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अथर्ववेद के काण्ड - 12 के सूक्त 2 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 53
    ऋषिः - भृगुः देवता - अग्निः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - यक्ष्मारोगनाशन सूक्त
    1

    अविः॑ कृ॒ष्णा भा॑ग॒धेयं॑ पशू॒नां सीसं॑ क्र॒व्यादपि॑ च॒न्द्रं त॑ आहुः। माषाः॑ पि॒ष्टा भा॑ग॒धेयं॑ ते ह॒व्यम॑रण्या॒न्या गह्व॑रं सचस्व ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अवि॑: । कृ॒ष्णा । भा॒ग॒ऽधेय॑म् । प॒शू॒नाम् । सीस॑म् । क्र॒व्य॒ऽअत् । अपि॑ । च॒न्द्रम् । ते॒ । आ॒हु॒: । माषा॑: । पि॒ष्टा: । भा॒ग॒ऽधेय॑म‌् । ते॒ । ह॒व्यम् । अ॒र॒ण्या॒न्या: । गह्व॑रम् । स॒च॒स्व॒ ॥२.५३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अविः कृष्णा भागधेयं पशूनां सीसं क्रव्यादपि चन्द्रं त आहुः। माषाः पिष्टा भागधेयं ते हव्यमरण्यान्या गह्वरं सचस्व ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अवि: । कृष्णा । भागऽधेयम् । पशूनाम् । सीसम् । क्रव्यऽअत् । अपि । चन्द्रम् । ते । आहु: । माषा: । पिष्टा: । भागऽधेयम‌् । ते । हव्यम् । अरण्यान्या: । गह्वरम् । सचस्व ॥२.५३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 2; मन्त्र » 53
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    हिन्दी (4)

    विषय

    राजा और प्रजा के कर्तव्य का उपदेश।

    पदार्थ

    (कृष्णा) आकर्षण करनेवाली (अविः) रक्षिका प्रकृति [सृष्टि] (पशूनाम्) सब जीवों का (भागधेयम्) सेवनीय पदार्थ है। (क्रव्यात्) हे मांसभक्षक ! [पाप] (ते) तेरे (चन्द्रम्) सुवर्ण को (अपि) भी (सीसम्) सीसा [जस्ता आदि निकृष्ट धातु समान] (आहुः) वे [विद्वान् लोग] बताते हैं। [हे पाप !] (पिष्टाः) चूर्ण किये हुए (माषाः) वध व्यवहार [संग्राम आदि] (ते) तेरा (हव्यम्) ग्राह्य (भागधेयम्) भाग होता है, (अरण्यान्याः) बड़े वन की (गह्वरम्) गुहा का (सचस्व) सेवन कर ॥५३॥

    भावार्थ

    परमेश्वर ने सृष्टिनियम सब प्राणियों के लिये हितकारी बनाये हैं। उन से विरुद्धगामी पुरुष मृगतृष्णा में फँसकर परस्पर युद्ध में अपना जीवन निष्फल करते हैं। ऐसे दुष्ट पाप से सब मनुष्य पृथक् रहें ॥५३॥

    टिप्पणी

    ५३−(अविः) म० १९। रक्षिका प्रकृतिः। सृष्टिः (कृष्णा) आकर्षणशीला (भागधेयम्) भागः (पशूनाम्) व्यक्तवाचां वाव्यक्तवाचां च जीवानाम्−निरु० ११।२९। (सीसम्) निकृष्टधातुविशेषम् (क्रव्यात्) हे मांसभक्षक पाप (अपि) एव (चन्द्रम्) आह्लादकं सुवर्णम् (ते) तव (आहुः) कथयन्ति विद्वांसः (माषाः) मष वधे−घञ्। वधव्यवहाराः। संग्रामादयः (पिष्टाः) चूर्णिताः (भागधेयम्) भागः (ते) तव (हव्यम्) ग्राह्यम् (अरण्यान्याः) इन्द्रवरुणभवशर्व०। पा० ४।१।४९। अरण्य−ङीप्, आनुक्। महारण्यस्य (गह्वरम्) गुहाम् (सचस्व) षच सम्बन्धे−संबधान। सेवस्व ॥

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    विषय

    अविः कृष्णा-माषा: पिष्टाः [ते भागधेयम्]

