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अथर्ववेद के काण्ड - 12 के सूक्त 2 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 16
    ऋषिः - भृगुः देवता - अग्निः छन्दः - ककुम्मती पराबृहत्यनुष्टुप् सूक्तम् - यक्ष्मारोगनाशन सूक्त
    1

    अन्ये॑भ्यस्त्वा॒ पुरु॑षेभ्यो॒ गोभ्यो॒ अश्वे॑भ्यस्त्वा। निः क्र॒व्यादं॑ नुदामसि॒ यो अ॒ग्निर्जी॑वित॒योप॑नः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अन्ये॑भ्य: । त्वा॒ । पुरु॑षेभ्य: । गोभ्य॑: । अश्वे॑भ्य: । त्वा॒ । नि: । क्र॒व्य॒ऽअद॑म् । नु॒दा॒म॒सि॒ । य: । अ॒ग्नि: । जी॒वि॒त॒ऽयोप॑न: ॥२.१६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अन्येभ्यस्त्वा पुरुषेभ्यो गोभ्यो अश्वेभ्यस्त्वा। निः क्रव्यादं नुदामसि यो अग्निर्जीवितयोपनः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अन्येभ्य: । त्वा । पुरुषेभ्य: । गोभ्य: । अश्वेभ्य: । त्वा । नि: । क्रव्यऽअदम् । नुदामसि । य: । अग्नि: । जीवितऽयोपन: ॥२.१६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 2; मन्त्र » 16
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    हिन्दी (4)

    विषय

    राजा और प्रजा के कर्तव्य का उपदेश।

    पदार्थ

    (यः) जो (अग्निः) अग्नि [समान सन्तापकारी] (जीवितयोपनः) जीवन को व्याकुल करनेवाला पुरुष है, [उस] (क्रव्यादम्) मांसभक्षक (त्वा) तुझ को (अन्येभ्यः) जीते हुए (पुरुषेभ्यः) पुरुषों से और (त्वा) तुझ को (गोभ्यः) गौओं से और (अश्वेभ्यः) घोड़ों से (निः नुदामसि) हम निकाले देते हैं ॥१६॥

    भावार्थ

    सज्जन पुरुष दुःखदायी दुष्टों के निकालने में सदा प्रयत्न करें ॥१६॥

    टिप्पणी

    १६−(अन्येभ्यः) माछाशसिभ्यो यः। उ० ४।१०९। अन जीवने−यः। जीवद्भ्यः (त्वा) दुष्टम् (पुरुषेभ्यः) (गोभ्यः) (अश्वेभ्यः) (त्वा) (क्रव्यादम्) मांसभक्षकम् (निर्णुदामसि) निर्गमयामः (यः) (अग्निः) अग्निवत्सन्तापकः पुरुषः (जीवितयोपनः) जीवनविमोहकः ॥

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    विषय

    सर्वहित के लिए क्रव्याद् का निर्णोदन

    पदार्थ

    १. हम (त्वा) = तुझ 'क्रव्याद् अग्नि' को-मांसभक्षक सन्तापक पुरुष को (अन्येभ्यः पुरुषेभ्य:) = अन्य पुरुषों के हित के लिए भी (निःनुदामसि) = दूर प्रेरित करते हैं। (गोभ्यः अश्वेभ्य:) = गौवों व घोड़ों के हित के लिए भी (त्वा) = तुझे दूर प्रेरित करते हैं। २. उस तुझको हम दूर प्रेरित करते हैं, (य:) = जो तू (जीवितयोपन:) = [योपयति destroy, blot out, obliterate] जीवन को नष्ट करनेवाला (अग्नि:) = अग्निवत् सन्तापक है।

    भावार्थ

    सबके हित के लिए मांसभक्षक, अग्निवत् सन्तापक, जीवन के विनाशक पुरुष को दूर करना ही चाहिए।

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    भाषार्थ

    (त्वा) तुझे (अन्येभ्यः पुरुषेभ्यः) अन्य पुरुषों से, (त्वा) तुझे (गोभ्यः अश्वेभ्यः) गौओं और अश्वों से, (क्रव्यादम्) अर्थात् तुझ क्रव्याद् को (निः नुदामसि) हम निकाल फैंकते हैं, (यः) जो तू कि (जीवितयोपनः) जीवितों को व्याकुल कर देता है।

