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अथर्ववेद के काण्ड - 12 के सूक्त 2 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 19
    ऋषिः - भृगुः देवता - अग्निः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - यक्ष्मारोगनाशन सूक्त
    1

    सीसे॑ मृड्ढ्वं न॒डे मृ॑ड्ढ्वम॒ग्नौ संक॑सुके च॒ यत्। अथो॒ अव्यां॑ रा॒मायां॑ शीर्ष॒क्तिमु॑प॒बर्ह॑णे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सीसे॑ । मृ॒ड्ढ्व॒म् । न॒डे । मृ॒ड्ढ्व॒म् । अ॒ग्नौ । सम्ऽक॑सुके । च॒ । यत् । अथो॒ इति॑ । अव्या॑म् । रा॒माया॑म् । शी॒र्ष॒क्तिम् । उ॒प॒ऽबर्ह॑णे ॥२.१९॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सीसे मृड्ढ्वं नडे मृड्ढ्वमग्नौ संकसुके च यत्। अथो अव्यां रामायां शीर्षक्तिमुपबर्हणे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सीसे । मृड्ढ्वम् । नडे । मृड्ढ्वम् । अग्नौ । सम्ऽकसुके । च । यत् । अथो इति । अव्याम् । रामायाम् । शीर्षक्तिम् । उपऽबर्हणे ॥२.१९॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 2; मन्त्र » 19
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    राजा और प्रजा के कर्तव्य का उपदेश।

    पदार्थ

    [हे मनुष्यो !] (सीसे) बन्धननाशक विधान में (नडे) बन्धन [वा नरकट समान तीक्ष्ण शस्त्र] में (च) और (संकसुके) सम्यक् शासक (अग्नौ) अग्नि [समान तेजस्वी पुरुष] में, (यत्) जो कुछ [शिर पीड़ा है उसे] (मृड्ढ्वम्) तुम शुद्ध करो। (अथो) और भी (रामायाम्) रमण करानेवाली [सुख देनेवाली] (अव्याम्) रक्षा करनेवाली प्रकृति [सृष्टि] के भीतर [वर्तमान] (उपबर्हणे) सुन्दर वृद्धि में [आनेवाली] (शीर्षक्तिम्) शिर पीड़ा [रोक] को (मृड्ढ्वम्) शुद्ध करो ॥१९॥

    भावार्थ

    जो पुरुष शुभ कर्मों और शुभ मनुष्यों में आनेवाले विघ्नों को मिटाते हैं, वे अपने कार्य सिद्ध करते हैं ॥१९॥

    टिप्पणी

    १९−(सीसे) म० १। बन्धननाशके विधाने (मृड्ढ्वम्) शोधयत (नडे) म० २। बन्धने तृणविशेषवत्तीक्ष्णशस्त्रे (मृड्ढ्वम्) (अग्नौ) अग्निवत्तेजस्विन् पुरुषे (संकसुके) म० ११। सम्यक् शासके (च) (यत्) या शीर्षक्तिस्ताम् (अथो) अपि च (अव्याम्) सर्वधातुभ्य इन्। उ० ४।११८। अव रक्षणादिषु−इन्। रक्षिकायां प्रकृतौ सृष्टौ। अधिः=रक्षिका प्रकृतिः−दयानन्दभाष्ये, यजु० २३।५४। (रामायाम्) रमयतीति रामा, रमु क्रीडायाम्−ण। रमयित्र्याम्। आनन्दयित्र्याम् (शीर्षक्तिम्) अ० १।१२।३। शीर्ष+अञ्चु गतिपूजनयोः−क्तिन्। शिरःपीडाम्। विघ्नम् (उपबर्हणे) अ० ९।७।२९। उप+बर्ह वृद्धौ−ल्युट्। सुवर्धने ॥

