अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 6
ऋषिः - भृगुः
देवता - अग्निः
छन्दः - भुरिगार्षीपङ्क्तिः
सूक्तम् - यक्ष्मारोगनाशन सूक्त
1
पुन॑स्त्वादि॒त्या रु॒द्रा वस॑वः॒ पुन॑र्ब्र॒ह्मा वसु॑नीतिरग्ने। पुन॑स्त्वा॒ ब्रह्म॑ण॒स्पति॒राधा॑द्दीर्घायु॒त्वाय॑ श॒तशा॑रदाय ॥
स्वर सहित पद पाठपुन॑: । त्वा॒ । आ॒दि॒त्या: । रु॒द्रा: । वस॑व: । पुन॑: । ब्र॒ह्मा । वसु॑ऽनीति: । अ॒ग्ने॒ । पुन॑: । त्वा॒ । ब्रह्म॑ण: । पति॑: । आ । अ॒धा॒त् । दी॒र्घा॒यु॒ऽत्वाय॑ । श॒तऽशा॑रदाय ॥२.६॥
स्वर रहित मन्त्र
पुनस्त्वादित्या रुद्रा वसवः पुनर्ब्रह्मा वसुनीतिरग्ने। पुनस्त्वा ब्रह्मणस्पतिराधाद्दीर्घायुत्वाय शतशारदाय ॥
स्वर रहित पद पाठपुन: । त्वा । आदित्या: । रुद्रा: । वसव: । पुन: । ब्रह्मा । वसुऽनीति: । अग्ने । पुन: । त्वा । ब्रह्मण: । पति: । आ । अधात् । दीर्घायुऽत्वाय । शतऽशारदाय ॥२.६॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
राजा और प्रजा के कर्तव्य का उपदेश।
पदार्थ
(अग्ने) हे अग्नि [समान तेजस्वी राजन् !] (पुनः) निश्चय करके [विद्वत्ता शूरता आदि गुण देखकर] (त्वा) तुझको (आदित्याः) अखण्डव्रती ब्रह्मचारियों, (रुद्राः) ज्ञानवालों और (वसवः) श्रेष्ठ पुरुषों ने, [तथा] (पुनः) निश्चय करके (वसुनीतिः) श्रेष्ठ गुण प्राप्त करानेवाले (ब्रह्मा) ब्रह्मा [वेदों के ज्ञाता] ने, और (पुनः) निश्चय करके (त्वा) तुझ को (ब्रह्मणस्पतिः) धन के रक्षक पुरुष ने (शतशारदाय) सौ वर्षोंवाले (दीर्घायुत्वाय) चिरकाल जीवन के लिये (आ) भले प्रकार (अधात्) धारण किया है ॥६॥
भावार्थ
सब चतुर विद्वान् लोग सद्गुणों की भली-भाँति परीक्षा करके महापुरुषार्थी सुयोग्य पुरुष को राजा बनावें, जो प्रजागणों को सुख पहुँचाकर दीर्घजीवनयुक्त करे ॥६॥ इस मन्त्र का मिलान करो−यजु० १२।४४ ॥
टिप्पणी
६−(पुनः) निश्चयेन। विद्वत्ताशूरतादिगुणपरीक्षणेन (त्वा) त्वां राजानम् (आदित्याः) अखण्डव्रतब्रह्मचारिणः (रुद्राः) अ० २।२७।६। रुत् ज्ञानम्, रो मत्वर्थीयः। ज्ञानवन्तः (वसवः) श्रेष्ठाः (पुनः) निश्चयेन (ब्रह्मा) वेदानां ज्ञाता (वसुनीतिः) श्रेष्ठगुणप्रापकः (अग्ने) हे अग्निवत्तेजस्विन् राजन् (पुनः) (त्वा) (ब्रह्मणः) अन्नस्य। धनस्य (पतिः) रक्षकः (आ) समन्तात् (अधात्) धारितवान् (दीर्घायुत्वाय) चिरकालजीवनाय (शतशारदाय) अ० १।३५।१। शतसंवत्सरयुक्ताय ॥
विषय
नवजीवन प्रदाता 'तेतीस देव'
पदार्थ
