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अथर्ववेद के काण्ड - 12 के सूक्त 2 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 40
    ऋषिः - भृगुः देवता - अग्निः छन्दः - पुरस्तात्ककुम्मत्यनुष्टुप् सूक्तम् - यक्ष्मारोगनाशन सूक्त
    1

    यद्रि॒प्रं शम॑लं चकृ॒म यच्च॑ दुष्कृ॒तम्। आपो॑ मा॒ तस्मा॑च्छुम्भन्त्व॒ग्नेः संक॑सुकाच्च॒ यत् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत् । रि॒प्रम् । शम॑लम् । च॒कृ॒म । यत् । च॒ । दु॒:ऽकृ॒तम् । आप॑: । मा॒ । तस्मा॑त् । शु॒म्भ॒न्तु॒ । अ॒ग्ने: । सम्ऽक॑सुकात् । च॒ । यत् ॥२.४०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यद्रिप्रं शमलं चकृम यच्च दुष्कृतम्। आपो मा तस्माच्छुम्भन्त्वग्नेः संकसुकाच्च यत् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत् । रिप्रम् । शमलम् । चकृम । यत् । च । दु:ऽकृतम् । आप: । मा । तस्मात् । शुम्भन्तु । अग्ने: । सम्ऽकसुकात् । च । यत् ॥२.४०॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 2; मन्त्र » 40
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    राजा और प्रजा के कर्तव्य का उपदेश।

    पदार्थ

    (संकसुकात्) यथावत् शासक (अग्नेः) अग्नि [समान तेजस्वी पुरुष] से पृथक् होकर (यत्) जो कुछ (रिप्रम्) पाप (च) और (यत्) जो कुछ (शमलम्) भ्रष्ट व्यवहार (च) और (यत्) जो कुछ (दुष्कृतम्) दुष्ट कर्म (चकृम) हमने किया है, (आपः) आप्त प्रजाएँ [यथार्थवक्ता लोग] (मा) मुझको (तस्मात्) उस [पापादि] से पृथक् करके (शुम्भन्तु) शोभायमान करें ॥४०॥

    भावार्थ

    यदि मनुष्य सुसंगति छोड़ कर पाप कर्म करे, तो वह विद्वानों यथार्थ उपदेशकों का आश्रय लेकर अपने को फिर शुद्ध पवित्र बनावे ॥४०॥

    टिप्पणी

    ४०−(यत्) यत् किञ्चित् (रिप्रम्) पापम् (शमलम्) अ० ४।९।६। शकिशम्योर्नित्। उ० १।११२। शमु उपशमे−कल प्रत्ययः। अशुद्धव्यवहारम् (चकृम) वयं कृतवन्तः (यत्) (च) (दुष्कृतम्) (आपः) आप्ताः प्रजाः−दयानन्दभाष्ये, यजु० ६।२७। यथार्थवक्तारः पुरुषाः (मा) माम् (तस्मात्) पापादिकर्मणः पृथक् कृत्वा (शुम्भन्तु) शुम्भ दीप्तौ शोभायाम्। शुम्भयन्तु। शोभयन्तु (अग्नेः) अग्निवत्तेजस्विनः पुरुषात् पृथग् भूत्वा (संकसुकात्) म० ११। सम्यक् शासकात् (च) (यत्) ॥

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    विषय

    'रिप्र, शमल, दुष्कृत' निराकरण

    पदार्थ

    १. (यत् रिप्रम्) = जिस दोष को, (शमलाम्) = पाप [sin] को, (च) = और (यत् दुष्कृतम्) = जिस दुष्कर्म-अशुभ व्यवहार को (चकृम) = हम कर बैठे, (आप:) = [आपो नाराः इति प्रोक्ताः, आप्नुवन्ति सद्गुणान् याः ताः] उत्तम गुणोंवाले पुरुष (मा) = मुझे (तस्मात्) = उस पाप से (शुम्भन्तु) = शुद्ध करनेवाले हों। वे आत पुरुष उत्तम ज्ञान देकर मेरे दुर्गुणों को दूर करनेवाले हों। २. (च) = तथा (यत्) = जो भी (संकसुकात् अग्ने:) = संकसुक अग्नि, अर्थात् सम्यक् शासन करनेवाले व सारे ब्राह्माण्ड को गति देनेवाले प्रभु से दूर होकर हम भी पाप कर बैठते हैं, उस सबसे ये आप्त पुरुष मुझे दूर करनेवाले हो|

    भावार्थ

    हम कर्मों में जो भी त्रुटि कर बैठते हैं या अशुभ व्यवहार कर बैठते हैं, उस सबसे सद्गुणी पुरुष हमें दूर करनेवाले हों। उस शासक, गति-प्रदाता प्रभु को भूलकर हम जो पाप कर बैठते हैं, उससे भी ये आस पुरुष हमें पृथक करें।

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    भाषार्थ

    (यत्) जो (रिप्रम्) कुत्सित कर्म, (शमलम्) चित्त की शान्ति को समाप्त कर देने वाला कर्म, (यत् च) और जो (दुष्कृतम्) दुराचार (चकृम) हमने किया है, तथा (यत्) जो (संकसुकात् अग्नेः) शवाग्नि की चञ्चल ज्वाला या यक्ष्म से कष्ट हुआ है (तस्मात्) उस सब से छुड़ा कर (आपः) व्यापक परमेश्वर तथा जल (मा) मुझे (शुम्भन्तु) पुनः सुशोभित कर दें।