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    विषय

    सीस व नड' प्रभु का स्मरण

    पदार्थ

    १. "किस प्रकार मनुष्य संसार में आता है, कुछ बड़ा होता है, शिक्षणालय को पूरा करके गृहस्थ में प्रवेश करता है, कुछ फूलता-फलता है, जिम्मेदारियों को समाप्त करके जाने की तैयारी करता है' यह सब-कुछ सोचने पर यह संसार एक शिरोवेदना के समान ही प्रतीत होता है झंझट-ही-झंझट-सा लगता है। मन्त्र में कहते हैं कि (यत्) = इस (शीर्षक्तिम्) = शिरोवेदना को (सीसे मृड्ढ्व म्) = उस [षिञ् बन्धने, ई गतौ 'ईयते', स्यति 'षोऽन्तकर्मणि'] संसार को बाँधनेवाले, उसे गति देनेवाले व उसका अन्त करनेवाले 'उत्पत्ति, स्थिति व प्रलय' हेतु प्रभु में शोध डालो प्रभु स्मरण द्वारा सिरदर्दी को दूर कर डालो। प्रभु-स्मरण होने पर संसार-यात्रा सुखेन पूर्ण हो जाती है। (नडे मृड्ड्वम्) = [नड गहने] उस गहन [Incomprehensible] अचिन्त्य प्रभु से इसे शोध डालो। इससे उस नड' प्रभु में विलीन हुआ-हुआ मन परेशान नहीं होता। च-और उस संकसुके अग्नौ-सम्यक् शासन करनेवाले-सम्यक गति देनेवाले अग्नणी प्रभु में इस सिरदर्द को शोध डालो। प्रभु-स्मरण उस शान्ति व शक्ति को देगा, जिससे यह यात्रा ठीक प्रकार से पूर्ण हो जाएगी। २. (अथो) = और (रामायां अव्याम्) = सर्वत्र रमण करनेवाले [अव रक्षणे] सर्वरक्षक प्रभु में इस शिरोवेदना का अन्त कर डालो। प्रभुचिन्तन संसार को सुखद बना देगा। अन्त में (उपबर्हणे) = उस उपासकों की वृद्धि के कारणभूत ब्रह्म में [बृहि वृद्धी] इस वेदना का अन्त कर डालो।

    भावार्थ

    हम प्रभु का स्मरण करें कि वे संसार की 'उत्पत्ति, स्थिति व प्रलय' का हेतु हैं। अचिन्त्य हैं, शासक व गति देनेवाले हैं, सर्वरक्षक व सर्वत्र रमण करनेवाले हैं। वे प्रभु उपासकों की वृद्धि के कारणभूत हैं। इस प्रकार प्रभु का स्मरण होने पर यह संसार हमारे लिए सिरदर्द न बनेगा।

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    भाषार्थ

    (यत् शीर्षक्तिम्) जो शिरोवेदना है उस को (सीसे) सीसभस्म में (मृड्ढ्वम्) धो डालो, (नडे) नड में (मृड्ढ्वम्) धो डालो, (च संकसुके अग्नौ) और संकसुक अग्नि में धो डालो। (अथो) तथा (रामायाम् अव्याम्) अभिराम तथा रक्षक सूर्य में धो डालो, (उपबर्हणे) तथा उपबर्हण में धो डालो।

