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अथर्ववेद के काण्ड - 12 के सूक्त 2 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 3
    ऋषिः - भृगुः देवता - अग्निः छन्दः - आस्तारपङ्क्तिः सूक्तम् - यक्ष्मारोगनाशन सूक्त
    1

    निरि॒तो मृ॒त्युं निरृ॑तिं॒ निररा॑तिमजामसि। यो नो॒ द्वेष्टि॒ तम॑द्ध्यग्ने अक्रव्या॒द्यमु॑ द्वि॒ष्मस्तमु॑ ते॒ प्र सु॑वामसि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    नि: । इ॒त: । मृ॒त्युम् । नि:ऽऋ॑तिम् । नि: । अरा॑तिम् । अ॒जा॒म॒सि॒ । य: । न॒: । द्वेष्टि॑ । तम् । अ॒ध्दि॒ । अ॒ग्ने॒ । अ॒क्र॒व्य॒ऽअ॒त् । यम् । ऊं॒ इति॑ । द्वि॒ष्म: । तम् । ऊं॒ इति॑ । ते॒ । प्र । सु॒वा॒म॒सि॒ ॥२.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    निरितो मृत्युं निरृतिं निररातिमजामसि। यो नो द्वेष्टि तमद्ध्यग्ने अक्रव्याद्यमु द्विष्मस्तमु ते प्र सुवामसि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    नि: । इत: । मृत्युम् । नि:ऽऋतिम् । नि: । अरातिम् । अजामसि । य: । न: । द्वेष्टि । तम् । अध्दि । अग्ने । अक्रव्यऽअत् । यम् । ऊं इति । द्विष्म: । तम् । ऊं इति । ते । प्र । सुवामसि ॥२.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 2; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    राजा और प्रजा के कर्तव्य का उपदेश।

    पदार्थ

    (इतः) यहाँ से (मृत्युम्) मृत्यु और (निर्ऋतिम्) महामारी को (निः) बाहिर और (अरातिम्) अदान को (निः) बाहिर (अजामसि) हम [प्रजागण] निकालते हैं। (यः) जो [दुष्ट] (नः) हम से (द्वेष्टि) वैर करता है, (तम्) उस को, (अक्रव्यात्) हे मांस न खानेवाले ! [प्रजारक्षक] (अग्ने) अग्नि [समान तेजस्वी राजन् !] (अद्धि) खा [नाश कर], (उ) और (यम्) जिस से (द्विष्मः) हम वैर करते हैं, (तम् उ) उसको भी (ते) तेरे [सन्मुख] (प्र सुवामसि) हम भेज देते हैं ॥३॥

    भावार्थ

    प्रजागणों को चाहिये कि प्रजापालक राजा से मिलकर दुष्टों को दण्ड दिलाते रहें ॥३॥

    टिप्पणी

    ३−(निः) बहिर्भावे (इतः) अस्मात् स्थानात् (मृत्युम्) (निर्ऋतिम्) अ० ३।११।२। कृच्छ्रापत्तिम्−निरु० २।७। (निः) (अरातिम्) अदानम् (अजामसि) प्रेरयामः (यः) दुष्टः (नः) अस्मान् (द्वेष्टि) वैरायते (तम्) (अद्धि) खाद। नाशय (अग्ने) हे अग्निवत्तेजस्विन् राजन् (अक्रव्यात्) हे अमांसभक्षक। प्रजारक्षक (यम्) (उ) एव (द्विष्मः) वैरायामहे (तम्) (उ) (अपि) (ते) तुभ्यम् (प्रसुवामसि) प्रेरयामः ॥

