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अथर्ववेद के काण्ड - 12 के सूक्त 2 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 26
    ऋषिः - भृगुः देवता - मृत्युः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - यक्ष्मारोगनाशन सूक्त
    1

    अश्म॑न्वती रीयते॒ सं र॑भध्वं वी॒रय॑ध्वं॒ प्र त॑रता सखायः। अत्रा॑ जहीत॒ ये अस॑न्दु॒रेवा॑ अनमी॒वानुत्त॑रेमाभि॒ वाजा॑न् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अश्म॑न्ऽवती । री॒य॒ते॒ । सम् । र॒भ॒ध्व॒म् । वी॒रय॑ध्वम् । प्र । त॒र॒त॒ । स॒खा॒य॒: । अत्र॑ । ज॒ही॒त॒ । ये । अस॑न् । दु॒:ऽएवा॑ । अ॒न॒मी॒वान् । उत् । त॒रे॒म॒ । अ॒भि । वाजा॑न् ॥२.२६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अश्मन्वती रीयते सं रभध्वं वीरयध्वं प्र तरता सखायः। अत्रा जहीत ये असन्दुरेवा अनमीवानुत्तरेमाभि वाजान् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अश्मन्ऽवती । रीयते । सम् । रभध्वम् । वीरयध्वम् । प्र । तरत । सखाय: । अत्र । जहीत । ये । असन् । दु:ऽएवा । अनमीवान् । उत् । तरेम । अभि । वाजान् ॥२.२६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 2; मन्त्र » 26
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    हिन्दी (4)

    विषय

    राजा और प्रजा के कर्तव्य का उपदेश।

    पदार्थ

    (सखायः) हे मित्रो ! (अश्मन्वती) बहुत पत्थरोंवाली [नदी] (रीयते) चलती है, (सं रभध्वम्) मिलकर उत्साह करो, (वीरयध्वम्) वीर बनो और (प्र तरत) पार हो जाओ, (ये) जो (अत्र) यहाँ [इस जगह वा समय] (दुरेवाः) दुर्गम मार्ग [वा विघ्न] (असन्) होवें, [उन्हें] (जहीत) छोड़ो, [पार करो], (अनमीवान्) रोगरहित (वाजान् अभि) अन्न आदि भोगों की ओर (उत्तरेम) हम उतरें ॥२६॥

    भावार्थ

    जैसे बड़ी-बड़ी दुस्तर नदी, समुद्र आदि को सेतु नौका आदि से पार करते हैं, वैसे ही वीर विद्वान् पुरुष मिलकर उत्तम प्रयत्नों से संसार के विघ्नों को हटाकर आनन्द पाते हैं ॥२६॥ यह मन्त्र कुछ भेद से ऋषि दयानन्दकृत संस्कारविधि विवाहप्रकरण में और ऋग्वेद में १०।५३।८। और यजुर्वेद में ३५।१० है ॥

    टिप्पणी

    २६−(अश्मन्वती) बहुपाषाणवती नदी (रीयते) गच्छति (सं रभध्वम्) मिलित्वा साहसं कुरुत (वीरयध्वम्) वीरकर्म कुरुत (प्र) प्रकर्षेण (तरत) उल्लङ्घयत (सखायः) हे सुहृदः (अत्र) अस्मिन् स्थाने समये वा (जहीत) त्यजत। पारयत (ये) (असन्) लेटि रूपम्। भवन्तु (दुरेवाः) दुर्गमा मार्गाः। विघ्नाः (अनमीवान्) रोगरहितान् (उत्तरेम) पारयेम (अभि) अभिलक्ष्य (वाजान्) अन्नादिभोगान् ॥