    टिप्पणी

    [सीसभस्म द्वारा शिरोवेदना दूर होती हैं। यथा "सोंठ के चूर्ण और पुराने गुड़ के साथ नागभस्म अर्थात् सीस भस्म को खाने से सिर का दर्द और कमर का दर्द मिटता हैं" (वनौषधि चन्द्रोदय 'सीस' शीर्षक में)। नडे= सीसभस्म नड पर तय्यार की जाती है, अतः शीर्षक्ति रोग में नड का वर्णन हुआ है। संकसुक अग्नि नडाग्नि प्रतीत होती है, जिसे नड पर प्रदीप्त कर के सीसभस्म तय्यार होती है। संकसुक अग्नि, शवाग्नि है, परन्तु नड तथा सीस के दाहक होने के कारण नडाग्नि को भी संकुसक अग्नि कहा प्रतीत होता है। यह शव का भी दहन करती है तथा नड और सीस का भी। अव्याम् रामायाम् = रमणीय गुणों वाला रक्षक सूर्य (भव रक्षणे)। यथा “अविर्वै नाम देवतर्तेनास्ते परीवृता। तस्या रूपेणेमे वृक्षा हरिता हरितस्रजः।। (अथर्व० १०/८/३१)। इस मन्त्र में "अवि" द्वारा रक्षक सूर्य का वर्णन हुआ है, जिस द्वारा कि वृक्ष हरे होते हैं, और लतारूपी हरी मालाएं धारण करते हैं। "अव्यां रामायाम्१" "काली भेड़ के दूध में"– ऐसा अर्थ भी सम्भव है। परीक्षणों द्वारा यह देखना चाहिये कि इस दूध का यक्ष्मरोग, यक्ष्मरोग-जन्य शिरोवेदना या सामान्य शिरोवेदना के साथ सम्बन्ध है या नहीं। उपबर्हणे – उपबर्हण का अर्थ प्रायः सिरहाना अर्थात् तकिया होता है। इस का सामान्य अभिप्राय यह हो सकता है कि शिरोवेदना में तकिये पर सिर रख कर सो जाओ तो सोने से आराम मिल जायेगा। परन्तु इस का अन्य अर्थ भी सम्भव है। शीर्षक्तिरोग यक्ष्मा का भी परिणाम होता है, देखो (अथर्व० ९।८।१, १०)। सिर के रोगों की निवृत्ति "उदित होते हुए आदित्य की रश्मियों" द्वारा भी होती है, और यक्ष्मरोग का भी विनाश होता है। यथा "सं ते शीर्ष्णः कपालानि हृदयस्य च यो विधुः। उद्यान्नादित्य रश्मिभिः शीर्ष्णो रोगमनीनशोऽङ्ग-भेदमशीशमः" (अथर्व० ९।८।२२)। तथा "शीर्षण्ययक्ष्मा को मस्तिष्क से निकाल देने का वर्णन", तथा तदर्थ "कश्यप के वीवर्हण" के प्रयोग का भी वर्णन मिलता है। यथा "यक्ष्मं शीर्षण्यं मस्तिष्काजिह्वाया विवृहामि ते" (अथर्व० २।३३।१); तथा “कश्यपस्य वीवर्हेण विश्वञ्चं विवृहामि ते" (अथर्व० २।३३।७)। "कश्यप" का अभिप्राय है आदित्य। यथा "कश्यपस्य ज्योतिषा वर्चसा च" (अथर्व० १७।१।२८)। ज्योति और वर्चस् से सम्पन्न आदित्य ही है। २।२३।७, २८ में "विवृहामि", "वीवर्हेण” तथा "उपवर्हणे" में एक ही "वृह" धातु का प्रयोग है, जिसका अर्थ है - हिंसा (चुरादि, भ्वादिगण)। इस प्रकार "उपवर्हण" का अर्थ है "हिंसा करने वाली आदित्य की रश्मि"; हिंसा = रोग की हिंसा अर्थात् विनाश। इस प्रकार "अवि", और "कश्यप " समानाभिप्रायक हैं]। [१. रामा = कृष्णा, काली ! यथा "अधोरामः सावित्रः" इति पशुसंमाम्नाये (यजु० २९।२८) विज्ञायते, कस्मात् सामान्यादित्यवस्तात्तद् वेलायां तमो भवत्येतस्मात् सामान्यात, अधस्ताद् रामोऽधस्तात् कृष्णः (निरुक्त १२।२-४; सविता की व्याख्या में)।]

