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अथर्ववेद के काण्ड - 12 के सूक्त 2 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 36
    ऋषिः - भृगुः देवता - अग्निः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - यक्ष्मारोगनाशन सूक्त
    1

    यत्कृ॒षते॒ यद्व॑नुते॒ यच्च॑ व॒स्नेन॑ वि॒न्दते॑। सर्वं॒ मर्त्य॑स्य॒ तन्नास्ति॑ क्र॒व्याच्चेदनि॑राहितः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत् । कृ॒षते॑ । यत् । व॒नु॒ते । यत् । च॒ । व॒स्नेन॑ । वि॒न्दते॑ । सर्व॑म् । मर्त्य॑स्य । तत् । न । अ॒स्ति॒ । क्र॒व्य॒ऽअत् । च॒ । इत् । अनि॑:ऽआहित: ॥२.३६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यत्कृषते यद्वनुते यच्च वस्नेन विन्दते। सर्वं मर्त्यस्य तन्नास्ति क्रव्याच्चेदनिराहितः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत् । कृषते । यत् । वनुते । यत् । च । वस्नेन । विन्दते । सर्वम् । मर्त्यस्य । तत् । न । अस्ति । क्रव्यऽअत् । च । इत् । अनि:ऽआहित: ॥२.३६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 2; मन्त्र » 36
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    राजा और प्रजा के कर्तव्य का उपदेश।

    पदार्थ

    (यत्) जो कुछ [मनुष्य] (कृषते) खेती करता है, (यत्) जो कुछ (वनुते) माँगता है, (च) और (यत्) जो कुछ (वस्नेन) मूल्य से (विन्दते) पाता है। (तत् सर्वम्) वह सब (मर्त्यस्य) मनुष्य का (न अस्ति) नहीं है, (च इत्=चेत्) यदि (क्रव्यात्) मांसभक्षक [दोष] (अनिराहितः) नहीं निकाला गया है ॥३६॥

    भावार्थ

    जब तक मनुष्य अपने आत्मघाती दोषों को नहीं नाश करता, अज्ञान के कारण उसके सब पुण्य कर्म और उद्योग निष्फल हो जाते हैं ॥३६॥

    टिप्पणी

    ३६−(यत्) यत् किञ्चित् (कृषते) कृषिकर्मणा उद्योगेन प्राप्नोति (यत्) (वनुते) याचते (यत्) (च) (वस्नेन) मूल्येन (विन्दते) लभते (सर्वम्) (मर्त्यस्य) मनुष्यस्य (तत्) वस्तु (न) निषेधे (अस्ति) (क्रव्यात्) मांसभक्षको दोषः (चेत्) यदि (अनिराहितः) अबहिष्कृतः ॥

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    विषय

    कृषते, वनुते, वस्नेन विन्दते

    पदार्थ

    नास्ति) = मनुष्य का वह सब नष्ट हो जाता है (यत्) = जो वह (कृषते) = कृषि द्वारा प्राप्त करता है, (यद् वनुते) = वह पिता की सम्पत्ति में संविभाग द्वारा प्रास करता है, (च) = और (यत्) = जो (वस्नेन विन्दते) = [वस्न-मूल्य] क्रय-विक्रय व्यवहार से प्राप्त करता है।

    भावार्थ

    मांसभक्षण की प्रवृत्ति मनुष्य को क्रूर व विलासी बनाकर विनाश की ओर ले जाती है। यह उसके सब धन के विनाश का कारण बनती है।

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    भाषार्थ

    (चेत्) यदि (क्रव्याद्) मांसभक्षक अग्नि (अनिराहितः) घर से निकाली नहीं गई तो (मर्त्यस्य) मरने वाले का (तत् सर्वम्) वह सब कुछ (न अस्ति) नहीं होता, अर्थात् (यत्) जो (कृषते) खेती से वह प्राप्त करता है, (यद्) जो (वनुते) दायभाग से प्राप्त करता है, (यत् च) और जो (वस्नेन) धन द्वारा (विन्दते) प्राप्त करता है, खरीदता है।