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    विषय

    अश्मन्वती नदी

    पदार्थ

    १. यह संसार नदी (अश्मन्वती) = पत्थरोंवाली है-इसमें तैरना सुगम नहीं। विविध प्रलोभन ही इसमें पत्थरों के समान हैं। (रीयते) = यह निरन्तर चल रही है-संसार में रुकने का काम नहीं। (संरभध्वम्) = एक-दूसरे के साथ मिलकर तैयार हो जाओ। (वीरयध्वम्) = वीरतापूर्वक आचरण करो। (सखायः प्रतरत) = मित्र बनकर एक-दूसरे का हाथ पकड़कर, इस नदी को तैर जाओ। २. (ये दरेवाः असन्) = जो भी दुराचरण हों, उन्हें (अत्रा जहीत) = यहाँ ही छोड़ जाओ। उनके बोझ को लादकर तैरना सुगम न होगा। इन अशुभों को छोड़कर (अनमीवान) = रोगरहित वाजान (अभि) = शक्तियों को लक्ष्य बनाकर (उत्तरेम) = इस नदी को तैर जाएँ।

    भावार्थ

    प्रलोभन-पाषाणों से परिपूर्ण इस भव-नदी को तैरना आसान नहीं। यहाँ साथी बनकर वीरता से हम इस नदी को पार करने का संकल्प करें। अशुभों को यहीं छोड़कर नीरोगता देनेवाली शक्तियों को लेकर हम परले पार उतरें।

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    भाषार्थ

    (अश्मन्वती) पथरीली नदी (रीयते) बह रही है, (सखायः) हे मित्रो ! (संरभध्वम्) परस्पर मिल कर कार्यारम्भ करो, (वीरयध्वम्) वीरता का प्रदर्शन करो, (प्रतरता) और तर जाओ। (अत्रा) यहीं, या इसी समय या इसी जन्म में (जहीत) छोड़ दो (ये असन् दुरेवाः) जो हैं दुःखदायीकर्म, (अनमीवान्) रोग रहित (वाजान्) अन्नो को (अभि) लक्ष्य कर के (उत्तरेम) हम उत्तीर्ण हो जाय।

    टिप्पणी

    [पूर्वमन्त्रों में यक्ष्म और उस के निराकरण के उपायों का वर्णन हुआ है। इस मन्त्र में भी "अनमीवान्" द्वारा रोग रहित होने का निर्देश हुआ है। अतः प्रकरणानुसार अश्मन्वती नदी का अभिप्राय "रोग और रोगजन्य कष्टों वाला जीवन" प्रतीत होता है। इसी लिये कहा है कि हम "अनमीवान् वाजान्" अर्थात् रोग रहित अन्नों को लक्ष्य करके रोगजन्य कष्टमय नदी को तैर जांय। रोग और रोगजन्यकष्ट तथा अकाल मृत्यु हैं जीवन के अश्मन् अर्थात् पत्थर। परस्पर मिल कर सहोद्योग द्वारा रोगप्रद कर्मों के परित्याग का वर्णन मन्त्र में हुआ है, संसार नदी से वैराग्यपूर्वक छूटने या मोक्ष प्राप्ति का नहीं। इसीलिये अगले मन्त्र (२८) में १०० वर्षों तक जीवित रहने के संकल्पों का वर्णन हुआ है। मन्त्र में "रोगनिवारक संगठन" का निर्देश मिलता है जिस में कि मिल कर व्यक्ति प्रण करें कि हम इस संगठन में रोगों को दूर करने का सम्मिलित प्रयत्न करेंगे और ऐसे अन्नों का सेवन करेंगे, जिस से यक्ष्म का उन्मूलन हो सकें। वाजान् = वाजः अन्ननाम (निघं० २।७)]।

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    विषय

    क्रव्यात् अग्नि का वर्णन, दुष्टों का दमन और राजा के कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    (अश्मन्वती) पत्थरों और शिलाओं से भरी नदी जिस प्रकार बड़े बेग से (रीयते) जाती है उसी प्रकार यह जीवन की या संसार की नदी बह रही है। इसलिये हे पुरुषो ! (सं रभध्वम्) सब मिल कर अपने कार्य उत्तमता से प्रारम्भ करो। (वीरयध्वम्) वीर के समान पराक्रमशील होकर कार्य करो, इस गम्भीर नदी को (प्र तरत) उत्तम रीति से तैरने का यत्न करो। (ये) जो (दुरेवाः असन्) दुष्ट कामना और आचारों वाले नीच पुरुष हैं उनको (अत्र जहीत) यहीं त्याग दो। और हम (अनमीवान्) रोग और दुःखों से रहित (वाजान्) उत्तम सुखमय लोकों या अन्नों को (उत् तरेम) प्राप्त हों।

