, ८, ४८, ४९ भुरिग्, अनुष्टुब्गर्भा विपरीत पादलक्ष्मा पंक्तिः, ३७ पुरस्ताद बृहती, ४२ त्रिपदा एकावसाना आर्ची गायत्री, ४४ एकावताना द्विपदा आर्ची बृहती, ४६ एकावसाना साम्नी त्रिष्टुप्, ४७ पञ्चपदा बार्हतवैराजगर्भा जगती, ५० उपरिष्टाद विराड् बृहती, ५२ पुरस्ताद् विराडबृहती, ५५ बृहतीगर्भा विराट्, १, ४, १०, ११, २९, ३३, ५३, त्रिष्टुभः। पञ्चपञ्चाशदृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Yakshma Nashanam
Meaning
I serve them both, men and women, with the sacred food they need, and I strengthen both with the Vedic knowledge they deserve. And I provide the Pitaras, parental seniors, with the food and energy which maintains their own vitality and resistance to early aging and disease, and I provide others with food and maintenance for good health and longevity of life. (This mantra can be interpreted as a divine word, or a social promise of the ruling power, or a promise of the house-holder.)
Translation
I separate these two by oblation; I shape them apart with a spell; I make for the Fathers unwasting svadha; I unite these with a long life-time.
Translation
I, the house holding men, by the knowledge of the Vedic speeches make these two (Pitar: the men of experience and action and the men in general) strongly it (in all respects). I, through the cereals to be given to them, distinguish bet• ween two. For our learned living fathers (Pitar) I give food that casts away oldness and for these men I give that food that prongs life.
Translation
I endow both husband and wife with food, and equip them with Vedic knowledge. I grant immortal spiritual force to the learned sages, and to these men give life of long duration.
Footnote
I : God
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
३२−(व्याकरोमि) व्याख्यातौ करोमि (हविषा) दातव्यग्राह्यकर्मणा (अहम्) परमेश्वरः (एतौ) दृश्यमानौ स्त्रीपुरुषसमूहौ (तौ) (ब्रह्मणा) वेदज्ञानेन (वि) विविधम् (अहम्) (कल्पयामि) समर्थयामि (स्वधाम्) आत्मधारणशक्तिम् (पितृभ्यः) रक्षकेभ्यो विद्वद्भ्यः (अजराम्) अक्षीणाम् (कृणोमि) करोमि (दीर्घेण) (आयुषा) जीवनेन (इमान्) पितॄन् (सं सृजामि) संयोजयामि ॥
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