    टिप्पणी

    [मन्त्र में "क्रव्याद्" अर्थात् मांसभक्षक रूप में यक्ष्मरोग का वर्णन अग्नि पद द्वारा हुआ है, शवाग्नि का नहीं। व्यक्ति जब यक्ष्म के कारण मर गया, तो उस का सर्वस्व, उस के लिये न रहा। वनुते =वन संभक्तौ। वस्नः = वसति येन सः = मूल्यम् (उणा० ३।६)]।

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    विषय

    क्रव्यात् अग्नि का वर्णन, दुष्टों का दमन और राजा के कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    (क्रव्यात् चेत्) यदि क्रव्यात् = शवभक्षक अग्नि (अ-निर् आहितः) पृथक् आधान न किया जाय तो (यत् कृपते) मनुष्य जो खेत वाड़ी से उत्पन्न करता है (यत् वनुते) और जो पितृधन में से हिस्सा प्राप्त करता है और (यत् च) जो कुछ (वस्नेन*) व्यापार से, द्रव्यों के मूल्य प्राप्ति से (विन्दते) प्राप्त करता है (मर्त्यस्य) मनुष्य का (तत् सर्वम्) वह सब कुछ (नास्ति) नहीं सा हो जाता है, व्यर्थ जाता है। अर्थात् श्वाग्नि को सदा गार्हपत्य अग्नि से पृथग् आधान करना ही चाहिये। और मुर्दों का यथोचित दाह करना चाहिये। क्रव्यात् अग्नि, मृत-पुरुष के आत्मा के समान है।

    टिप्पणी

    ‘वस्तेन’ इति क्वचित्। * वसति येन सः वस्नः, मूल्यं वेतनं वेति दयानन्द उणादौ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भृगुर्ऋषिः। अग्निरुत मन्त्रोक्ता देवताः, २१—३३ मृत्युर्देवता। २, ५, १२, २०, ३४-३६, ३८-४१, ४३, ५१, ५४ अनुष्टुभः [ १६ ककुम्मती परावृहती अनुष्टुप्, १८ निचृद् अनुष्टुप् ४० पुरस्तात् ककुम्मती ], ३ आस्तारपंक्ति:, ६ भुरिग् आर्षी पंक्तिः, ७, ४५ जगती, ८, ४८, ४९ भुरिग्, अनुष्टुब्गर्भा विपरीत पादलक्ष्मा पंक्तिः, ३७ पुरस्ताद बृहती, ४२ त्रिपदा एकावसाना आर्ची गायत्री, ४४ एकावताना द्विपदा आर्ची बृहती, ४६ एकावसाना साम्नी त्रिष्टुप्, ४७ पञ्चपदा बार्हतवैराजगर्भा जगती, ५० उपरिष्टाद विराड् बृहती, ५२ पुरस्ताद् विराडबृहती, ५५ बृहतीगर्भा विराट्, १, ४, १०, ११, २९, ३३, ५३, त्रिष्टुभः। पञ्चपञ्चाशदृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Yakshma Nashanam

    Meaning

    All that mortal man produces by farming, whatever he receives by salary, and whatever he earns by trade, is not his really, unless he eliminates the Kravyadagni and its cause from the house.

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    Translation

    What one plows, what one wins, and what one gains by pay -- all that is not a mortal’s; if the flesh-eating one be unremoved.

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    Translation

    If Kravyad fire is not separated from and is used in the place of house-hold fire, the man involved in loses all that he produces by ploughing that acquired by toil of hand and that by exchange of things.

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    Translation

    What man acquires by plough, or inherits from ancestors, or earns through trade, he loses all if he does not give up the vice of meat-eating.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ३६−(यत्) यत् किञ्चित् (कृषते) कृषिकर्मणा उद्योगेन प्राप्नोति (यत्) (वनुते) याचते (यत्) (च) (वस्नेन) मूल्येन (विन्दते) लभते (सर्वम्) (मर्त्यस्य) मनुष्यस्य (तत्) वस्तु (न) निषेधे (अस्ति) (क्रव्यात्) मांसभक्षको दोषः (चेत्) यदि (अनिराहितः) अबहिष्कृतः ॥

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