१.हे (अग्ने) = प्रगतिशील जीव! (त्वा) = तुझे (पुन:) = फिर से (आदित्या:) = आदित्य शतशारदाय-सौ वर्ष तक चलनेवाले (दीर्घायुत्वाय) = दीर्घजीवन के लिए (आधात्) = स्थापित करें। इसी प्रकार (रुद्रा:) = रुद्र और (वसवः) = वसु तुझे शतशारद दीर्घायुत्व के लिए स्थापित करनेवाले हों। बारह आदित्य वर्ष के बारह मास हैं, दश प्राण व आत्मा ये ११ रुद्र हैं, 'पञ्चभूत, मन, बुद्धि, अहंकार' वसु हैं। ये सबके सब तेरे दीर्घजीवन का साधन बनें। २. इन ३१ देवों के साथ (वसुनीतिः) = सब वसुओं को निवास के लिए आवश्यक तत्त्वों को प्राप्त करानेवाला (ब्रह्मा) = सृष्टि-निर्माता प्रभु (पुन:) = फिर शतशारद दीर्घायुत्व के लिए स्थापित करे और (ब्रह्मणस्पतिः) = वेदज्ञान का स्वामी प्रभु (पुन:) = फिर (त्वा) = तुझे शतशारद दीर्घायुत्व को प्रास कराये।
भावार्थ
'आदित्य, रुद्र, बसु. ब्रह्मा [Creater] तथा ब्रह्मणस्पति [Giver of knowledge]' ये सब हमें फिर से पवित्र जीवनवाला बनाकर सौ वर्ष का दीर्घजीवन प्राप्त कराएँ।
भाषार्थ
(अग्ने) हे गार्हपत्याग्नि! या आहवनीयाग्नि ! (त्वा) तुझे (पुनः) फिर (आदित्या रुद्राः वसवः) आदित्य, रुद्र और वसु कोटि के विद्वान्, या (पुनः) फिर (वसुनीतिः ब्रह्मा) वसु ब्रह्मचारी विद्वानों का नेता चतुर्वेदविद् ऋत्विक, या (पुनः) फिर (त्वा) तुझे (ब्रह्मणस्पतिः) कोई वेदरक्षक विद्वान् (आधात्) स्थापित करे, तेरा आधान करे, (दीर्घायुत्वाय, शतशारदाय) दीर्घ आयु के लिये १०० वर्षों तक जीवित रहने के लिए।
टिप्पणी
[यदि प्रथमाग्न्याधान, विधि के प्रतिकूल हुआ है, जिस का परिणाम हुआ है,- अकाल मृत्यु; तो उस का पुनः आधान विद्वान्-ऋत्विक करें, ताकि गृहवासियों की १०० वर्षों की दीर्घायु हो सके।]
विषय
क्रव्यात् अग्नि का वर्णन, दुष्टों का दमन और राजा के कर्त्तव्य।
भावार्थ
हे (अग्ने) अग्नि के समान दुष्टों के सन्तापकारक राजन् ! (आदित्याः) आदित्य, सूर्य के समान तेजस्वी लोग, (रुद्राः) रुद्र, नैष्ठिक विद्वान्, (वसवः) वसु नामक ब्रह्मचारी गण अथवा (आदित्याः) दुष्टों को पकड़ कर लाने वाले शासक, (रुद्राः) दुष्टों को दण्ड करके रुलाने वाले, दण्डकारी शासक और (वसवः) राष्ट्र के वासी प्रजागण और (वसुनीतिः) वसु अर्थात् प्रजाओं का नेता (ब्रह्मणस्पतिः) वेद का विद्वान् (ब्रह्मा) ब्रह्मा (त्वा) तुझे (पुनः) फिर (शतशारदाय दीर्घायुत्वाय) सौ बरस तक के लम्बे जीवन के लिये आधात् पुनः स्थापित करता है। इसी प्रकार पुरुष के मर जाने पर यह जीव भी ‘अग्नि’ है। उसको आदित्य=१२ मास, रुद्र=प्राण, वसु = प्राण, समस्त जीवों का प्रणेता परमात्मा प्रजापति पुनः तुझको दूसरा जन्म सौ वर्ष की आयु भोगने के लिये प्रदान करे।
टिप्पणी
‘वसवः समिन्धताम् पुनर्ब्रह्मणो वसुनीथयशैः’ इति यजु०॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