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    विषय

    क्रव्यात् अग्नि का वर्णन, दुष्टों का दमन और राजा के कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    (सीसे) सीसे में (यत्) जिस प्रकार चांदी आदि धातु का मल रह जाता है और धातु निखर आती है उसी प्रकार अपने आत्मा को उस ब्रह्ममय अग्नि में (मृढ्वं) तपाओ और शुद्ध करो, मल छूट जायगा और आत्मा शुद्ध हो जायगा। (नडे मृड्-ढ्व-म्) जिस प्रकार नड़ों या सरकण्डों की बनाई चालनी में से जल निकालने से मल ऊपर अटक जाता है उसी प्रकार उस परमेश्वर की बनी छाननी में से गुज़ार कर अपने को शुद्ध करो। (संकसुके) सर्वनाशक (अग्नौ च मृड्-ढ्वम्) सर्व भस्मकारी अग्नि में मल फेंकने से सब जल जाता है और स्थान शुद्ध हो जाता है या सर्व प्रकाशक राजा के हाथ में अपराधी को देने से उसके अपराध दूर हो जाते हैं या ‘संकसुके’ क्रव्याद अग्नि में शवको डालने से जैसे मलिन भाग जल जाता है और शुद्ध अस्थि रह जाती है या तत्व तत्वों में मिल जाते हैं उसी प्रकार सर्व प्रकाशक परमात्मा में अपने आपको शुद्ध करो। (अथो) और जिस प्रकार (रामायाम्) काले रंग की (अव्यां) भेड़ में क्रव्याड् = मांसभक्षी जन्तु को प्रलोभित कर मनुष्य स्वयं वच जाता है और जिस प्रकार शिर की पीड़ा होने पर (शीर्षक्तिम् उपबर्हणे) शिर को सिरहाने पर आराम से रख देने पर रोगी शिरोरोग से मुक्त होकर सुख से सोता है उसी प्रकार तुम (अव्यां रामायाम्) सर्व रमणकारिणी, परम दिव्या, सब की रक्षा करनेहारी उस परमात्मा शक्ति पर अपने को अर्पित करो और सब के (उपबर्हणे) बढ़ानेहारे उस ब्रह्म में आश्रय लेकर आपने सब कष्टों को वहीं घर कर सुखी हो जाओ। इस मन्त्र में केवल उपमेयों के संग्रह करके वाचक शब्द और उपमेय को लोप करके उपमा का प्रयोग किया है। और सब उपमेय पद भी श्लेष से उपमान को दर्शाते हैं। जैसे ‘सीसम्’—सर्व बन्धनों का काटने वाला, ‘नडः’—सर्वोपदेष्टा, इत्यादि। मानवधर्म सूत्र में—सीसेन मलिम्लुचामहे शिरोर्त्तिमुपबर्हणे। क्रव्यादं रामया मृष्ट्वा अस्तंप्रेतसुदानवः॥ अर्थ—जिस प्रकार सीसे से धातु के मल को दूर करते हैं, सिरहाने पर सिर के दर्द को अच्छा करते हैं और जिस प्रकार भेड़ देकर हम ‘क्रव्याद्’ भेड़िये आदि को अपने से दूर करते हैं, उसी प्रकार क्रव्यात् अग्नि को नगर से बाहर छोड़कर अपने अपने घर जाओ। सीसे का धातु-मल-शोधक होने का प्रकार न्यारिया, सुनार आदि के द्वारा जानना चाहिये।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भृगुर्ऋषिः। अग्निरुत मन्त्रोक्ता देवताः, २१—३३ मृत्युर्देवता। २, ५, १२, २०, ३४-३६, ३८-४१, ४३, ५१, ५४ अनुष्टुभः [ १६ ककुम्मती परावृहती अनुष्टुप्, १८ निचृद् अनुष्टुप् ४० पुरस्तात् ककुम्मती ], ३ आस्तारपंक्ति:, ६ भुरिग् आर्षी पंक्तिः, ७, ४५ जगती, ८, ४८, ४९ भुरिग्, अनुष्टुब्गर्भा विपरीत पादलक्ष्मा पंक्तिः, ३७ पुरस्ताद बृहती, ४२ त्रिपदा एकावसाना आर्ची गायत्री, ४४ एकावताना द्विपदा आर्ची बृहती, ४६ एकावसाना साम्नी त्रिष्टुप्, ४७ पञ्चपदा बार्हतवैराजगर्भा जगती, ५० उपरिष्टाद विराड् बृहती, ५२ पुरस्ताद् विराडबृहती, ५५ बृहतीगर्भा विराट्, १, ४, १०, ११, २९, ३३, ५३, त्रिष्टुभः। पञ्चपञ्चाशदृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Yakshma Nashanam

    Meaning

    Whatever headache of existential smear or cancerous consumption is there, wash it off in lead-ash, wash it off in the reed fire, wash it off in the purifying fire, wash it off in the purity of nature and in the pure warmth of the sun.

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    Translation

    Wipe ye off on the lead; wipe ye off on the reeds; and what on the consuming fire; likewise on the dark ewe; headache on the pillow.

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    Translation

    Let this fire made means remove whatever dirt remains in lead, whatever dirt in arrow whatever dirt in Sanksuk fire, whatever in the black sheep and whatever in the pillow on which rests the head.

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    Translation

    Just as lead removes the dross of a metal, so purify the soul through the Zeal of God’s contemplation. Just as a sieve made of reed removes the chaff of flour, so purify thyself by passing thyself through austerity, the sieve of God. Just as dirt is burnt in an all-destroying fire, so purify thyself through the fervent devotion of God. Just as headache is removed by reclining on a pillow, so remove thy afflictions by resigning thyself to God, the Protector, and the Bestower of joy!

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १९−(सीसे) म० १। बन्धननाशके विधाने (मृड्ढ्वम्) शोधयत (नडे) म० २। बन्धने तृणविशेषवत्तीक्ष्णशस्त्रे (मृड्ढ्वम्) (अग्नौ) अग्निवत्तेजस्विन् पुरुषे (संकसुके) म० ११। सम्यक् शासके (च) (यत्) या शीर्षक्तिस्ताम् (अथो) अपि च (अव्याम्) सर्वधातुभ्य इन्। उ० ४।११८। अव रक्षणादिषु−इन्। रक्षिकायां प्रकृतौ सृष्टौ। अधिः=रक्षिका प्रकृतिः−दयानन्दभाष्ये, यजु० २३।५४। (रामायाम्) रमयतीति रामा, रमु क्रीडायाम्−ण। रमयित्र्याम्। आनन्दयित्र्याम् (शीर्षक्तिम्) अ० १।१२।३। शीर्ष+अञ्चु गतिपूजनयोः−क्तिन्। शिरःपीडाम्। विघ्नम् (उपबर्हणे) अ० ९।७।२९। उप+बर्ह वृद्धौ−ल्युट्। सुवर्धने ॥

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