    पदार्थ

    १. (अविः) = [अव रक्षणम्] मातृरूपेण सबका रक्षण करनेवाली, (कृष्णा) = सबको अपनी ओर आकृष्ट करनेवाली प्रकृति (पशूनां भागधेयम्) = सब प्राणियों का भाग है। सामान्यत: मनुष्य को प्रकृति से प्रदत्त इन वानस्पतिक पदार्थों का सेवन करना ही ठीक है। हे (क्रव्यात्) = मांसभक्षण करनेवाले पुरुष! (ते चन्द्रं अपि) = तेरी इस चाँदी को भी-धन को भी-(सीसं आहु:) = तेरे लिए सीसे की गोली कहते हैं। तेरा यह धन तेरे ही विनाश का कारण बन जाता है। २. (पिष्टा: माषा:) = पिसे हुए ये उड़द ही ते भागधेयम् तेरा भाग हैं। इन्हीं का तुने सेवन करना है, मांस का नहीं। अपनी वृत्ति को उत्तम बनाये रखने के लिए तू (हव्यम्) = हव्य को-अग्निहोत्र को तथा (आरण्यान्या: गह्वरम्) = अरण्य की गुफा को-ध्यान के लिए एकान्त प्रदेश को [सावित्रीमप्यधीयीत गत्वारयं समाहितः] (सचस्व) = सेवन करनेवाला बन। यह 'सन्ध्या-हवन' तेरी वृत्ति को उत्तम बनाएगा और तू मांसभक्षणादि दुर्व्यसनों से बचा रहेगा।

    भावार्थ

    हमें प्रकृतिमाता से दिये गये वानस्पतिक पदार्थों का ही सेवन करना है। मार्षों का ही सेवन करना है, मांस का नहीं। अपनी प्रवृत्ति को ठीक रखने के लिए ही हम 'ध्यान व यज्ञ' का सेवन करनेवाले बनें।

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    भाषार्थ

    (क्रव्याद्) हे मांसभक्षक यक्ष्मरोग ! (पशूनां कृष्णा अविः) पशुओं में काली भेड़ (ते भागधेयम्) तेरे भाग्य में है। (सीसम्) सीसभस्म को, (चन्द्रम्) चन्द्र अर्थात् चान्दी तथा सुवर्ण को (अपि) भी (ते भागधेयम् आहूः) तेरे भाग्परूप में [वैद्यलोग] कहते हैं। (पिष्टाः माषाः) पीसे हुए उरद जोकि (हव्यम्) खाने योग्य हवि (ते भागधेयम्) तेरे भाग्य में है, (अरण्यान्याः) बड़े अरण्य के (गह्वरम्) घने प्रदेश का (सचस्व) तू सेवन कर।

    टिप्पणी

    [क्रव्याद् यद्यपि मांस-भक्षक शवाग्नि है। यतः यक्ष्मरोग और शवाग्नि का परस्पर सहचार है (मन्त्र ५१), अतः साहचर्य के कारण यक्ष्मरोग को क्रव्याद् कहा हैं। यक्ष्मरोग के लिये, (१) काली भेड़ का दूध, (२) सीसभस्म, (३) चान्दी तथा सुर्वण निर्मित औषधें, (४) पिसे उरद का भोजन तथा उस की आहुतियां, (५) तथा बड़े अरण्यों के घने प्रदेशों का सेवन उपकारी है। चन्द्रम्= चान्दी; तथा चन्द्रम् हिरण्यनाम (निघं० १।२)। हव्यम् = हु दानादनयोः, अर्थात् अग्नि के प्रति दान, तथा अदन अर्थात् भक्षण। अरण्यान्याः= महदरण्यम्। बड़े अरण्यों के घने प्रदेशों की वायु स्वच्छ होती है। भागधेयम् = Fortune, destiny, luck (आप्टे)]।