    टिप्पणी

    [क्रव्याद् से अभिप्रेत है यक्ष्मरोग, जोकि रोगी के मांस को खाता रहता है, और जीवितों को व्याकुल कर देता है। मन्त्र १५ में "नः" द्वारा अपनों के यक्ष्मरोगों की चिकित्सा का वर्णन हुआ है, और मन्त्र में अन्यों की चिकित्सा का। अन्यों को सेवा, धर्मकार्य है। मन्त्र में अन्यों की सेवा के लिये प्रेरणा दी है]।

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    विषय

    क्रव्यात् अग्नि का वर्णन, दुष्टों का दमन और राजा के कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    हे क्रव्याद्, कच्चा मांस खाने वाले ! तू (यः) जो (अग्निः) अग्नि के समान तापकारी होकर (जीवितयोपनः) जीवन का नाशकारी है, उस तुझ (क्रव्याद्) जीवों के कच्चा मांस खाने वाले (वा) तुझको (अन्येभ्यः* पुरुषेभ्यः) अन्य दूसरे, शत्रु पुरुषों और (गोभ्यः अश्वेभ्यः त्वा) गौओं और घोड़ों की रक्षा के लिये (निः नुदामः) इस राष्ट्र से परे निकालते हैं। अथवा अपने से अतिरिक्त पुरुषों गौओं और घोड़ों से भी तुझको परे करें।

    टिप्पणी

    (प्र० द्वि०) ‘अज्ञाना पुरुषेभ्य’ इति पैप्प० सं०। ‘अन्पेभ्यः’ इति ह्विटनिकामितः। * ‘अन्येभ्यः अक्षयेभ्यः असंख्येभ्यः’ इति ह्विनिः। भत्र मानवगृह्यप्रोक्तो विनियोगः क्रव्यादग्निमार्जने द्रष्टव्यः। मानव। गृ० सू० २। १। ११। तत्र ‘सुमित्रा न आप ओषधयः’ इत्यादि मन्त्रो विनियुज्यते। तदभिप्रायमेवैषा ऋगवदति।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भृगुर्ऋषिः। अग्निरुत मन्त्रोक्ता देवताः, २१—३३ मृत्युर्देवता। २, ५, १२, २०, ३४-३६, ३८-४१, ४३, ५१, ५४ अनुष्टुभः [ १६ ककुम्मती परावृहती अनुष्टुप्, १८ निचृद् अनुष्टुप् ४० पुरस्तात् ककुम्मती ], ३ आस्तारपंक्ति:, ६ भुरिग् आर्षी पंक्तिः, ७, ४५ जगती, ८, ४८, ४९ भुरिग्, अनुष्टुब्गर्भा विपरीत पादलक्ष्मा पंक्तिः, ३७ पुरस्ताद बृहती, ४२ त्रिपदा एकावसाना आर्ची गायत्री, ४४ एकावताना द्विपदा आर्ची बृहती, ४६ एकावसाना साम्नी त्रिष्टुप्, ४७ पञ्चपदा बार्हतवैराजगर्भा जगती, ५० उपरिष्टाद विराड् बृहती, ५२ पुरस्ताद् विराडबृहती, ५५ बृहतीगर्भा विराट्, १, ४, १०, ११, २९, ३३, ५३, त्रिष्टुभः। पञ्चपञ्चाशदृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Yakshma Nashanam

    Meaning

    O Kravyadagni, flesh eating cancerous consumptive fire of negativity and disease, who vex the life of all living forms on earth, we throw you out of all other people, cows and horses anywhere else in the world.

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    Translation

    Thee from inexhaustible men, kine, horses, thee the flesheating one do we thrust out - the fire that obstructs life.

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    Translation

    We drive away this Kravyad fire which is destroyer of life from other people, horses and cows.

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    Translation

    O raw flesh-eating disease that destroys life, we expel thee from living men, cows and horses!

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १६−(अन्येभ्यः) माछाशसिभ्यो यः। उ० ४।१०९। अन जीवने−यः। जीवद्भ्यः (त्वा) दुष्टम् (पुरुषेभ्यः) (गोभ्यः) (अश्वेभ्यः) (त्वा) (क्रव्यादम्) मांसभक्षकम् (निर्णुदामसि) निर्गमयामः (यः) (अग्निः) अग्निवत्सन्तापकः पुरुषः (जीवितयोपनः) जीवनविमोहकः ॥

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