अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 45
जी॒वाना॒मायुः॒ प्र ति॑र॒ त्वम॑ग्ने पितॄ॒णां लो॒कमपि॑ गच्छन्तु॒ ये मृ॒ताः। सु॑गार्हप॒त्यो वि॒तप॒न्नरा॑तिमु॒षामु॑षां॒ श्रेय॑सीं धेह्य॒स्मै ॥
स्वर सहित पद पाठजी॒वाना॑म् । आयु॑: । प्र । ति॒र॒ । त्वम् । अ॒ग्ने॒ । पि॒तॄ॒णाम् । लो॒कम् । अपि॑ । ग॒च्छ॒न्तु॒ । ये । मृ॒ता: । सु॒ऽगा॒र्ह॒प॒त्य: । वि॒ऽतप॑न् । अरा॑तिम् । उ॒षाम्ऽउ॒षाम् । श्रेय॑सीम् । धे॒हि॒ । अ॒स्मै ॥२.४५॥
स्वर रहित मन्त्र
जीवानामायुः प्र तिर त्वमग्ने पितॄणां लोकमपि गच्छन्तु ये मृताः। सुगार्हपत्यो वितपन्नरातिमुषामुषां श्रेयसीं धेह्यस्मै ॥
स्वर रहित पद पाठजीवानाम् । आयु: । प्र । तिर । त्वम् । अग्ने । पितॄणाम् । लोकम् । अपि । गच्छन्तु । ये । मृता: । सुऽगार्हपत्य: । विऽतपन् । अरातिम् । उषाम्ऽउषाम् । श्रेयसीम् । धेहि । अस्मै ॥२.४५॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
राजा और प्रजा के कर्तव्य का उपदेश।
पदार्थ
(अग्ने) हे ज्ञानस्वरूप ! [परमेश्वर] (त्वम्) तू (जीवानाम्) जीवतों [पुरुषार्थियों] का (आयुः) जीवन (प्र तर) बढ़ा (ये) जो (मृताः) प्राण छोड़े हुए [पुरुषार्थहीन] हैं, वे (अपि) भी (पितॄणाम्) पितरों [रक्षक ज्ञानियों] के (लोकम्) समाज में (गच्छन्तु) पहुँचें। (सुगार्हपत्यः) सुन्दर गृहपतियों से युक्त तू [परमेश्वर] (अरातिम्) वैरी को (वितपन्) तपाता हुआ (श्रेयसीम्) अधिक कल्याणकारी (उषामुषाम्) प्रत्येक उषा [प्रभातवेला] (अस्मै) इस [उपासक] को (धेहि) धारण कर ॥४५॥
भावार्थ
परमेश्वर के नियम से पुरुषार्थी अपना जीवन सुफल करते हैं, इससे पुरुषार्थहीन पुरुष शिष्टों के सत्सङ्ग से अपना जीवन सदा सुधार कर नित्य नवीन सुख प्राप्त करें ॥४५॥
टिप्पणी
४५−(जीवानाम्) जीवताम्। पुरुषार्थिनाम् (आयुः) जीवनम् (प्रतर) प्रवर्धय (त्वम्) (अग्ने) हे ज्ञानस्वरूप परमेश्वर (पितॄणाम्) पालकानाम्। विदुषाम् (लोकम्) समाजम् (अपि) एव (गच्छन्तु) प्राप्नुवन्तु (ये) (मृताः) त्यक्तप्राणाः। पुरुषार्थहीनाः (सुगार्हपत्यः) विद्वद्भिर्गृहपतिभिः संयुक्तः (वितपन्) विविधं दहन् (अरातिम्) शत्रुम् (उषामुषाम्) प्रत्युषम् (श्रेयसीम्) अधिकश्रेयस्करीम् (धेहि) धारय (अस्मै) उपासकाय ॥
विषय
अच्छे और अधिक अच्छे
पदार्थ
१. हे (अग्ने) = गृहपति से युक्त [उपासित] अग्रणी प्रभो! (त्वम्) = आप (जीवानाम् आयुः प्रतिर) = जीवों के आयुष्य को बढ़ाइए। आपकी कृपा से (ये) = जो जीव उत्तम जीवन बिताकर (मृता:) = अब इस शरीर को छोड़ चुके हैं, वे (पितृणां लोकम् अपि गच्छन्तु) = पितृलोक को प्रास हों-इस मर्त्यलोक में जन्म न लेकर पितृलोक-चन्द्रलोक में वे जन्म लेने के योग्य बनें। २. वह (सुगार्हपत्य:) = गृहपतियों से उपास्य श्रेष्ठ प्रभु (अराति वितपन्) = अदानवृत्ति को हममें बुझाता हुआ [वि-तप] अथवा हमारे काम-क्रोध आदि शत्रुओं को संतप्त करनेवाला है। प्रभु निरन्तर हमारे शत्रुओं का विनाश कर रहे हैं। हे प्रभो! आप (अस्मै) = हमारे लिए (उषां उषाम्) = प्रत्येक उषा को (श्रेयसीम्) = प्रशस्यतर रूप में (धेहि) = धारण करो। हम कल से आज अच्छे बनें, आज से आनेवाले दिन में और अच्छे बनें।
भावार्थ
प्रभु हमें दीर्घजीवन प्राप्त कराएँ। हम मरकर उत्कृष्ट लोकों में ही जन्म लेनेवाले बनें। प्रभु हमारे शत्रुओं को संतप्त करके हमारे लिए प्रत्येक उषाकाल को पूर्वापेक्षया अधिक प्रशस्त बनाएँ।
भाषार्थ
(अग्ने) हे गार्हपत्य अग्नि! (त्वम्) तू (जीवानाम्) प्राणधारियों, जीवितों की (आयुः प्रतिर) आयु को बढ़ा (ये मृताः) जो मर गए हैं वे (अपि) भी (पितृणाम् लोकम्) माता-पिता के लोक अर्थात् पृथिवी लोक को (गच्छन्तु) प्राप्त हों। (सुगार्हपत्यः) उत्तम तथा श्रेष्ठ गार्हपत्य तु (अरातिम्) रोगरूपी शत्रु को (वितपन्) तपा देती हुई (उषाम् उषाम्) प्रत्येक उषा को (श्रेयसीम्) कल्याणकारी रूप में (अस्मै) इस रोगोन्मुक्त के लिये (धेहि) प्रदान कर।
टिप्पणी