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    विषय

    क्रव्यात् अग्नि का वर्णन, दुष्टों का दमन और राजा के कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    हे (क्रव्यात्) कच्चा मांस खाने वाले अग्ने ! (पशूनाम्) पशुओं में से (कृष्णा अविः) काली भेड़ (ते भागधेयम्) तेरा भागधेय = भाग्य है। और (सीसं) सीसे को (से) तेरा (चन्द्रं) धन (आहुः) कहते हैं और (पिष्ठा माषाः) पिसे हुए ‘माप’ उड़द की दालें (ते भागधेयं) तेरे भाग्य के (हव्यम्) पदार्थ हैं। तू (अरण्यान्याः) बड़े जंगल के (गह्वरं) गहरे भाग को (सचस्व) चला जा। इसका अभिप्राय यह है मांसाहारी जीव भेड़िया आदि काली भेड़ खाता है, सीसे के गोली से मारा जात्ता और माष की दाल के समान दल दिया जाता यही उसका भाग्य है। शव को श्मशान में ले जाते समय लोहे का टुकड़ा पान में रखने और उड़द की दाल घटिया को देने और अनुस्तरणी पशु को बलि करने यादि का गृह्योक्त कर्म का आधार यही मन्त्र है।

    टिप्पणी

    ‘क्रव्याद्भुत’ इति मै० सं० इति बहुत्र पाठः।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भृगुर्ऋषिः। अग्निरुत मन्त्रोक्ता देवताः, २१—३३ मृत्युर्देवता। २, ५, १२, २०, ३४-३६, ३८-४१, ४३, ५१, ५४ अनुष्टुभः [ १६ ककुम्मती परावृहती अनुष्टुप्, १८ निचृद् अनुष्टुप् ४० पुरस्तात् ककुम्मती ], ३ आस्तारपंक्ति:, ६ भुरिग् आर्षी पंक्तिः, ७, ४५ जगती, ८, ४८, ४९ भुरिग्, अनुष्टुब्गर्भा विपरीत पादलक्ष्मा पंक्तिः, ३७ पुरस्ताद बृहती, ४२ त्रिपदा एकावसाना आर्ची गायत्री, ४४ एकावताना द्विपदा आर्ची बृहती, ४६ एकावसाना साम्नी त्रिष्टुप्, ४७ पञ्चपदा बार्हतवैराजगर्भा जगती, ५० उपरिष्टाद विराड् बृहती, ५२ पुरस्ताद् विराडबृहती, ५५ बृहतीगर्भा विराट्, १, ४, १०, ११, २९, ३३, ५३, त्रिष्टुभः। पञ्चपञ्चाशदृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Yakshma Nashanam

    Meaning

    O cancerous carnivorous fire, the milk of black sheep, of all the animals, is your favourite food. Also, they say, the ash of lead or silver and gold too is your share. Crushed masha lentils also is your food, in fact you better go and roam around in the thick of forest woods.

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    Translation

    A black ewe of cattle portion; lead, too, they call thy gold, O flesh-eating one; ground beans are thy portion (as) oblation; seek thou the thicket of the forest-spirit.

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    Translation

    O this Kravyad fire (fatal disease) among tamed animals the black sheep is share, the learned tell that lead and iron are also its portions (as it used as weaponet) mashed beans are assigned as its eatable shares and this abides in dark wood.

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    Translation

    O meat-eater, among tame beasts the black ewe is thy portion, thou deserves! to be shot by the bright lead bullet, so do the learned say. Thou art fit to be crushed like mashed beans used for oblation. Go seek the dark wood and wildernesses.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ५३−(अविः) म० १९। रक्षिका प्रकृतिः। सृष्टिः (कृष्णा) आकर्षणशीला (भागधेयम्) भागः (पशूनाम्) व्यक्तवाचां वाव्यक्तवाचां च जीवानाम्−निरु० ११।२९। (सीसम्) निकृष्टधातुविशेषम् (क्रव्यात्) हे मांसभक्षक पाप (अपि) एव (चन्द्रम्) आह्लादकं सुवर्णम् (ते) तव (आहुः) कथयन्ति विद्वांसः (माषाः) मष वधे−घञ्। वधव्यवहाराः। संग्रामादयः (पिष्टाः) चूर्णिताः (भागधेयम्) भागः (ते) तव (हव्यम्) ग्राह्यम् (अरण्यान्याः) इन्द्रवरुणभवशर्व०। पा० ४।१।४९। अरण्य−ङीप्, आनुक्। महारण्यस्य (गह्वरम्) गुहाम् (सचस्व) षच सम्बन्धे−संबधान। सेवस्व ॥

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