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    विषय

    'मत्य, ऋति व अराति' का निराकरण

    पदार्थ

    १. प्रजापीड़क व्यक्ति 'क्रव्याद् अग्नि' है, तो पीड़कों से रक्षा करनेवाला राजा 'अक्रव्याद् अग्नि' है। राजा से प्रजावर्ग कहता है कि हम (इत:) = यहाँ अपने जीवन से (मृत्युम्) = मृत्यु को रोगों को (निः अजामसि) = निकालकर दूर करते हैं। (ऋतिम्) = [ऋणोति to kill, attack] औरों पर आक्रमण करने व हिंसन की वृत्ति को (नि:) = दूर करते हैं। (अरातिम् नि:) = [अजामसि] अदान व कृपणता की वृत्ति को दूर करते हैं। जो व्यक्ति हम सबके प्रति द्वेष करता है (तम्) = उसे आप (अद्धि) = नष्ट [Destroy] कीजिए। (उ) = और (यं द्विष्म:) = जिस एक को हम सब प्रीति नहीं कर पाते (तम्) = उसको (उ) = निश्चय से (ते प्रसुवामसि) = तेरे प्रति प्रेरित करते हैं।

    भावार्थ

    राष्ट्र में जब राजा 'अक्रव्याद् अग्नि' होता है-प्रजा को प्रजापीड़कों से रक्षित करता है तब प्रजा 'रोग, हिंसा की वृत्ति तथा कृपणता' से दूर होती है और राजा प्रजाद्वेषियों को उचित दण्ड देनेवाला होता है।

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    भाषार्थ

    (इतः) इस शरीर से (मृत्युम्) अपमृत्यु को (निर्) हम निकाल देते हैं, (निर्ऋतिम्) दुःखों और कष्टों को निकाल देते हैं, (अरातिम्) अदान भावना को (निर् अजामसि) निर्गत करते तथा निकाल फेंकते हैं। (यः) जो यक्ष्मरोग (नः) हमारे साथ (द्वेष्टि) द्वेष करता है (तम्) उसे (अक्रव्याद् अग्ने) शरीर के कच्चे मांस को न खाने देने वाली हे अग्नि ! (अद्धि) तू खा जा, (उ) तथा (यम्) जिस यक्ष्मरोग के साथ (द्विष्मः) हम द्वेष करते हैं, अप्रीति करते हैं (तम उ) उस यक्ष्मरोग को (ते) हे अग्नि ! तेरे प्रति (प्र सुवामसि) हम भेज देते हैं, प्रेरित करते है।

    टिप्पणी

    ["द्वेष्टि" के स्थान में पैप्पलाद शाखा में "यक्ष्मः" पाठ है, जो कि द्वेष्टि की व्याख्या रूप है। अक्रव्याद् अग्नि= मन्त्र १ में प्रोक्त अग्नि। क्रव्याद् अग्नि रूप यक्ष्मरोग, कच्चे अर्थात् आयु की दृष्टि से न पके, अल्पायुओं के भी शारीरिक मांसों को खा जाता है। द्विष्मः= द्विष् अप्रीतौ। यक्ष्म के साथ यदि हम अप्रीति करेंगे, तो इस रोग के उत्पादक कारणों के ग्रहण से भी हम अप्रीति करने लगेंगे। यक्ष्मरोग दान नहीं करने देता। इस रोग को दूर करने में ही सामान्य व्यक्ति का धन लग जाता है, तो वह दान देने का सामर्थ्य ही नहीं रखता।]

