अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 14
ऋषिः - भृगुः
देवता - अग्निः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - यक्ष्मारोगनाशन सूक्त
1
संक॑सुको॒ विक॑सुको निरृ॒थो यश्च॑ निस्व॒रः। ते ते॒ यक्ष्मं॒ सवे॑दसो दू॒राद्दू॒रम॑नीनशन् ॥
स्वर सहित पद पाठसम्ऽक॑सुक: । विऽक॑सुक: । नि॒:ऽऋ॒थ: । य: । च॒ । नि॒ऽस्व॒र: । ते । ते॒ । यक्ष्म॑म् । सऽवे॑दस: । दू॒रात् । दू॒रम् । अ॒नी॒न॒श॒न् ॥२.१४॥
स्वर रहित मन्त्र
संकसुको विकसुको निरृथो यश्च निस्वरः। ते ते यक्ष्मं सवेदसो दूराद्दूरमनीनशन् ॥
स्वर रहित पद पाठसम्ऽकसुक: । विऽकसुक: । नि:ऽऋथ: । य: । च । निऽस्वर: । ते । ते । यक्ष्मम् । सऽवेदस: । दूरात् । दूरम् । अनीनशन् ॥२.१४॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
राजा और प्रजा के कर्तव्य का उपदेश।
पदार्थ
(यः) जो पुरुष (संकसुकः) यथावत् शासक, [जो] (विकसुकः) विशेष करके शासक, [जो] (निर्ऋथः) निरन्तर ज्ञानवान् (च) और [जो] (निस्वरः) सदा उपदेश करनेवाला है। (ते) उन सब (सवेदसः) समान लाभ पहुँचानेवाले पुरुषों ने (ते) तेरे (यक्ष्मम्) राजरोग को (दूरात् दूरम्) दूर से दूर (अनीनशन्) नाश कर दिया है ॥१४॥
भावार्थ
जिस राज्य में अनेक प्रकार के पुरुषार्थी विद्वान् रहते हैं, वहाँ पर लोग कष्ट में नहीं पड़ते ॥१४॥
टिप्पणी
१४−(संकसुकः) म० ११। सम्यक् शासकः (विकसुकः) म० ११। विशेषेण शासकः (निर्ऋथः) अर्तेनिरि उ० २।८। निर्+ऋ गतौ−थक्। निरन्तरज्ञानवान् (यः) पुरुषः (च) (निस्वरः) नित्योपदेशकः (ते) पूर्वोक्ताः (ते) तव (यक्ष्मम्) राजरोगम् (सवेदसः) विद्लृ लाभे−डसुन्। समानानि वेदांसि लाभा येभ्यस्ते। समानलाभप्रापकाः (दूरात्) (दूरम्) (अनीनशन्) अ० १।२४।२। नाशितवन्तः ॥
विषय
'संकसुक, विकसुक, निर्वथ, निस्वर'
पदार्थ
१. (संकसुक:) = वे प्रभु सारे ब्रह्माण्ड का सम्यक् शासन करनेवाले हैं। (विकसुक:) = विविधरूपों में लोक-लोकान्तरों को गति देनेवाले हैं। (निर्ऋथ:) = पीड़ा का सर्वथा नाश करनेवाले है (च) = और प्रभु वे हैं (य:) = जो (निस्वर:) = उपताप से रहित हैं-अपने उपासकों से उपताप को दूर करनेवाले है। २. प्रभु का उपर्युक्त रूपों में स्मरण करते हुए और स्वयं भी वैसा बनते हुए (ते) = वे (सवेदसः) = ज्ञानी पुरुष [ज्ञान के साथ रहनेवाले पुरुष] (ते यक्ष्मम्) = तेरे राजरोग को (दूरात् दूरम्) = दूर-से दर (अनीनशन्) = नष्ट करें। प्रस्तुत मन्त्र में ब्राह्मण संकसक है-अपना सम्यक शासन करनेवाला। क्षत्रिय 'विकसुक' है-राज्य के सब कार्यों को चलानेवाला-सब विभागों को गति देनेवाला। वैश्य 'निर्ऋथ' है-अन्नादि का सम्यक् उत्पादन करता हुआ यह प्रजा को पीड़ा से बचाता है। शूद्र 'निस्वर' है-बोलता कम है। शोधन आदि द्वारा उपताप को दूर करता है। ये सब अपना अपना कार्य करते हुए, संज्ञान द्वारा राष्ट्र को रोगों से मुक्त रखते हैं।