भृगुर्ऋषिः। अग्निरुत मन्त्रोक्ता देवताः, २१—३३ मृत्युर्देवता। २, ५, १२, २०, ३४-३६, ३८-४१, ४३, ५१, ५४ अनुष्टुभः [ १६ ककुम्मती परावृहती अनुष्टुप्, १८ निचृद् अनुष्टुप् ४० पुरस्तात् ककुम्मती ], ३ आस्तारपंक्ति:, ६ भुरिग् आर्षी पंक्तिः, ७, ४५ जगती, ८, ४८, ४९ भुरिग्, अनुष्टुब्गर्भा विपरीत पादलक्ष्मा पंक्तिः, ३७ पुरस्ताद बृहती, ४२ त्रिपदा एकावसाना आर्ची गायत्री, ४४ एकावताना द्विपदा आर्ची बृहती, ४६ एकावसाना साम्नी त्रिष्टुप्, ४७ पञ्चपदा बार्हतवैराजगर्भा जगती, ५० उपरिष्टाद विराड् बृहती, ५२ पुरस्ताद् विराडबृहती, ५५ बृहतीगर्भा विराट्, १, ४, १०, ११, २९, ३३, ५३, त्रिष्टुभः। पञ्चपञ्चाशदृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Yakshma Nashanam
Meaning
O Garhapatyagni, sacred home fire, let the enlightened people of Aditya, Rudra and Vasu order of discipline and scholarship, the Brahma of knowledge, wisdom and practical vision, and the sagely scholar of Vedic lore, rekindle and establish you in the family for inmates of the home for their long and healthy life of a hundred years.
Translation
The Adityas, the Rudras, the: Vasus (have set) thee again; again, O Agni, the priest, conductor of good; Brahmanaspati hath set thee again, in order to length of life-time to a hundred autumns.
Translation
Use again this fire the learned men known Adityas, use again this fire the learned called Rudra and Vasus; use, in all frequency, this fire the learned man called Brahma who is the bringer of all fortunes, utilizes this fire and establishes it repeatedly, the master of vedic speech, for attaing long life lasting through hundred autumns.
Translation
O King,' due to thy knowledge and valour, verily have the Aditya Brahtncharis, learned persons, noble men,- the Vedic. scholar, the bestower of good things, verily the lord of wealth, disposed thee for long life lasting through a hundred autumns.
Footnote
Compare this verse with Yajur, 12-44
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
६−(पुनः) निश्चयेन। विद्वत्ताशूरतादिगुणपरीक्षणेन (त्वा) त्वां राजानम् (आदित्याः) अखण्डव्रतब्रह्मचारिणः (रुद्राः) अ० २।२७।६। रुत् ज्ञानम्, रो मत्वर्थीयः। ज्ञानवन्तः (वसवः) श्रेष्ठाः (पुनः) निश्चयेन (ब्रह्मा) वेदानां ज्ञाता (वसुनीतिः) श्रेष्ठगुणप्रापकः (अग्ने) हे अग्निवत्तेजस्विन् राजन् (पुनः) (त्वा) (ब्रह्मणः) अन्नस्य। धनस्य (पतिः) रक्षकः (आ) समन्तात् (अधात्) धारितवान् (दीर्घायुत्वाय) चिरकालजीवनाय (शतशारदाय) अ० १।३५।१। शतसंवत्सरयुक्ताय ॥
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