    टिप्पणी

    ‘वाजो वै स्वर्गो लोकः’। ता० १८। ७। १२॥ गो० उ० ५॥ ८॥ (तृ०) ‘अत्रा जहाम ये असन्नशेवाः’, ‘शिवान् वयमुत्तरेमाभिवाजान्’ इति ऋ०। ‘अत्रा जहीमो शिवा ये असन्’ इति यजुः०। (प्र०) ‘अश्मन्वती रेवतीः’ इति तै० आ०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भृगुर्ऋषिः। अग्निरुत मन्त्रोक्ता देवताः, २१—३३ मृत्युर्देवता। २, ५, १२, २०, ३४-३६, ३८-४१, ४३, ५१, ५४ अनुष्टुभः [ १६ ककुम्मती परावृहती अनुष्टुप्, १८ निचृद् अनुष्टुप् ४० पुरस्तात् ककुम्मती ], ३ आस्तारपंक्ति:, ६ भुरिग् आर्षी पंक्तिः, ७, ४५ जगती, ८, ४८, ४९ भुरिग्, अनुष्टुब्गर्भा विपरीत पादलक्ष्मा पंक्तिः, ३७ पुरस्ताद बृहती, ४२ त्रिपदा एकावसाना आर्ची गायत्री, ४४ एकावताना द्विपदा आर्ची बृहती, ४६ एकावसाना साम्नी त्रिष्टुप्, ४७ पञ्चपदा बार्हतवैराजगर्भा जगती, ५० उपरिष्टाद विराड् बृहती, ५२ पुरस्ताद् विराडबृहती, ५५ बृहतीगर्भा विराट्, १, ४, १०, ११, २९, ३३, ५३, त्रिष्टुभः। पञ्चपञ्चाशदृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Yakshma Nashanam

    Meaning

    The rocky stream of life flows on in flood. Hold on fast together, friends, rise and swim to the shore. Let us jettison all that is inauspicious here. Let us swim and cross over to attain the trophies of victory. Drop the miseries, attain to the state of joy.

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    Translation

    The stony one flows; take ye hold together; play the hero, pass over, O friends; quit them that are of evil: courses; may we pass up unto powers that are free from disease.

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    Translation

    O fellow men of the world, this world, like like a stony river is flowing swiftly (in time) go on, other your strength and cross it. Who soever are troublesome abound them here. Let us cross over the power which are free from all malignancies.

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    Translation

    O friends, this world is a stream full of impediments and struggles, work in cooperation, have courage, cross it struggling hard. Throw in it the burden of your sins, and let us enjoy food free from disease!

    Footnote

    This verse preaches that life is a struggle. Success in it depends upon cooperation, courage, hard work, and nobility of character. Griffith interprets it, as if a corpse is being carried to the burial ground and a stony stream is to be crossed in the way. Sorry Griffith has not been able to understand the lofty significance of the verse. See Rig 10-53-8, Yajur, 35-10. This verse has been commented upon by Maharshi Dayananda in Samskara Vidhi in the chapter on marriage

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २६−(अश्मन्वती) बहुपाषाणवती नदी (रीयते) गच्छति (सं रभध्वम्) मिलित्वा साहसं कुरुत (वीरयध्वम्) वीरकर्म कुरुत (प्र) प्रकर्षेण (तरत) उल्लङ्घयत (सखायः) हे सुहृदः (अत्र) अस्मिन् स्थाने समये वा (जहीत) त्यजत। पारयत (ये) (असन्) लेटि रूपम्। भवन्तु (दुरेवाः) दुर्गमा मार्गाः। विघ्नाः (अनमीवान्) रोगरहितान् (उत्तरेम) पारयेम (अभि) अभिलक्ष्य (वाजान्) अन्नादिभोगान् ॥

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