भावार्थ
प्रभु को 'शासक-गति देनेवाले, पीड़ा व उपताप से दूर ले-जानेवाले' रूप में देखते हुए ज्ञानी पुरुष हमारे रोगों को सुदूर विनष्ट करें। राष्ट्र का उत्तम शासन करते हुए ये लोग राष्ट्र को रोगों से बचाएँ।
भाषार्थ
(संकसुकः) सामूहिक अर्थात् परिवार में व्याप्त, घातक यक्ष्म रोग निवारक अग्नि, (विकसुकः) व्यक्ति गत, घातक यक्ष्मरोग की निवारक अग्नि, (निर्ऋथः) निकृष्ट आर्ति अर्थात् कष्ट दायक यक्ष्मरोग की निवारक अग्नि, (यः चः) और जो (निस्वरः) स्वरभङ्ग करने वाले यक्ष्मरोग की निवारक अग्नि है। (ते) वे अग्नियां (सवेदसः) मानो ऐकमत्य को प्राप्त हुई, (ते यक्ष्मम्) तेरे यक्ष्मरोग को (दूरात् दूरम्) दूर से भी दूर करें, और (अनीनशन्) उसे नष्ट करें।
टिप्पणी
[संकसुकः = सम् (समूह) + कस (शासनम्); कसि गति शासनयोः (भ्वादि)। शासनम् = killer, destroyer (आप्टे)। अर्थात् समूह में व्याप्त, घातक यक्ष्मरोग सम्बन्धी। विकसुकः = व्यक्तिगत घातक यक्ष्मरोग सम्बन्धी। निर्ऋथः = "निः शेषेण ऋच्छति पीड़यतीति" (सायण, अथर्व० ६।९३।१) तथा "निकृष्टाम् आर्तिम् नाशम्" (सायण अथर्व० ८।४।१४)। अतः “निर्ऋथः"=पीड़ादायक और विनाश करने वाला यक्ष्मरोग, तत्सम्बन्धी निस्वरः=स्वरभङ्ग करने वाले स्वरयन्त्र सम्बन्धी यक्ष्मरोग तथा जिह्वा सम्बन्धी यक्ष्मरोग निवारक (अथर्व० २।३३।१)। ये चारों प्रकार के यक्ष्मरोग अग्निरूप हैं। अग्नि की तरह रोगी को खाते रहते हैं। इसलिये दाहक अग्नि और यक्ष्मरूपी अग्नि को, कहीं-कहीं मन्त्रों में अभेदरूप से भी वर्णित किया है, और भिन्न-भिन्न रूप में भी। वेद में "यक्ष्म" शब्द व्यापी अर्थ रखता है। अङ्ग की विकृतिमात्र में यक्ष्म शब्द का प्रयोग हुआ है। आंख, नाक, कान, मस्तिष्क, जिह्वा, ग्रीवा, रक्तनाड़ी, बाहु, हृदय, आन्त, गुदा, टांगों, घुटनों, अस्थि, मज्जा, हाथ, अङ्गुलियों, लोम, नख आदि किसी भी शरीराङ्ग के विकार में यक्ष्म शब्द प्रयुक्त हुआ है। (अथर्व० •२।३३।१-७); तथा (अथर्व० ९।८।१-२२)]।
विषय
क्रव्यात् अग्नि का वर्णन, दुष्टों का दमन और राजा के कर्त्तव्य।
भावार्थ
(संकसुकः) ‘संकसुक’ प्रतिदीप्त, सम्राट्, (विकसुकः) विशेषरूप से प्रकाशमान विराट् और (निर्ऋथः) पीड़ा को सर्वथा नाश करने बाला और (निः स्वरः) अन्यों को उपताप या पीड़ा न देने वाला (ते ते) वे चारों तेजस्वी पुरुष (सवेदसः) समान ज्ञान और ऐश्वर्य से सम्पन्न होकर (यक्ष्मम्) प्रजा के पीड़क यक्ष्मा आदि रोगों को (दूरात् दूरम्) दूर से दूर ही (अननिशन्) नाश करें।