    टिप्पणी

    [रिप्रम् = कुत्सितम्, “लीरीङोर्ह्रस्वः पुट् च तरौ श्लेषणकुत्सनयोः” (उणा० ५।५५)। शमलम् = शम् (शान्ति) + अलम्। आपः = परमेश्वर यथा "ता आपः स प्रजापति" (यजु० ३२।१) आपः =जल। अर्थात् परमेश्वरीय उपासना तथा जल चिकित्सा द्वारा यथासम्भव मन्त्र निर्दिष्ट दोषों का उपचार करना चाहिये। शवाग्नि की गर्मी की चञ्चल ज्वाला के कारण यदि कोई शारीरिक कष्ट प्राप्त हुआ है तो उसे जलचिकित्सा द्वारा स्वस्थ करना चाहिये। संकसुकः= चञ्चलः (उणा० २।३० = महर्षि दयानन्द); अस्थिर (उणा० २।३०; भट्टोजी दीक्षित), क्रव्याद् = मांस भक्षक अग्नि; संकसुक = चञ्चल शवाग्नि, वायु के झोंकों के कारण शवाग्नि की चञ्चल हुई ज्वाला। संकसुकः = सम् +कसि (गतौ)]।

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    विषय

    क्रव्यात् अग्नि का वर्णन, दुष्टों का दमन और राजा के कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    शव दाह कर चुकने के बाद शुद्ध हो जांय। अर्थात् (यत्) जो (रिप्रम्) पाप (शमलम्) मलिन धौर (यत् च) जो (दुष्कृतम्) बुरे काम भी हम (चक्रम) करते हैं (आपः) जलों के समान पवित्र आप्त पुरुष (मा) मुझे, हमें (तस्मात्) उस पापादि बुरे संकल्पों से और (संकसुकात् अग्नेः च) संकसुक, शव भक्षी अग्नि से भी (शुम्भन्तु) पवित्र करें।

    टिप्पणी

    ‘यदुरितम्’, (तृ०) ‘शुन्धन्तु’ (च०) ‘अग्निः संकुसिकाच्च यः’ इति पैप्प० सं०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भृगुर्ऋषिः। अग्निरुत मन्त्रोक्ता देवताः, २१—३३ मृत्युर्देवता। २, ५, १२, २०, ३४-३६, ३८-४१, ४३, ५१, ५४ अनुष्टुभः [ १६ ककुम्मती परावृहती अनुष्टुप्, १८ निचृद् अनुष्टुप् ४० पुरस्तात् ककुम्मती ], ३ आस्तारपंक्ति:, ६ भुरिग् आर्षी पंक्तिः, ७, ४५ जगती, ८, ४८, ४९ भुरिग्, अनुष्टुब्गर्भा विपरीत पादलक्ष्मा पंक्तिः, ३७ पुरस्ताद बृहती, ४२ त्रिपदा एकावसाना आर्ची गायत्री, ४४ एकावताना द्विपदा आर्ची बृहती, ४६ एकावसाना साम्नी त्रिष्टुप्, ४७ पञ्चपदा बार्हतवैराजगर्भा जगती, ५० उपरिष्टाद विराड् बृहती, ५२ पुरस्ताद् विराडबृहती, ५५ बृहतीगर्भा विराट्, १, ४, १०, ११, २९, ३३, ५३, त्रिष्टुभः। पञ्चपञ्चाशदृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Yakshma Nashanam

    Meaning

    Whatever the sin, evil or trespass that we have committed, which has smeared our peace and purity, may the soothing streams of waters and the tranquillity of divine meditation cleanse us of that and save us from the mind-splitting flames of Kravyadagni.

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    Translation

    What evil, pollution we have committed, and what ill doing, from that let the waters cleanse me, and also from the crushing Agni.

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    Translation

    Let the waters natural or medically prepared free me from ailing diet etc, dirt, whatever reverses have been done and also from the effect that is caused by Sanksuk fire.

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    Translation

    Forsaking the company of a noble, just ruler, if we have committed any evil, act of impurity, or sin, let highly learned persons purge me from all that.

    Footnote

    The word आपः has been translated by Maharshi Dayanand as highly learned persons, see Yajur, 6-27

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ४०−(यत्) यत् किञ्चित् (रिप्रम्) पापम् (शमलम्) अ० ४।९।६। शकिशम्योर्नित्। उ० १।११२। शमु उपशमे−कल प्रत्ययः। अशुद्धव्यवहारम् (चकृम) वयं कृतवन्तः (यत्) (च) (दुष्कृतम्) (आपः) आप्ताः प्रजाः−दयानन्दभाष्ये, यजु० ६।२७। यथार्थवक्तारः पुरुषाः (मा) माम् (तस्मात्) पापादिकर्मणः पृथक् कृत्वा (शुम्भन्तु) शुम्भ दीप्तौ शोभायाम्। शुम्भयन्तु। शोभयन्तु (अग्नेः) अग्निवत्तेजस्विनः पुरुषात् पृथग् भूत्वा (संकसुकात्) म० ११। सम्यक् शासकात् (च) (यत्) ॥

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