[गच्छन्तु = गतेस्त्रयोऽर्थाः, ज्ञानम् गतिः, प्राप्तिश्चेति। यहां प्राप्ति अर्थ लिया गया है। सुगार्हपत्यः = गार्हपत्य-अग्नि की उत्तमता तथा श्रेष्ठता इतने में है कि इस में दी गई, पौष्टिक तथा आरोग्यकारी आहूतियों को वह सुफल कर देती है]
विषय
क्रव्यात् अग्नि का वर्णन, दुष्टों का दमन और राजा के कर्त्तव्य।
भावार्थ
हे (अग्ने) अग्ने ! राजन् या परमेश्वर ! (त्वम्) तू (जीवानाम्) जीवों को (आयुः) दीर्घ जीवन (प्रतिर) प्रदान कर। (ये मृताः) जो लोग मर जांय वे (अपि) भी (पितॄणाम् लोकम्) परिपालक वायु चन्द्र, सूर्य आदि तत्वों में या वृद्ध पितृजनों के लोक = यश या पद को (गच्छन्तु) प्राप्त हों। तू (सु-गार्हपत्यः) उत्तम गार्हपत्य नामक अग्नि या राजा (अरातिम्) शत्रुको (वितपन्) विविध प्रकार से संतप्त करता हुआ (उषाम्-उषाम्) प्रति दिन (अस्मै) इस पुरुष को (श्रेयसीम्) सर्वोत्तम लक्ष्मी को (धेहि) प्रदान कर। एष वै गार्हपत्यो यमो राजा। श० २। ३। २। २॥
टिप्पणी
(तृ०) ‘उभयादन्तरा’ इति पैप्प० सं०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
भृगुर्ऋषिः। अग्निरुत मन्त्रोक्ता देवताः, २१—३३ मृत्युर्देवता। २, ५, १२, २०, ३४-३६, ३८-४१, ४३, ५१, ५४ अनुष्टुभः [ १६ ककुम्मती परावृहती अनुष्टुप्, १८ निचृद् अनुष्टुप् ४० पुरस्तात् ककुम्मती ], ३ आस्तारपंक्ति:, ६ भुरिग् आर्षी पंक्तिः, ७, ४५ जगती, ८, ४८, ४९ भुरिग्, अनुष्टुब्गर्भा विपरीत पादलक्ष्मा पंक्तिः, ३७ पुरस्ताद बृहती, ४२ त्रिपदा एकावसाना आर्ची गायत्री, ४४ एकावताना द्विपदा आर्ची बृहती, ४६ एकावसाना साम्नी त्रिष्टुप्, ४७ पञ्चपदा बार्हतवैराजगर्भा जगती, ५० उपरिष्टाद विराड् बृहती, ५२ पुरस्ताद् विराडबृहती, ५५ बृहतीगर्भा विराट्, १, ४, १०, ११, २९, ३३, ५३, त्रिष्टुभः। पञ्चपञ्चाशदृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Yakshma Nashanam
Meaning
O Garhapatyagni of home yajna, augment and elevate the life, health and age of the souls alive, and help the dead also to rise and reach the region of Pitaras’ noble life in future on earth. O noble fire, heating, straining and exhausting all want, adversity and disease from life, bless us with happiness, prosperity and excellence more and ever more day by day.
Translation
Lengthen thou out, O Agni, the life-time of the living; let them who are dead go unto the world of the. Fathers; do thou, a good householder’s fire, burning away the niggard, assign to this man an ever better dawn.
Translation
This fire facilitates the jivas to live their full lives. Those who are dead go (to enjoy) the state assigned for Pitrins i.e. the Yajnikas-The .............The good household fire burns the internal enemies (i.e. passion, anger etc),-Let this make for the man, the each dawn more auspicious. This fire (used in wars) destroying all the adversaries brings their wealth, their strength and possessions to us.
Translation
O. God, prolong the lives of those who are energetic. Let the unenergetic even seek the company of the learned guardians. As a good king torments the foe, so give this devotee goodly wealth each morning!
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
४५−(जीवानाम्) जीवताम्। पुरुषार्थिनाम् (आयुः) जीवनम् (प्रतर) प्रवर्धय (त्वम्) (अग्ने) हे ज्ञानस्वरूप परमेश्वर (पितॄणाम्) पालकानाम्। विदुषाम् (लोकम्) समाजम् (अपि) एव (गच्छन्तु) प्राप्नुवन्तु (ये) (मृताः) त्यक्तप्राणाः। पुरुषार्थहीनाः (सुगार्हपत्यः) विद्वद्भिर्गृहपतिभिः संयुक्तः (वितपन्) विविधं दहन् (अरातिम्) शत्रुम् (उषामुषाम्) प्रत्युषम् (श्रेयसीम्) अधिकश्रेयस्करीम् (धेहि) धारय (अस्मै) उपासकाय ॥
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