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    विषय

    क्रव्यात् अग्नि का वर्णन, दुष्टों का दमन और राजा के कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    (इतः) इस राष्ट्र से (मृत्युम्) मृत्यु भय को (निर् अजामसि) हम सर्वथा दूर करदें। और (ऋतिम् निर्) प्रजा की पीड़ा और भय को भी सर्वथा दूर करें, (अरातिम्) प्रजा के शत्रु, जो प्रजा को सुख चैन नहीं लेने देते, उनको भी हम (निर् अजामसि) सर्वथा राष्ट्र से दूर करें। अथवा (निर्ऋतिम्) विनाशकारी रोग और पापप्रवृत्ति और (अरातिम् निर् अजामसि) अराति, शत्रु को भी दूर करें। हे (क्रव्यात् अग्ने) मनुष्यों का कच्चा मांस खाने वाली चिता=अग्नि के समान नर संहार करने वाले पुरुष से अतिरिक्त आहवनीय यज्ञाग्नि और गृह्य अग्नि के समान पवित्र कार्यों के करने और लोगों के घर बसाने वाले अग्ने ! राजन् ! (यः नः) जो हमें (द्वेष्टि) द्वेष करता है तू (तम्) उसको (अद्धि) खाजा, तू उसका नाश कर। और (यम् उ) जिसको भी (द्विष्मः) हम द्वेष करते हैं, (तम् उ) उसको भी (ते) तेरे आगे (प्रसुवामः) लाकर खड़ा कर दें। तू उसका यथोचित अपराध जांच कर दण्ड दें।

    टिप्पणी

    (तृ० च०) ‘तमध्यग्ने क्रव्यादम् यक्ष्मस्तंते प्रसुवामः’ इति पैप्प० सं०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भृगुर्ऋषिः। अग्निरुत मन्त्रोक्ता देवताः, २१—३३ मृत्युर्देवता। २, ५, १२, २०, ३४-३६, ३८-४१, ४३, ५१, ५४ अनुष्टुभः [ १६ ककुम्मती परावृहती अनुष्टुप्, १८ निचृद् अनुष्टुप् ४० पुरस्तात् ककुम्मती ], ३ आस्तारपंक्ति:, ६ भुरिग् आर्षी पंक्तिः, ७, ४५ जगती, ८, ४८, ४९ भुरिग्, अनुष्टुब्गर्भा विपरीत पादलक्ष्मा पंक्तिः, ३७ पुरस्ताद बृहती, ४२ त्रिपदा एकावसाना आर्ची गायत्री, ४४ एकावताना द्विपदा आर्ची बृहती, ४६ एकावसाना साम्नी त्रिष्टुप्, ४७ पञ्चपदा बार्हतवैराजगर्भा जगती, ५० उपरिष्टाद विराड् बृहती, ५२ पुरस्ताद् विराडबृहती, ५५ बृहतीगर्भा विराट्, १, ४, १०, ११, २९, ३३, ५३, त्रिष्टुभः। पञ्चपञ्चाशदृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Yakshma Nashanam

    Meaning

    We drive out from here death and disease, adversity and negativity. O Agni, saviour of the patient’s person, destroy that disease and germs which eat into our flesh and eliminate those negative forces which we hate to suffer. All these we send up to you for cure.

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    Translation

    Out from here do we drive death, perdition, out the niggard; whoso hates us, him, O non-flesh-eating Agni, do thou eat; whomso we hate.

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    Translation

    By this fire, the one form of which is not flesh, consuming we expel the calamity of diseases, their malignancies and drive away death caused by them. Let this fire eat away whatever disease trouble us and we send whatever disease malign us to this.

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    Translation

    We expel from the state death and poverty. We drive away malignity. O King, thou who eatest not meat, punish him who hateth us: him whom we dislike we send to thee for justice.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ३−(निः) बहिर्भावे (इतः) अस्मात् स्थानात् (मृत्युम्) (निर्ऋतिम्) अ० ३।११।२। कृच्छ्रापत्तिम्−निरु० २।७। (निः) (अरातिम्) अदानम् (अजामसि) प्रेरयामः (यः) दुष्टः (नः) अस्मान् (द्वेष्टि) वैरायते (तम्) (अद्धि) खाद। नाशय (अग्ने) हे अग्निवत्तेजस्विन् राजन् (अक्रव्यात्) हे अमांसभक्षक। प्रजारक्षक (यम्) (उ) एव (द्विष्मः) वैरायामहे (तम्) (उ) (अपि) (ते) तुभ्यम् (प्रसुवामसि) प्रेरयामः ॥

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