टिप्पणी
(च०) ‘करमुचिथवः’ इति पैप्प० सं। ‘अचीचतम्’ इति मै० सं०। (द्वि०) ‘निर्ऋतो यश्च निःस्वनः’ (तृ०) ‘अस्मद् यक्ष्म नागसः’ इति मै० सं०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
भृगुर्ऋषिः। अग्निरुत मन्त्रोक्ता देवताः, २१—३३ मृत्युर्देवता। २, ५, १२, २०, ३४-३६, ३८-४१, ४३, ५१, ५४ अनुष्टुभः [ १६ ककुम्मती परावृहती अनुष्टुप्, १८ निचृद् अनुष्टुप् ४० पुरस्तात् ककुम्मती ], ३ आस्तारपंक्ति:, ६ भुरिग् आर्षी पंक्तिः, ७, ४५ जगती, ८, ४८, ४९ भुरिग्, अनुष्टुब्गर्भा विपरीत पादलक्ष्मा पंक्तिः, ३७ पुरस्ताद बृहती, ४२ त्रिपदा एकावसाना आर्ची गायत्री, ४४ एकावताना द्विपदा आर्ची बृहती, ४६ एकावसाना साम्नी त्रिष्टुप्, ४७ पञ्चपदा बार्हतवैराजगर्भा जगती, ५० उपरिष्टाद विराड् बृहती, ५२ पुरस्ताद् विराडबृहती, ५५ बृहतीगर्भा विराट्, १, ४, १०, ११, २९, ३३, ५३, त्रिष्टुभः। पञ्चपञ्चाशदृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Yakshma Nashanam
Meaning
Destroyer of common ailments, destroyer of individual ailments, eliminator of sin and sickness wholly, and a silent agent of nature and divinity is the divine fire. O man, may all modes, mutations and manners of this fire, acting together to a united end, destroy even from the farthest your cancerous consumptions of body and mind for spiritual purification.
Translation
The crushing, the bursting, the destroying and the noiseless - they, of like possessions, have made from far thy yaksma to disappear afar.
Translation
These fires which are called Sanksuka (Breaker-up) Vikasuka (the Burster), Nirritha (the destroyer), Nihsvara (the silent one) in full cooperation drive away, your consumption far, far off from you, O man.
Translation
A just ruler, an efficient administrator, a learned person, a constant preacher, all these benefactors of humanity, have expelled consumption far, far off from thee.
Footnote
Thee: The subjects
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१४−(संकसुकः) म० ११। सम्यक् शासकः (विकसुकः) म० ११। विशेषेण शासकः (निर्ऋथः) अर्तेनिरि उ० २।८। निर्+ऋ गतौ−थक्। निरन्तरज्ञानवान् (यः) पुरुषः (च) (निस्वरः) नित्योपदेशकः (ते) पूर्वोक्ताः (ते) तव (यक्ष्मम्) राजरोगम् (सवेदसः) विद्लृ लाभे−डसुन्। समानानि वेदांसि लाभा येभ्यस्ते। समानलाभप्रापकाः (दूरात्) (दूरम्) (अनीनशन्) अ० १।२४।२। नाशितवन्तः ॥
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